बुधवार, 29 मई 2024

1180-माहिया-जुगलबन्दी

 [मेरे पूर्व प्रकाशित माहिया पर रश्मि विभा त्रिपाठी ने जुगलबन्दी में कुछ माहिया रचे हैं। आशा है इनका यह प्रयास पसन्द आएगा-काम्बोज]

रामेश्वर काम्बोज  'हिमांशु'

रश्मि विभा त्रिपाठी


1

सन्देशे खोए हैं
तुम क्या जानोगे
हम कितना रोए हैं!


सन्देसे आएँगे
करना आस यही
बिछड़े मिल जाएँगे।
2
बाहों में कस जाना
तन से गुँथकरके
मन में तुम बस जाना।


बाहों में कसकरके
दूर न तुम जाना
फिर मन में बसकरके।
3
बाहों के बंधन में
अधरों के प्याले
साँसों के चंदन में।

अब तो हर बंधन में
सब विष घोल रहे
साँसों के चंदन में।
4
यों मत मज़बूर करो
हम दिल में रहते
हमको मत दूर करो।


ये ही दस्तूर रहा
दिल में जो बसता
नज़रों से दूर रहा।
5
विधना का लेखा है
आँखें तरस गईं
तुमको ना देखा है।

विधना का ये लेखा
बदल गया जबसे
मैंने तुमको देखा।
6
रस दिल में भर जाना
अधरों की वंशी
अधरों पर धर जाना।

पूरी आशा कर दी
अधरों की वंशी
जब अधरों पे धर दी।
7
है उम्र नहीं बन्धन
खुशबू ही देगा
साँसों में जो चंदन।

अब टूट चला बंधन
कब तक विष झेले
साँसों का ये चन्दन।
-0-

सोमवार, 27 मई 2024

1179

 

1-भीकम सिंह 

1

मैं ढूँढता हूँ 

प्रेम का स्थानापन्न 

उसका तौर

उसे उसमें देखूँ 

अपने चारों ओर।

2

मैंने देखे हैं 

विश्वास बॅंधे हुए

उन रिश्तों में 

जो उदास थे , पर 

चले सीधी सिम्तों में ।

3

सारा दिन ही 

बारह बजे रहे 

मिल ना पाया 

रोकके रखी धूप 

मैं साया हो ना पाया ।

4

मुद्दत हुई 

कोई आहट आ

तेरे पाँवों की 

क्या बसा ली है तूने 

दुनिया मचानों की ।

5

खूबसूरत है 

बचपन का प्रेम 

ज्यों कोहिनूर 

तलाशता राहों को 

नुमाइशों से दूर ।

0-

 

शुक्रवार, 24 मई 2024

1178

  

कमला निखुर्पा

 


जेठ की धूप 

सुबह- सवेरे ही

जला अलाव 

छत पे जा बैठे हैं

सूरज दादा 

सकुचाई -सी नदी 

सिकुड़ा ताल

सूने हैं उपवन

खोई चहक 

रोए पंछी की प्यास 

धौंस जमाए

बिना कुसूर के ही 

थप्पड़ जड़े

अरे! लू महारानी 

धूल निगोड़ी 

करती मनमानी 

कभी यहाँ तो

कभी उस मुँडेर

नाचे बेताल 

खिलखिलाता रहा 

गुलमोहर 

धानी चूनर ओढ़

चलता नहीं 

उसपे तेरा जोर

जितनी तपी

उतनी ही खिली वो

चटख हुए

सुर्ख फूलों के रंग 

जितना उसे

आतप  झुलसाए 

तपिस झेल


पंखुड़ियाँ बिछाए ।

हरी शाख पे

पंछी गाए सोहर

धूप में खिले

लाल गुलमोहर

सुर्ख गुलमोहर ।

-0-

[22 मई 2024]

गुरुवार, 16 मई 2024

1177

भीकम सिंह 


1

सोच में बैठे

खेत की मेड़ पर 

वो, आजकल 

बारिश में धूप का 

जैसे कोई दख़ल ।

2

तेरे ही लिए 

कुहनी पे टिका है 

मेरा आगाज़ 

पीठ सरहद है 

जुगनू हमराज़ ।

3

जैसे उसकी 

पदचाप -सी हुई

गली में कई 

मौसम के तेवर 

माघ में हुए मई ।

4

छुई सवेरे 

धूप ने जब ओस 

वसंत खिला 

यादों का पतझड़ 

करता रहा गिला ।

5

जब भी वह 

राह से गुजरते 

यों सॅंवरते 

बारिश के ज्यों मेघ

नींद में उतरते ।

6

प्यार के दृश्य 

रात फिर घुमड़े

मेघों के साथ 

तलाशता रहा मैं

जुगनुओं का साथ 

-0-