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शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

1206

 

भीकम सिंह 


1

खेत का दुःख 

खलिहान जानता,

ठोकर भरे 

दगड़ों की टीस भी 

पहचानता,

मीलों -मील चलके 

तलाशता है 

शस्यों के अच्छे -भाव,

और चूल्हों के 

हँसते हुए तवे,

अनथक कूल्हों से।

2

नीम के नीचे 

पुराने अचार की

गंध ज्यों आई 

बुझ गई त्यों बीड़ी 

तभी लगाई 

खलिहान खुश है 

दिन चढ़ा है 

भली है परछाई,

घूँघट में से

जैसे कोई प्रतीक्षा 

वहीं सिमट आई। 

 3

बीजों के बो
उगे अंकुर सारे
लहराए हैं
गाँवों के मौन मन
बतियाए हैं
मुर्झाए पड़े दिन
हरियाए हैं
खेतों में फसलों के
फलने तक
साँझ की मेड़ों पर
गाँव चल आए हैं।

4

सूर्य ने ढका
भीगा -सा खलिहान
खेतों में आई
ज्यों उजली मुस्कान
उँगलियों ने
खोली और सँवारी
गेहूँ की बाली
सिरहाने आ बैठी
शर्मीली हवा
मेघों की देख रति
हाथों में आई गति।

-0-

बुधवार, 1 जनवरी 2025

नया वर्ष

 भीकम सिंह

1

भरे दिल में

खुशियों वाले रंग

नया बरस

दिन सुहाने करे

रातें करे सरस।

2

प्रेम के बीज

जो घृणा में सूखे हैं

वर्षों पहले

इस वर्ष पनपें

उनकी सारी बेलें।

3

साल में

रहें साथ मिलके

हम-औ-तुम

बैर में भी प्यार का,

बना रहे मौसम।

4

साल का

प्रथम दिवस है

बैर भुलाओ

उजाला थोड़ा बढ़े

बुझे दीये जलाओ।

5

वर्ष में

नई-नई बातें हो

झूमे ख़ुशी से

हँसना-हँसाना हो

दुश्मन हो दुःखी से।

6

मुस्कान देता

नया वर्ष आने दो

फिर सुखों की

बरसात आने दो

धूप को लजाने दो।

7

आने लगे हैं

दस्तक के बुलावे

वर्ष के,

हुमक रहे पल

अनचीते हर्ष के।

8

ठेल-ठालके

जैसे- तैसे बीता है

पुराना वर्ष

आओ, के देखे

विषाद और हर्ष।

 

-0-

मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

जीवन की संध्या में

 

1-भीकम सिंह


1

प्रेम हुआ है

जीवन की संध्या में

खिली ज्यों भोर

मन लौटना चाहे

फिर उसी की ओर ।

2

नमी लेकर

धूप आगे बढ़ी है

फिर ओस से,

दूब की फुनगियाँ

खड़ी अफसोस से ।

3

नभ के तारे

टिमटिमा रहे हैं

मेरे मन में ,

शुरु कर दिया है

टूटना भी तन ने ।

4

सॅंभाले यदि

जनम के सिरजे

प्रेम के पल ,

तो जिन्दगी की नदी

बहती कल-कल।

5

आती हैं यादें

बहुत - सी पुरानी

वे लड़किहाँ,

तितलियों के जैसी

और वे  छेड़खानी ।

-0-

2-चोका- देर न करो /प्रीति अग्रवाल




चलो चलते
इक ज
हाँ बसाते
ऐसा जिसमें
कोई ऊँचा, न नीचा
राग, न द्वेष
न कलह, न क्लेश
घृणा, न ईर्ष्या
भय, न अहंकार
जहाँ बसते
मधुरिम संवाद
प्रेम में पगे
आचार, व्यवहार
सद्भावना के
उच्चतम संस्कार
मान-सम्मान
सब का अधिकार
देर न करो
मुमकिन ये ज
हाँ
आ जाओ, मेरे साथ!
-0-

बुधवार, 20 नवंबर 2024

1198

 भीकम सिंह 

1

प्रदूषण के

लौटते हुए पथ

कालिख में से 

उठता हुआ धुऑं

धूप ठहरी

दिन की देहरी पे

हर सुबह ,

अँधेरा लिए खड़ा 

दिल्ली का पास,

योजना पराली की 

चलती छठे -मास ।

2

बाँट देना है 

बहुत आसान- सा

जोड़े रखना 

बहुत कठिन है 

बाँटे रखना 

निर्ममता जैसा है 

और जोड़ना 

दयालुता शायद 

फिर भी आज

कुछ लोग करते 

बाँट देने का काज ।

-0-

गुरुवार, 31 अक्टूबर 2024

1197

 



