हाइबन— मेरे बचपन का साथी
रश्मि विभा त्रिपाठी
मेरे गाँव में मेरी हवेली के ठीक सामने जो
बड़ी— सी हवेली थी, उसके पीछे के बड़े— से आँगन में खूब सारे पेड़-
पौधे लगे हुए थे। स्कूल से लौटने के बाद मैं रोज उस हवेली के आँगन में जाती थी और
एक पेड़, जिसके नीचे की धरती पर हमेशा लाल गलीचा— सा बिछा
रहता था, मैं वहाँ रोज खेलती मेरी दोस्त के साथ। मेरा
छुट्टी का तो पूरा दिन ही वहाँ बीतता था। तब मुझे नहीं पता था— पेड़ का अपने- आप
अपने फूल गिराना। मुझे तो तब यही लगता था कि मैं जो माँ की बात मानकर इस पेड़ की
डाली से फूल नहीं तोड़ती हूँ तो खुश होकर ये खुद ही मेरे लिए अपने फूल गिराता है
और मैं खुशी से भरकर उन झरे फूलों को अपनी हथेलियों में भर लेती। खूब उनसे खेलती।
वो कागज— से फूल मुझे बहुत लुभाते।
एक दिन गाँव छूटा तो जिसके साए में मेरा बचपन
बीता, वो पेड़ भी छूट गया मगर वक्त की राह पर हर पल
बहुत याद आए वो कागज- से फूल और बगैर खुशबू के महकाते रहे मुझे बेसाख़्ता मेरी
यादों में आ- आकरके। बचपन में मुझे उस पेड़ का नाम भी नहीं पता था, पता थी तो बस बारह मास उसके खिलने की आदत।
आज हू- ब- हू वैसा ही पेड़ दुबारा देखा, तो देखती रह गई, एकटक— याद आ गया मेरे बचपन का
साथी। मैंने नब्ज देखी— पहली बार दिल जोरों से धड़क रहा था (वरना जिए जाने के बाद
भी जीने का अहसास नहीं होता था कई बार तो) उसकी याद ने यकीन बनाए रखा था लेकिन यूँ
रू-ब- रू होकर आज मेरे यकीन को पुख़्ता कर दिया कि ज़िन्दगी में जिधर देखती हूँ,
उधर काँटे ही काँटे हैं मगर इन काँटों के बीच भी ये जो मेरी
पलकों पर फूल खिल रहे हैं उम्मीदों के, और नजरों का नशेमन
गुलजार है ना, उसी बोगनबेलिया ने बचपन में मेरे सर पर हाथ
रखकर मुझे आशीष दिया है, (आज मुझे इसका नाम मालूम हुआ,
बचपन में तो बस खोई रहती थी उसके बारह मास के खिले सुर्ख काजगी
फूलों की सुंदरता में)। मेरी बात शायद कुछ एक को अजीब लगती है जब मैं कहती हूँ कि
पेड़ों के आशीष देने की बात करती हूँ, कुछ ये सोचकर हँसते
हैं कि पेड़ों के तो हाथ नहीं होते!
मैं बचपन से माँ को देखती आई हूँ— बरगद और
पीपल की हमेशा से पूजा करते हुए। माँ मानती हैं कि पेड़ पुरखे हैं हमारे, ये सच में आशीष देते हैं हमें।
पेड़ सच में आशीष देते हैं, कोई सर झुकाकर तो देखे? मेरी यादों के जैसे इस
पेड़ के साए में खड़े होकर मैंने आँखें बंद कर लीं और चली गई सोच के गलियारे से
अतीत की हवेली के आँगन में, जहाँ मेरे बचपन का पेड़ है,
उस पेड़ के नीचे गई और भर लीं अपनी हथेलियाँ फूलों से, अपने सर पर महसूस किए कागजी फूल— से पोर और बगैर खुशबू के महक गई मैं
फिर लौट आई वक्त की कँटीली राह पर—
मेरी गुइयाँ
बोगनबेलिया है
सदा खिलूँगी!