डॉ•
हरदीप कौर सन्धु
टी. वी. पर चल रहे क्विज़ प्रोग्राम में बच्चे से एक सवाल पूछा गया, " घड़ी के आविष्कार
से पहले समय कैसे देखा जाता था?"
" परछाईं
से" बच्चे ने एक स्पष्ट जवाब दिया।
सवाल -जवाब का ये सिलसिला तो न जाने कब तक चलता रहा होगा, मगर यह शब्द ‘परछाईं’ मेरे बुत को वहीं
छोड़कर मेरी रूह को उडान भरकर गाँव ले
उड़ा। अब मैं उस दीवार से टेक लगाए
खड़ी थी, जिसकी परछाईं से
मेरे रुपहले बचपन के साथ एक मधुर आत्मीयता है ।
तब हम
सरकारी अस्पताल के अहाते में ही रहते थे ,जहाँ मेरे पापा डॉक्टर थे। माँ साथ के शहर में अध्यापिका थीं। स्कूल से
छुट्टी होतेही पापा हमें खाना खिलाते और शाम की शिफ़्ट पर चले जाते। हम अपने साथियों के संग मस्ती करते कपड़े भी मटमैले कर
लेते। हम अस्पताल जाकर पापा से बार=बार माँ के घर लौटने
का समय भी पूछते रहते । "बस एक घंटा है"- पापा हमारे इंतज़ार को सहारा देने की असफ़ल कोशिश करते। हम
पल - दो -पल के बाद फिर पूछने चले जाते, " अब एक घंटा तो हो
गया होगा।" शायद तब हमें बीतते पलों को मापने की जाँच नहीं थी। इस तरह पापा
के काम में रुकावट आती।
आँगन
की दीवार के पास एक लकीर खींच,उस पर एक ईंट रखते हुए
पापा बोले, " जब दीवार की परछाईं इस ईंट पर पड़ेगी … माँ
आपके पास होगी। मगर हाँ …… माँ
के आने से पहले -पहले, नहा -धोकर स्कूल के काम में लग
जाना।" इस आखिरी बात में एक हुक्म जैसी मीठी हिदायत होती। पापा की ये तरकीब
रंग लाई थी।
शाम ढलते
एक दूसरे की शिकायतें लगाते चाहे माँ से ही हम डाँट खाते, मगर हमारी इंतज़ार करती अँखियाँ
न जाने क्यों उस दीवार की परछाईं की ओर लगी रहतीं। इस क्यों का जवाब ज़िन्दगी की
टेड़ी -मेड़ी राहों पर चलते
खुद-ब -खुद मिलने लगा जब कड़कती धूप में गुलमोहर की छाँव बनकर आई माँ तथा कड़ाके की
ठंड में हाथों सूरज लेकर खड़ी थी माँ। ढलती शाम दीवार परछाईं माँ की आमद।
माँ की
आमद
दीवार- परछाईं
बच्चों की
छाँव।।
-0-
15 टिप्पणियां:
आपकी हर रचना की तरह यह भी बेहद भावपूर्ण ,सहज ,सरल ,दृश्य को मानो साकार करती प्रस्तुति है |हम कितने भी बड़े क्यों न हो जाएं माँ की घर में उपस्थिति मन को एक संतोष ,निश्चिन्तता से भर देती है ..फिर बचपन की तो बात ही क्या !!
सुन्दर हाइबन हेतु हार्दिक बधाई !!
ज्योत्स्ना शर्मा
माँ का वात्सल्य इस बेहद भावपूर्ण हाइबन में पूरी तरह उजागर होता है।
मर्मस्पर्शी रचना!
डॉ• हरदीप कौर सन्धु जी हार्दिक अभिनन्दन!
