दिनेश चन्द्र पाण्डेय
1.
बदरा
छाए
सावन
में कजरी
पपीहा
गाए
कोरस
में दादुर
मीठी
कोयल मौन
2.
रवि
को जगा
कलरव
से खग
घर
बाग़ में
अपनी
जमींदारी
सँभालते सजग
3.
कला- सृजन
दबी
संवेदनाएँ
आकार लेतीं
मूर्त अन्तर्मन
की
अनुभव पीड़ाएँ
4.
रूपसी
बाला
मुस्कुराते
अधर
झील- सी आँखें
दृष्टि ठगी -सी, खोईं
उस रूप दीप्ति में
5.
भीगे नयन
सुधा रस संपन्न
मातृ-हृदय
बसता है जिसमें
शिशु का जग सारा
6.
आया बसंत
कुंजों में भौंरे डोले
कुहुके श्यामा
सुमनों के सौरभ
पी रहीं तितलियाँ
7
घुप अँधेरे
में
भूमि गर्भ से बीज
आस्था
सज्जित
शक्ति
एकाग्र कर
कोंपल बन
आता
8
पथिक संग
चलता रहा
रात
चाँद अकेला
बिछा कर कौमुदी
राह सजाता
रहा
9
हरि
प्रेरित
उनचास पवन
चलने लगे
पूँछ लगी न
आग़
जले लंका
भवन
10
बिजूखा जैसे
घर में माता पिता
रहे अकेले
नग़र ने निगला
पुराना गाँव घर
11
आई दीवाली
खूब सजे घर में
खील- खिलोने
दीखे नहीं पास ही
झुग्गी, माँ बच्चे रोने
12
संभावनाएँ,
मानव में
कपि -सी,
अंतर्निहित,
विस्मृति
से जगाते,
सद्गुरु
जाम्बवान
-0-
10 टिप्पणियां:
बहुत ही सुन्दर, भावपूर्ण ताँका।
हार्दिक बधाई आदरणीय ।
सादर 🙏🏻
आभार।
बिजूखा जैसे
घर में माता पिता
रहे अकेले
नग़र ने निगला
पुराना गाँव घर....वाह,बहुत नया बिम्ब,सभी ताँका प्रभावी।बधाई दिनेश चंद्र पांडेय जी।
बहुत सुंदर सृजन।हार्दिक बधाई आपको।
प्रोत्साहन अभ्युक्तियों हेतु समस्त सत्साहित्यिक सुधीजनों को आभार ।
सभी ताँका बेहतरीन, हार्दिक शुभकामनाएँ ।
बेहतरीन तांका के लिए हार्दिक बधाई |
बिजूखा जैसे
घर में माता पिता
रहे अकेले
नग़र ने निगला
पुराना गाँव घर
अच्छे ताँका के लिए बधाई।
दिनेश जी आपके द्वारा रचित सभी ताँका एक से बढ़कर एक हैं हार्दिक बधाई ।
सभी ताँका बहुत सुन्दर...हार्दिक बधाई।
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