नटखट मुन्ना
कमला घटाऔरा
कमला घटाऔरा
एक दिन मेरी बेटी को जॉब इन्टरव्यू के लिए जाना था।अपने नौ दस महीने के बेटे को मेरे पास छोड़ कर। मुन्ना मेरे पास आकर बहुत खुश हुआ। जैसे उसे खेलने को साथी मिल गया हो। मैं भी आनंदित हो गयी अपने बचपन को मुन्ने के रूप में देखने के लिए। उसका घुटनों के बल चलना मुझे आनंदित कर रहा था। यशोदा के कान्हा की बाल लीलाओं का मैं कल्पना में आनंद लेने लगी। कभी तुलसी के राम की छवि निहारने लगी। यद्यपि वह कुछ पकड़ कर खड़ा हो सकता है । ठुमुक ठुमुक कर चल नही सकता । वह हर खिलौना हाथ में लेता घुमा कर खोलने की कोशिश करता फिर रख देता। फिर दूसरी चीज़ तलाशता। हमारे छोटे से ओपन किचन वाले फ्लैट में वह सीटिंग रूम से बेड रूम की और भागता। मैं उठ भी न पाती की वह पहुँच चुका होता। बिना कुण्डी के द्वार इस लिए बंद नहीं किये कहीं खोलते समय उसका हाथ ना जाये। अपने घर में ऐसे ही हाथ दे बैठा था। खाने का टाइम होने पर मैं खाना खिलाने बैठी तो वह हाथ से हिला कर चम्मच दूर गिरा देता। दूध भी आधा पी कर छोड़ दिया। अब क्या करूँ ?याद आया नैपी चेंग करनी है। यह भी हो गया। उसके सामने खिलोने रख कर उसे खेलना सिखाने लगी। अब उसके नाना जी के दुपहर के खाने का टाइम था। । मैंने सोचा उनके लिए रोटी बना कर रख दूँ। मुन्ना सो जाता तो आसानी होती। अब क्या करूँ ?
अब मुझे यशोदा बनना पड़ा। अपनी चुन्नी से उसे बांध कर दूसरा सिरा टेबुल के पाये से बांध दिया। मैंने अभी तवा भी नहीं रखा था कि जाने कैसे वह तो बंधन छुड़ा कर रसोई में आ पहुँचा। शायद मैंने उसे ढीला बाँधा था। वह बन्धन से आजाद हो झट से मेरी टाँगों के सहारे खड़ा हो कर नीचे की सामान रखने वाली कबड़ के हैंडल पकड़ कर देखने लगा। एक छुड़ाती दूसरी खोल लेता। उधर से हटाया तो वाशिंग मशीन के पास जाकर उसके बटन चेक करने लगा सारी सेटिंग बदल दी। उसे उठाये घूमना भी सहल नहीं था। कुछ देर उठाये रखा। अब मेरी बस थी। मैंने कहा, ‘‘चलो मुन्ने सोने का टाइम है। बहुत खेल लिया।” मुन्ना कहाँ मानने वाला। उस की निगाह कॉफ़ी टेबल पर पड़े इनके आई पैड पर चली गयी वह उसे लेने को मचलने लगा। अच्छा, लो खेलो। मैंने खोल कर सामने रखा तो स्क्रीन पर हाथ घुमा कर देखने लगा। स्क्रीन चेंज होकर उसे और लुभाने लगी। इस खेल में उसे बहुत आनंद आने लगा। कैसे छुड़ाऊं लेने पर रोने लगता। उस से जबरदस्ती आई पैड छुड़ा कर छुपाया। उसे गुस्सा होकर कहा, ‘‘बस, अब सोना है बाद में मम्मी के साथ खेलना।’’ उसे कंधे से लगा थपथपा कर सुलाने की कोशिश करने लगी। भला मुन्ना क्यों सोये। मेरे कंधे से उसे मम्मी के कंधे जैसा स्पर्श और महक नहीं मिल रही थी। वह बार बार गर्दन हटा कर कभी नीचे उतरने की ज़िद्द करता कभी दोनों हाथों से मेरे बाल खींचने लगता। छुड़ाने पर डर लगता उस की ऊँगली को चोट न पहुँच जाये।
तीन चार घन्टों में उसने मुझे तो नाको चन्ने चबा दिये । मेरी तौबा करा दी। एक डर भी था कि उसे कहीं सट्ट-चोट न लग जाये। दूसरा उसे कुछ अपनी मर्जी से या अधिक खिलाने से कहीं बिगाड़ न हो जाये। बाहर द्वार खुलने की आवाज से उसके कान खड़े हो गए। उसे आभास हो गया हो जैसे मम्मी आ गई हो। वही थी।कोई कितना लाड़ लड़ाए, माँ तो माँ ही होती है ना ! वह हर्षित होकर माँ की ओर जाने को उछला। मैंने नीचे छोड़ दिया और राहत की साँस ली। वह तेजी से घुटनों के बल माँ की ओर भागा। माँ को देख उसका चेहरा ख़ुशी से खिल उठा।
निहार माँ को
खिला मुख कमल
दमके नैन ।
6 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-01-2016) को "अब तो फेसबुक छोड़ ही दीजिये" (चर्चा अंक-2223) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
नववर्ष 2016 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार! मकर संक्रान्ति पर्व की शुभकामनाएँ!
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
वाह कमल जी क्या सुंदर चित्रण किया है, लाजवाब।
अत्यंत भावपूर्ण और सुंदर। बधाई कमला जी !
सार्थक रचना.... अत्यंत भावपूर्ण और सुंदर। बधाई कमला जी !
सुन्दर मधुर प्रस्तुति ..हार्दिक बधाई !
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