सुबह से ही फोन में हिमांशु जी द्वारा भेजी गई रचना मैं पढ़ना चाहती थी, पर फोन पर पढ़ कर मैंं रचना से मिलने वाले संतोष को कम नहीं करना चाहती थी। फोन पर पढ़ने में वो आनंद नहीं आ पाता जो अपने लैपटाप, अपने कमरे में पढ़ने का आनंद है। ऑफिस से घर आते ही पढ़ने लगी । हरदीप जी भावपूर्ण सहज सरल हाइबन के लिए हार्दिक बधाई
ma ki vatsalya bhari yadon se racha-basa haiban ma se sambandhit har yadon ko taza karata hai. sach mein balyavastha se le kar vridhavastha tak ma ki biti duniya hame ghere rahati hai . vah to dhoop aur chhaya ki bhanti sang hi rahati hai. ve yaden hi hamen sukh deti hain.sunder satya ka abhas karate haiban hetu bahan sandhu ji apako badhai. b
pushpa mehra.
मां की याद तो समयातीत होती है लेकिन कभी कभी समय में बंधकर और भी मोहक बन जाती है. सुन्दर हाइबन -सुरेन्द्र वर्मा
हरदीप जी बचपन की मीठी यादों से जुड़ा शिक्षाप्रद हाईबन पढ़कर मुझे भी बचपन में लेगया और नजाने कितनी मीठी यादों से जोड़ गया |हार्दिक बधाई
सविता अग्रवाल "सवि"
इस सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए हरदीप जी को बधाई |
शशि पाधा
बहुत खूब , शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
http://madan-saxena.blogspot.in/
http://mmsaxena.blogspot.in/
http://madanmohansaxena.blogspot.in/
http://mmsaxena69.blogspot.in/
इस क्यों का जवाब ज़िन्दगी की टेड़ी -मेड़ी राहों पर चलते खुद-ब -खुद मिलने लगा जब कड़कती धूप में गुलमोहर की छाँव बनकर आई माँ तथा कड़ाके की ठंड में हाथों सूरज लेकर खड़ी थी माँ। ढलती शाम दीवार परछाईं माँ की आमद।
माँ की आमद
दीवार- परछाईं
बच्चों की छाँव।।behad marmsparshee tatha khoobsurat!ma ke vaatsaly ka javaab nahin hota....sunder bhaavpurn tatha sukhad haiban ke liye hardeep ji ko bahut -bahut badhaiyaan.
पिछले हर हाइबन की तरह ये हाइबन भी बहुत ख़ूबसूरत एहसास लिए हुए दिल को छू गया हरदीप जी ! माँ तो हर वक़्त परछाईं सी अपने बच्चों के साथ ही रहती है
इस सुंदर अभिव्यक्ति के लिए आपको हार्दिक बधाई !
~सादर
अनिता ललित
bahut sunder bhav aur shabdon ka tana baana hai aap ki ek ek line bahut khubsurat hai
badhai
rachana
बेहद सुन्दर भावपूर्ण हाइगा हरदीप जी.....हार्दिक बधाई!
bahut bhavpurn bahut bahut badhai...
माँ मात्र एक इंसान नही घर वालों और बच्चों के लिए पूरा संसार होती है । आँखों से दूर होने पर उस माँ रूपी गृहिणी के बिना घर का स्वामी भी घर की कल्पना नहीं कर सकता .बच्चे तो फिर बच्चे हैं। माँ के मन से जुड़े तार। उनके जीवन के हर कष्ट को माँ के सिवा दूसरा कौन समझ सकता है। तभी तो बच्चों को माँ कड़ाके की ठण्ड में सूर्य सा एहसास कराती है और तपती दुपहरी में गुलमोहर जैसी शीतक छाँव लगती है। माँ की महिमा वर्णनातीत है। बहुत खूब हरदीप। किसी का प्यार भरा हृदय ही ऐसी रचना कर सकता है मुबारक हो।
कमला
हरदीप जी...यह आपकी लेखनी का ही जादू है जो आपके ऐसे संस्मरण न केवल पाठकों के आगे सब कुछ साकार कर जाते हैं, बल्कि मन को बहुत गहरे तक छू कर एक अनोखा मर्मस्पर्शी अहसास जगा देते हैं |
इस खूबसूरत हाइबन के लिए बहुत बधाई...|
एक टिप्पणी भेजें