भीकम सिंह
1
खेत का दुःख
खलिहान जानता,
ठोकर भरे
दगड़ों की टीस भी
पहचानता,
मीलों -मील चलके
तलाशता है
शस्यों के अच्छे -भाव,
और चूल्हों के
हँसते हुए तवे,
अनथक कूल्हों से।
2
नीम के नीचे
पुराने अचार की
गंध ज्यों आई
बुझ गई त्यों बीड़ी
तभी लगाई
खलिहान खुश है
दिन चढ़ा है
भली है परछाई,
घूँघट में से
जैसे कोई प्रतीक्षा
वहीं सिमट आई।
3
बीजों के बोए
उगे अंकुर सारे
लहराए हैं
गाँवों के मौन मन
बतियाए हैं
मुर्झाए पड़े दिन
हरियाए हैं
खेतों में फसलों के
फलने तक
साँझ की मेड़ों पर
गाँव चल आए हैं।
4
सूर्य ने ढका
भीगा -सा खलिहान
खेतों में आई
ज्यों उजली मुस्कान
उँगलियों ने
खोली और सँवारी
गेहूँ की बाली
सिरहाने आ बैठी
शर्मीली हवा
मेघों की देख रति
हाथों में आई गति।
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