डॉ. सुरंगमा यादव

1

लौटे हैं रघुनंदन

त्याग भरा अपना

लेकर मर्यादित मन।

2

दीवाली यह बोली-

हर घर खुशियों की

सज जाए रंगोली ।

2

अंतरतम नेह भरा

दीपक माटी का

तम से ना तनिक डरा

4

अँधियारा बेकल है

दीपों से जगमग

मावस का आँचल है

5

उत्कट अभिलाषा है

सूने नयनों में

भरनी नव आशा है

6

दीपक कब है डरता

तम की कारा में

अवसर  ढूँढा करता

7

आँगन इठलाते हैं

माटी के दीपक

आँचल में पाते हैं

8

जो दीप जलाते हैं

घर में माटी के

आशीषें पाते हैं

9

माटी के दीप जलें

गढ़ने वालों के

घर भी त्योहार खिले।

10

मन वज्र  किसे भाए

संवेदन पर भारी

स्वारथ ना हो जाए।

-0-

 


2-भीकम सिंह

1

लौ में पतंगे

बाहों में बाहें डाले

ज्यों मतवाले

रेशमी भुलावों में 

बेचारे भोले - भाले ।

2

दीया ही आए

अँधेरे के मुल्क में 

हाथ उठाए 

बेशक गहरी हों

लम्बी -लम्बी निशाएँ ।

3

दीये की लौ से 

गर्म हैं हथेलियाँ

ऑंधी के वार

झेल रही वैलियाँ

कुहासे में चिनार ।

4

प्रेम के दीप

अब जलाएँ कैसे 

चारों ओर है 

हवाओं का पहरा 

तम, मुँहजोर है।

5

जुगनूँ सारे 

दिप दिप - सा करें 

आँख - सी मारे

सैर को निकले हैं 

सूनी गली में प्यारे ।

6

उलटे मुँह 

रात में हवा हुई

लौ डर गई 

तम की गठरी भी 

नीचे ही खुल गई ।

7

पटाखे लाया 

औ- धुआँखोर ऋतु 

कैसा है पर्व 

खालीपन भी लाया 

दीपावली का गर्व ।

8

दिन अँधेरे 

रातों में उजाले है 

कैसे हैं दीये 

भाई -चारे का तेल 

मुँडेरों पर पिएँ ।

9

हवा ज्यों चली

लरजी दीये की लौ 

डगमग- सी

पर जलती रही 

वहीं पर वैसे ही।

10

आग कन्धों पे 

दीयों ने धरकर

काटा सफर

और मूँग - सी दली

तम की छाती पर ।

-0-

3-रमेश कुमार सोनी



1

माटी बिकती

माटी ही खरीदते

माटी के मोल

रौशनी हँस पड़ी

पतंगे जल गए। 

2

कुटिया भूखी

रौशनी चली जाती

पैसों के घर 

सम्मान को तरसी

बूढ़ी माँ सी उदास।

3

पैसों का मेला

हवेली ही फोड़ती

खुशी पटाखे

कोई देखके खुश 

कोई बेचके खुश।

4

ड्योढ़ी सजी है

रंगोली भी पुकारे 

श्री जी पधारो

रौशन है आँगन

खुशियों की दीवाली।

5

जेब उछले

दीवाली है मनाना

दिवाला होगा!

छूट की लूट सजी

बाजार बुलाते हैं।

6

दीवाली आई

मॉल की बाँछे खिलीं 

पैकिंग ठगे

मावा में मिलावट

मरीज भी बढ़ते।

7

रौशनी पर्व

अँधेरा छिप जाता 

दी के नीचे 

कीटों की फौज बुला 

आज़ादी चाहता है!

8

आई दीवाली 

सब कुछ नया है 

उमंगें गातीं 

सिर्फ लोग पुराने

किस्से जवान हुए। 

9

बधाई बँटी 

गिफ़्ट सैर को चले

घर से घर 

कल कूड़ा उठाने 

झोंपड़ी जल्दी सोयी।

10 

आग डराती 

पेट या पटाखों की

दुविधा बड़ी

पेट खोजे मजूरी 

मन खोजे पटाखे।

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मंगलवार, 22 अक्टूबर 2024

1195

 भीकम सिंह 


1

ऑंखों में चले 

मेघ के सिलसिले 

सच्चे -औ-सही

मैं तो देखता रहा 

बहार आई कहीं ।

2

मेरी जमीन 

और घर ऑंगन 

गली भी मेरी 

फिर भी सुनें लोग 

क्यों अनकही मेरी ।

3

प्रेम में कभी 

टूट जाते हैं सभी 

ख़्वाब -औ-ख़्याल

बन जाते हैं रास्ते 

एक नया बवाल ।

4

उसकी जुल्फ़ें 

बसन्त -सा ओढ़े हैं

लोग क्या जाने 

पतझड़ से पूछो

मस्त झोंकों के माने ।

5

झूठ है नही 

प्रेम हो जाने को है 

आज भी वही 

उड़ रहे हैं मेघ 

वहीं पर वैसे ही ।

6

वो भी दिन थे
प्यार वाले दिनों में,
शाम के होते
आ जाती थी  चाँदनी
कुछ कुहासे होते।

 

-0-