भीकम सिंह
गाँव
- 96
गाँवों में अभी
तपती हवाएँ हैं
लोगों से घिरे
जलते अलाव भी
खेत-सूखे हैं
औ- जल भराव भी
मिट्टी सोंधी है
थोड़ी-सी खराब भी
बीड़ी फूँकते
आसमान ताकते
हैं अभी स्वभाव भी ।
गाँव
- 97
छोटा-सा खेत
हिस्से-हिस्से हो गया
बँटवारा ज्यों
आँगन में दीवार
ऊँची बो गया
हारा हुआ मुखिया
रिश्तों में कैद
होकर रह गया
बड़ा मलाल
बूढ़ी माता को हुआ
कैसे बाँटे वो दुआ ।
गाँव
- 98
घरों से दूर
जब पहुँचा गाँव
धान के पास
खुदी- सी मिली नींव
मेड़ के पास
कहीं झड़े- से दाने
धोती-गमछा
कहीं जूती - चप्पल
कहीं विश्वास
टूटा मिला रेत में
सब उसी खेत में ।
गाँव
- 99
बढ रहे हैं
जमीन के भीतर
नाइट्रोजन
सल्फर-औ-कार्बन
खेत के खेत
जमुहाई ले रहे
गाँव चुप थे
बहुत दिनों बाद
ब्योरा ले रहे
सारे जमा खर्च का
सरकारी सर्च का ।
गाँव
- 100
गाँवों को मिले
तिकड़मी दबंग
किसान दंग
प्यासे खेत पी रहे
खाद की भंग
सभी बंजर जैसे
खड़े हैं दंग
कृषि हो चुकी बूढ़ी
बची ना यंग
उड़े शस्यों के रंग
खलिहान के संग ।
-0-
चाँद
भीकम सिंह
1
मेघों के सारे
दरवाजे खोलके
निकले तारे
चकोरों ने भी खोले
झोपड़ियों के द्वारे ।
2
चंदा
का नाम
जुड़ा ज्यों चकोर से
चाँदनी चढ़ी
बड़े जोर- शोर से
धरा देखे गौर से ।
3
कोह की ओट
नदी में डूबा चाँद
सोचे चकोर
कैसे पैगाम मेरा
पहुँचे उस ओर।
-0-
रश्मि विभा त्रिपाठी
1
सुनो! वाकई
तुम्हारी बातों में है
एक अजब शफा ,
दो बोल बोले
और कर दिया है
हर दर्द को दफा।
2
सुनो! वाकई
एक जादू की छड़ी
तुम्हारी चाहत है,
ओ मेरे मीत
दर्द औ गम में भी
मुझको राहत है।
3
सुनो! वाकई
तुम्हारी ही तुम्हारी
धुन मेरे मन में,
तुमसे ही हैं
ओ मेरे मीत सारी
खुशियाँ जीवन में।
4
सुनो! वाकई
तुम्हारी याद मीत
सुख की प्रदाता है,
तुम्हें मैं सोचूँ
मुस्करा उठती हूँ
दर्द मिट जाता है।
5
सुनो! वाकई
तुम्हारे ध्यान में मैं
जब- जब जाती हूँ,
सारे दुखों से
ओ मेरे मनमीत!
निर्वाण मैं पाती हूँ!!
6
सुनो! वाकई
हरेक पल
तुम्हें
मैं याद करती हूँ,
जो तुम ना हो
मेरे मनमीत तो
मैं आहें भरती हूँ।
7
सुनो! मुझको
तुम्हारी ही तुम्हारी
कबसे चाहत है,
गले लगके
जकड़ लो बाहों में
तुम्हें इजाजत है।
-0-
भीकम सिंह
गाँव - 91
भटक रहे
घायल देह लिये
खेत के खेत
गाँवों की तलाश में
आठों पहर
भोगवादी संस्कृति
खूब समझे
अकुलाए
खेतों की
परिस्थितियाँ
विस्थापन से खाली
क्यों
हो रही बस्तियाँ!
गाँव - 92
खेतों के जिस्म
छलनी हुए पड़े
हर गाँव में
कुछ अपने लोग
विस्थापन में
उन्हें छोड़ आए हैं
जो कभी- कभी
रस्तों में कहीं- कहीं
मिल जाते हैं
बेतहाशा दौड़ते
हर चीज ओढ़ते ।
गाँव- 93
गैरों में ढूँढें
गरिमा- औ- सम्मान
धूप में खड़े
गाँव तो हैं बावरे
नगर सारे
ज्यों चतुर - सुजान
चोट करते
दिखे नहीं निशान
गाँव खामोश
नगर चीखते- से
बहरे हो ज्यों कान ।
गाँव- 94
आधी रात को
फसलों पे बिखरे
जुगनू ऐसे
आसमान में तारे
निकले जैसे
खलिहान की आँखें
देखती रही
सपने कैसे-कैसे
बिजूका लगे
बिल्कुल भूत जैसे
सियार जैसे-तैसे ।
गाँव - 95
खेत रंगीन
चाँदनी रात है
पागल हवा
खलिहान खड़ा है
पाँव में डाले
खामोशी की बेड़ियाँ
आहट हुई
सन्नाटा लेता रहा
ज्यों झपकियाँ
जुगनुओं ने कहा
जागते रहो मियाँ ।
-0-
डॉ. जेन्नी शबनम
खेत बेचारे
एक दूजे को देखें
दुख सुनाएँ
भाई-भाई से वे थे
सटे-सटे-से
मेड़ से जुड़े हुए,
बिछड़े खेत
बिक गए जो खेत
वे रोते रहे
मेड़ बना बाउंड्री
कंक्रीट बिछे
खेत से उपजेंगे
बहुमंज़िला
पत्थर-से मकान,
खेत के अन्न
शहर ने निगले
बदले दिए
कंक्रीट के जंगल,
खेत का दर्द
कोई न समझता
धन की माया
समझे सरमाया,
खेत-किसान
बेबस व लाचार
हो रहे खत्म
अन्न, खेत, किसान
खेत न बचा
अन्न कहाँ उपजे?
कौन क्या खाए?
ओ सरमायादार
अब तू पत्थर खा।