सोमवार, 7 अगस्त 2023

1131

 

 भीकम सिंह 

 गाँव  - 91

 भटक रहे 

घायल देह लिये

खेत के खेत

गाँवों की तलाश में 

आठों पहर 

भोगवादी संस्कृति 

खूब समझे 

अकुला खेतों की 

परिस्थितियाँ 

विस्थापन से खाली 

क्यों हो रही बस्तियाँ!

 गाँव  - 92

 खेतों के जिस्म 

छलनी हुए पड़े 

हर गाँव में 

कुछ अपने लोग 

विस्थापन में 

उन्हें छोड़ आ हैं 

जो कभी- कभी 

रस्तों में कहीं- कहीं 

मिल जाते हैं 

बेतहाशा दौड़ते 

हर चीज ओढ़ते 

 गाँव- 93

 गैरों में ढूँढें

गरिमा- औ- सम्मान 

धूप में खड़े 

गाँव तो हैं बावरे 

नगर सारे 

ज्यों चतुर - सुजान 

चोट करते 

दिखे नहीं निशान 

गाँव खामोश 

नगर चीखते- से 

बहरे हो ज्यों कान ।

 गाँव- 94

 आधी रात को 

फसलों पे बिखरे 

जुगनू ऐसे 

आसमान में तारे 

निकले जैसे 

खलिहान की आँखें 

देखती रही 

सपने कैसे-कैसे 

बिजूका लगे 

बिल्कुल भूत जैसे 

सियार जैसे-तैसे 

 गाँव  - 95

 खेत रंगीन 

चाँदनी रात है 

पागल हवा 

खलिहान  खड़ा है 

पाँव में डाले 

खामोशी की बेड़ियाँ 

आहट हुई 

सन्नाटा लेता रहा 

ज्यों झपकियाँ 

जुगनुओं ने कहा 

जागते रहो मियाँ 

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5 टिप्‍पणियां:

शिवजी श्रीवास्तव ने कहा…

गाँवो के वर्तमान की विसंगतियों के साथ ही वहाँ के नैसर्गिक सौंदर्य को चित्रित करते सुंदर चोका।बधाई डॉ. भीकम सिंह जी।

बेनामी ने कहा…

गाँवों का वास्तविक चित्रण करते बहुत सुंदर चोका। बधाई। सुदर्शन रत्नाकर।

surbhidagar001@gmail.com ने कहा…

सभी चोका बहुत ही सुन्दर, हार्दिक बधाई आपको।
सादर
सुरभि डागर

बेनामी ने कहा…

गाँवों में आई समय की बदली परिस्थितियों , चुनौतीपूर्ण जीवन और गाँव की सुन्दरता पर सार्थक चोका सृजन । हार्दिक बधाई भीकम सिंह जी ।
विभा रश्मि

प्रीति अग्रवाल ने कहा…

गाँवों की रग रग से वाकिफ सूंदर अभिव्यक्ति!