डॉ सरस्वती माथुर
जब भी मैं कॉलेज जाने के लिए कार निकालती हूँ ,
तो जाने कहाँ से पाखी- सी उड़ती वो लड़की मेरे गेट के
पास आ खड़ी होती है । कार निकालते ही मेन गेट बंद कर वो दमकती आँखों से मुझे
देखती रहती है मानो कह रही हो कि दीदी आप
मुझे बहुत अच्छी लगती हैं !कुछ दिन वो बीच में दिखी नहीं,तो
मैं ही बैचैन हो गई थी इसलिए उसे देखते ही बोली -इतने दिन कहाँ रही री छौरी,दिखी
नहीं ?
वो
मेरी कार के पास आकर राजस्थानी भाषा में बोली-
"नानी के गयी ही वा है न जो नाल
सूँ पड़ गयी छी वाकी हड्डी टूटगी छी न
ई वास्ते माँ के लारे देखबा ने गयी छी ( नानी के गई थी ।वो सीढी से गिर गयी थी न, उनकी हड्डी टूट गई थी इसलिए माँ के साथ देखने
को गई थी )
'अच्छा
अच्छा ठीक है 'मुझे जल्दी थी जाने की, पर वो बिलकुल मेरी कार से सटी खड़ी थी , हाथों
में कुछ छिपा रखा था तो मैं समझ गई थी कि कुछ दिखाना
चाहती है ! दरअसल कुछ दिन पहले उसे मैंने कहा था कि लड़कियों को पढ़ना- लिखना चाहिए, तो वो बोली थी कि दीदी माँ भी कह रही थीं कि तुझे खूब पढ़ाऊँगी ,अभी दुपहर वाले सरकारी स्कूल में पढ़ती हूँ ।
इस लड़की की आँखों में अलग सी चमक दिखती थी मुझे।उसकी
माँ मेरे किरायेदार के यहाँ रोज काम करने सुबह के समय आती थी ,तो उसे भी संग में ले आती थी !
कुछ दिन पहले ही मैंने उसे पढ़ने को कुछ बाल पत्रिकाएँ दी थी। मुझे उसकी माँ ने बताया था कि वह उन्हें
बड़ी लगन से पढ़ती थी।
"हाथ में क्या लाई है री ,क्या छिपा रखा है ?मेरी बात खत्म हो उससे पहले ही उसने हाथ बढ़ा एक तुड़ा मुडा कागज पकड़ा
दिया।,मैंने
कागज खोलकर देखा उसमें लिखा था
-"किताबें मुझको लगती हैं प्यारी
प्यारी पढ़ लूँगी मैं मिलते ही सारी की सारीकुछ किताबें और पढ़ने के लिए दे दो न
दीदी जी !"
मैं हतप्रभ
सी उसे देखती रही ,वो सात वर्ष की थी और ये
कवितामयी पंक्तियाँ टेढ़ी- मेढ़ी शैली में
उसका भविष्य बता रही थी ? उसे जल्दी कुछ
किताबें देने की बात कहकर मैं कॉलेज की ओर चल दी ।
कार
के शीशे से पीछे झाँका तो देखा वह मेरा मेन गेट बंद कर मुझे जाते निहार रही थी और
मैं सोच रही थी कि सच है यह कि बाल मन में ईश्वर बसते हैं ।
बंजर
दिल
स्नेह
सुधा से सींचा
तो हरा हुआ ।
-0-