‘झरे हरसिंगार’ : अभी भी
बाकी ,हैं मन के जज्बात -डॉ.पूर्णिमा
राय
डॉ.हरदीप कौर संधु(सिडनी)जी की लिखी पंक्तियाँ -"दुआएँ बाँटने वाले
हाथ जब कलम उठाते हैं तो मोह की स्याही से पाठकों के हृदय पन्नों पर अनमोल भाव
अंकित करते
चले जातें हैं।" जब मैंनें रामेश्वर काम्बोज
'हिमांशु ' जी द्वारा रचित पुस्तक
"झरे हरसिंगार " पुस्तक के आवरण
पृष्ठ पर पढ़ी तो मन एक विशेष स्नेह के वशीभूत हो गया और इस ताँका -संग्रह की खूबसूरती को भीतर तक अनुभव करने हेतु लालायित हो उठा।हिन्दी हाइकु पर मेरी एक लेखिका मित्र
मंजूषा मन जी ने एक बार लिंक भेजा कि मेरे हाइकु पर टिप्पणी लिखी है ,पूर्णिमा जी पढ़िएगा। मैनें
उस लिंक पर आ.रामेश्वर जी द्वारा दिये ईमेल पर संपर्क किया और तब से लेकर आज तक
रचना कर्म रामेश्वर जी के सानिध्य में फलीभूत हो रहा है। आज आपकी पुस्तक को पढ़ना और उस पर अपनी भावनाएँ व्यक्त करना मेरे लिए महज
सीखने का एक ओर ढंग ही है।
साहित्यजगत में विशेष
एवं विलक्षण पहचान बनाए आ.रामेश्वर हिमांशु जी जहाँ आदर्श शिक्षक हैं ,वहाँ सबको एक सूत्र
में बाँधकर रखने वाली मजबूत कड़ी भी हैं। अन्तर्जाल के माध्यम से जो रिश्ता आपसे
जुड़ा है ,वह अटूट है । इसका प्रमाण कि आज दो साल से अधिक समय
हो गया ,पर कभी आपसे साक्षात्कार न हुआ । महज फोन पर बातचीत
से साहित्य कार्य चल रहा है। आपके सहृदय व्यक्तित्व के संबंध में अधिक कहा तो अतिशयोक्तिपूर्ण
लगेगा।
‘झरे
हरसिंगार’ ताँका
संग्रह अयन प्रकाशन,दिल्ली से सन् 2012 में प्रकाशित एवं आठ खण्डों --सूरज उगाएँगे,यही जीवन,जीवन की किताब,मिले धरा गगन,नूर
की बूँद,झरे हरसिंगार,परम पावन,बरसे ज्योति में विभाजित एक खूबसूरत काव्यात्मक एवं सृजनात्मक संकलन है। प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ.सुधा गुप्ता जी द्वारा लिखा आलेख "श्री हिमांशु का ताँका -रचना संसार" पढ़कर रामेश्वर जी की
ताँका अभिव्यक्ति व्यष्टि से समष्टि ,वैयक्तिकता से
सामूहिकता,आंतरिकता से बाह्य,सूक्ष्म
से स्थूल की अनवरत यात्रा है।जैसे जैसे पन्ने खुलते जा रहे थे,पढ़ने की तीव्रता गहन होती जा रही थी..तभी नज़र ठहरी....वाह
क्या खूब ताँका
है......
·
इस गाँव में /आना नहीं
दुबारा/क्यों विष घोलें/मीठे ही बोल बोलें/खुशी के द्वार खोलें ।
एक दर्द है,आह है,भीतरी पुकार है ,पर निष्कर्ष क्या ..बस खुशी,प्रेम,स्नेह ,माधुर्य बाँटना। यही
तो कवि का कवित्व है ,रचना का मर्म है,जो
पाठक हृदय को छू लेने के साथ-साथ समाज हित में सचेत कर
दे।
·
जितना झुके/न टूटे यह
घर/उतना टूटे/बुरी तरह दोनों/हम और घर भी ।
कैसी विडंबना है?यह टूटन क्यों अपनी सी
लगी?यह बिखराव ,अधूरापन क्यों सिसक रहा
करवटें ले लेकर ..हाय कैसी है नियति ...न समझे यह निष्ठुर मन ....!!
