डॉ. हरदीप कौर सन्धु
शाम का समय। टिमटिमाती बत्तियों में टिमटिमाता हुआ सिडनी का एयर पोर्ट। सगे संबंधियों तथा दोस्त -मित्रों का स्वागत करने आए लोगों की भीड़। जहाज़ के सही सलामत पहुँच जाने की सूचना पढ़ते ही हम मुख्य द्वार पर खड़े हो गए और माँ का बेसब्री से इंतज़ार करने लगे।
कुछ देर में सामान से लदी बड़ी -बड़ी ट्रालियाँ धकेलते हुए लोग बाहर आने लगे। नर्गिस के फूलों जैसी हँसी बिखेरते, बाहें फैलाए मिल रहे अपनों को। हम भी दहलीज़ पर खड़े एड़ियाँ उठा -उठाकर देख रहे थे। लगता था कि ऐसा करने से शायद माँ जल्दी बाहर आ जाएगी। धीरे -धीरे भीड़ कम होने लगी। देखते ही देखते करीबन दो घंटे बीत गए लेकिन माँ हमें कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। उसको मिलने की तीब्र इच्छा का उतावलापन हमारी साँसों को रोक रहा मालूम होता था। आस -पास की हवा भी गंभीर हुई लगती थी।
मोह की परछाईं भय सागर में अलोप हो रही थी। माँ पहली बार सात समुन्दर पार, अनजान रास्तों के सफ़र से आ रही थी। मन में बिखरी सोच की पोटली स्वयं बाँधते -खोलते, चिंता का कुआँ चलाती मैं दलीलों के रस्ते पे चली जा रही थी, "कहीं वीज़े के कागज़ी काम में कोई कठिनाई न आ गई हो .......... अनसुनी ज़ुबाँ तथा नई भाषा की समझ ने कोई रुकावट न डाल दी हो ……… रास्ते में ज़हाज बदलते हुए कहीं अगली उड़ान ही न निकल गई हो। "
दूसरे ही पल अपने अंदर गहरे उतरकर इस उलझन का हल ढूँढ़ते -ढूँढ़ते मन बीते पलों की सीमाओं के उस पार जा पहुँचा, ".......... नहीं -नहीं ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता …हर उलझन का सहजता से हल ढूँढना सिखाने वाली………तथा पूरी दुनिया का भूलोग हमें मुँह ज़ुबानी याद करवाने वाली मेरी माँ के लिए ऐसी दिक्क्त तो कुछ भी नहीं है। "
…………… और अचानक फ़िज़ा में संदली महक घुल गई। माँ का मुबारक प्रवेश हमारे मुरझाए चेहरों पर खिलती गुलाबी हँसी बिखेर गया। ख़ुशी में झूमते हुए हम माँ से देर से बाहर निकलने का कारण पूछना भी भूल गए। चहकते चाव शरबती रंग हो गए जब माँ की मोह झफ़्फ़ी की खुशबू मन- आँगन में बिखर गई।
महकी मिट्टी -
तीखी धूप के बाद
वर्षा फुहार।