डॉ.भावना कुँअर (ऑस्ट्रेलिया)ने
भी कितना सुंदर और सजीव अंकन करते पृष्ठ17 पर लिखा
है--" झरे हरसिंगार पढ़ते ही लगता है जैसे हम बीच आँगन
में खड़े हों और पुष्पों की वर्षा हमारे ऊपर हो रही हो और उन पुष्पों की पंखुरियाँ
कभी पलकों पर ,कभी अलकों पर तो कभी अधरों पर अपनी उपस्थिति
दर्ज करा रही हों।"
·
वे दर्द बाँटें/बोते रहे हैं
काँटें/हम क्या करें?बिखेरेंगे मुस्कान/गाएँ
फूलों के गान
एक सहृदय यथार्थवादी
रचनाकार की सार्थक ध्वनि लक्षित होती है ,हम तो बस स्नेह देंगें.,प्यार
बाँटेंगें,हम अपनी राह क्यों बदलें ,जब
तुम न बदलोगे। किसी ने बहुत खूब लिखा है कि बुरा करने वाला बुराई नहीं छोड़ता तो हम
अच्छाई करने से गुरेज़ क्यों करें।
आस एवं विश्वास पर
दुनिया टिकती है पर कवि को यह रास नहीं आता..क्योंकि कवि /लेखक अपने वैयक्तिक
अनुभवों के साथ -साथ अपने संपर्क में आये संबंधों से भी दो चार हाथ होता है तभी तो
उसकी कलम कह उठती है.....
ओ मेरे मन/तू सभी से प्यार की/आशा न रख/पाहन पर दूब/कभी जमती नहीं।
कितनी स्पष्टता ,निर्मलता एवं रवानी है
यहाँ!
मिलन/बिछोह,सुख/दुख धूप छाँव की
मानिंद कभी खुशी तो कभी गमी के आँसू मानव मन को छलते रहे हैं ....
·
भिगो गई है/भावों की
बदरिया/चुपके से आ/जनम-जनम की/जो सूखी चदरिया
सत्य है जब भावनाएँ
हिलोर की मानिंद उठती हैं तो किसी का वश नहीं रहता,बेबाक मन तड़प उठता है ,होंठ
पुकार उठते हैं पर आँखें सब राज बिन बोले खोल देती हैं ।
तन
के भूखे /मन को क्या जाने/दिखता उन्हें
कीचड़ ही कीचड़/न कि पावन मन
कैसी विसंगति है जिसे
चाहो ,वह तो
मात्र तन लिप्सा में डूबा है ,मन से उसका दूर-दूर तक सरोकार
नहीं,बस कमल चाहिए सबको ,उसके आप-पास की
कीचड़ रूपी मुसीबतों से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता,सब स्वार्थ मोह में ग्रसित हैं।
·
यादों का नीड़/तुम जो
सजाओगी/मुझे पाओगी /सहसा द्वार पर/गले लग जाओगी
प्रेम की अति गहन
अनुभूति का अनुमान उपर्युक्त ताँका से लगाया जा सकता है।
कभी
कभी जीवन में ऐसे पल भी आते हैं जब मन हताश हो जाता है ,उसे
कुछ सूझता नहीं ,बस चारों ओर गहन अँधेरा छाया लगता है..उन
पलों को प्राकृतिक रंग में रंगकर रामेश्वर जी ने खूबसूरत ताँका लिखा है
·
घिरी उदासी/नदिया जैसे
प्यासी/सिन्धु पुकारे/समझ नहीं आये/मन यही विचारे।
एक वक्त ऐसा आता है जब
सब कुछ पाकर भी खालीपन-सा लगता
है ।उस स्थिति को चित्रित करके कवि ने अपनी काव्य-कला
का अद्भुत रूप पेश किया है
·
बीते जो दिन/प्यार की ऊष्मा
तले/हमें रुलाते/बीते पल आज भी/हम भूल न पाते।
यही पल तो जीवन के इन
भीड़भाड़ भरे माहौल में भी सुकून के साक्षी हैं।
आज की भागदौड़ भरी
आधुनिक जिन्दगी पर कटाक्ष करता निम्न ताँका अपनी समसामयिकता के आलोक में निखरा सा
लगता है
·
किसे था पता -/ये दिन भी आएँगे/अपने
सभी/पाषाण हो जाएँगे/चोट पहुँचाएँगे।
आज के जीवन पर बिल्कुल
सत्य एवं सटीक ताँका कथन है ।आज हालात इस कद्र बदल गए कि अपने अपनों को ही मार
काट रहे हैं अब बेगानों से क्या उम्मीद करनी!
एक कवि,रचनाकार की खासियत है
वह नकारात्मकता में भी सकारात्मकता को ढूँढ लाता है ,धूप में
भी छाँव को महसूस करता है,घृणा में भी प्रेम खोजता है ---
·
पास न आए/कभी दुःख की
घड़ी/प्यार मुस्काए/दर पे लहराए/खुशी की फुलझड़ी।
आशावादिता का संदेश
देने में सिद्धहस्त रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी के निम्न ताँका से मैं अपनी बात
को विराम देना चाहूँगी -
·
विदा कर दें/नफरतें दिल
से/प्यार बसाएँ/इस दुनिया को ही/जन्नत-सी बनाएँ।
अन्त में अपने लिखे
ताँका को 'झरे
हरसिंगार' ताँका- संग्रह को समर्पित
करती हूँ
·
अभी भी बाकी/हैं मन के
जज्बात/बढ़ती जाए/मेरी कलम प्यास/दिन चढ़ने वाला ।
शिक्षिका एवं लेखिका
21/5/17(1.20pm)