बुधवार, 29 दिसंबर 2021

1017-मन्दाकिनी- सा मन

 सेदोका-  रश्मि विभा त्रिपाठी 

1

पीयूषवर्णी 


देखूँ वे दो नयन

देते तृप्ति का धन 

प्राणप्रिया का

मन्दाकिनी- सा मन 

मुक्त अवगाहन।

2

मंत्रमुग्ध हो

मन रहा थिरक 

राग मनमोहक

प्राणप्रिया के

शब्द भरें अथक

शिराओं में खनक।

3

खिल उठे हैं 

सुन उनकी बात

श्वास-मानस-गात

प्राणप्रिया का 

स्वर ज्यों पारिजात

'सौरभ का प्रपात'

4

प्रिय ने धागा

न्यारा नेह का बाँधा

न दूरी बनी बाधा

एक ही मन 

बरतें आधा- आधा 

मानो श्री कृष्ण- राधा।

5

प्रिय रहते 

दूर होके भी साथ

सुनें मन की बात

प्रवहमान 

प्रणव का प्रपात

परे पीड़ा- उत्पात।

6

मेरी दशा का 

अलि वे अनायास

कर लेते आभास

आ हिमांशु- से

अंक भरें उजास

ओझल तम- त्रास।

7

अलि उनका 

प्रार्थना का प्रक्रम

अक्षुण्ण, नहीं कम

विधि- परीक्षा

मेरी श्रेणी- प्रथम

'प्रिय का परिश्रम'!

8

प्रिय आलम्ब

आशाएँ जीर्ण-शीर्ण

होने न दें विदीर्ण 

हारूँ तो करें

जय- सूत्र उत्कीर्ण 

रटूँ, होऊँ उत्तीर्ण।

9

प्रिय तुमसे

मुझे हुआ संप्राप्य

सर्वसुख- साम्राज्य

सगर्व झूमूँ 

मिटी पीड़ा असाध्य

सराहूँ निज भाग्य।

10

बैठी हुई थी 

मैं अवसाद लिये

पीर अगाध लिये 

प्रिय आ गए 

आस- प्रसाद लिये

औ प्राण साध लिये।

11

प्रिय की दुआ

दे ऋतु को बदल

दुख जाए पिघल

प्राण- पुष्कर 

साँसों में परिमल

सुख- नीलकमल।

-0-

सोमवार, 27 दिसंबर 2021

1016

राजेन्द्र वर्मा

1

पौ फट रही,

गुलाबी होते जाते

उषा के गाल,

सरका मुख-पट

झाँकने लगा सूर्य ।

 2

दुःख टँगा है

देह-अलगनी पे,

मन है खाली ।

रिश्तों के मेघ झरें,

टपके सूनापन ।

 3

मेघ झरते

रिमझिम-रिमझिम

एक लय में,

बज रहा सितार,

मुग्ध रविशंकर !

 4

चटख धूप,

घर से निकली है

वीर बहूटी।

लाल दुशाला डाले

कौन देश को जाती ?

  5

पवन नाचा,

गा उठा नरकुल,

बँसवार भी ।

बज रही बाँसुरी

तुम भी सुनोकृष्ण !

 6

टूट के गिरी

एक और पंखुरी,

फूल बेबस ।

भौंरा भी लौट गया

गुनगुन करता ।

 7

दुनियावालो !

मुझे भी तो जीने दो’’

पेड़ ने कहा ।

सुनता नहीं कोई,

हर कोई बहरा !

 8

कब चेतोगे?

कटते जाते पेड़

दिन-पे-दिन,

बनती जाती पृथ्वी

पुनः आग का गोला !

 9

बाग़ उजड़े,

उगी है बोनसाई

फ़्लॉवर-पॉट् में ।

कोई बतलाओ भी,

कहाँ जाए चिड़िया ?

 10

कुक् ! कुक्कुड़ू कूँ !!

कुक्कुट ने दी बाँग,

जगा औचक,

देखापाँच बजे थे,

पाँच जून भी आज ।

 11

घर से दूर

हॉस्टल का जीवन

मेस का खाना,

रोटी का इन्तज़ार,

आ ग माँ की याद !

 12

गाँठ बाँधे है

इमली का चूरन

इमरतिया,

बँधा रही ढाँढस

मिचलाते मन को ।

 13

गिरते बचा

मुँडेर पर काक

ढेला खाकर,

सँभलाउड़ चला

दे ही गया संदेशा !

 14

एक्सीडेंट हुआ,

सिर से बहा ख़ून,

रुकी न कार,

उमड़ा फ़ुटपाथ,

बाक़ी है अभी जान ।

 15

चाय पिलाए,

जूठे कप भी धोये

मन का सच्चा !

हमें भी बतलाना

ऐसा ही कोई बच्चा ।

 

मंगलवार, 21 दिसंबर 2021

1015

 

1-माहिया / अनिमा दास

1.


आकंठ तुम्हें  गाऊँ

जब तक प्राण रहें

मैं तुमको ही चाहूँ।

2.

सुबह चली आती है

तुमसे मिलने की

क्यों प्यास जगाती  है

3.

संसार सुहाना है।

जो तुम साथ रहो

फिर क्या घबराना है।

4.

कैसी रजनी भा

मन था सहमा- सा

याद मुझे थी आई।

5. 

सूरज तुम , मैं वाणी

विस्तार करा दो

शिव तुम ,मैं शर्वाणी

-0-

2-ताँका/ प्रीति अग्रवाल
1.
खोजते फिरे

ईश्वर नहीं मिला
हृदय छुपा
इक वहीं न झाँका
हर घर में ताका।
2.
नित नियम
जप, भोग, शृंगार
मानव चाल
दुगुने की चाहत
प्रभु पूजें, रिझाएँ!
3.
मेरा वियोग
वह सह न पाए
चाँद झट से
घटा में छुप जाए
उदासी नहीं भाए।
4.
मन मंथन
निदिन करती
हाथ में आए
छाछ, केवल छाछ
माखन क्यों न आए?
5.
मन के द्वारे
राग द्वेष पसरे
प्रेम जो चाहे
कैसे प्रवेश पाए
विवश लौट जाए।
6.
माटी- सुगन्ध
तन मन घुलती
याद दिलाती
प्रियजन अपने
जाने किस हाल में!
7.
विरह- क्षण
घिर-घिर के आएँ
बड़ा सताएँ
भूलने की सुयुक्ति
कोई क्यों न सुझाए?
8.
कोरा कागज़
भर दिया मन का
नाम से तेरे
क्या तुम कुछ ऐसा
प्रियतम करते?
9.
न चिट्ठी- पत्री
न डाक, न डाकिया
दिन ये कैसे
इंतज़ार का लुत्फ़
न मिलन- बेचैनी।
10.
हिम के ढेर
नज़र जहाँ तक
सर्द हवाएँ
सुधियों की रजाई
सर्दी सता न पाई।
11.
खुद को कभी
अकेला न समझो
भीड़ का हिस्सा
होकर भी अकेले
होते बहुत लोग।
-0-

मंगलवार, 14 दिसंबर 2021

1014- प्राणप्रिया के लिए

 प्राणप्रिया के लिए

रश्मि विभा त्रिपाठी

1


वे प्राणप्रिया

व्यथा का कोई ज्वर

व्यापे न उम्र भर

वरदहस्त

उनके शीश पर

धर दो महेश्वर।

2

जाह्नवी की- सी

ज्यों अविरल धार

झरे मोद अपार

प्राणप्रिया का

महेश दो सँवार

तुम मन- संसार।

3

आनन्दमना

उन्हें देख हर्षाऊँ

मैं बलिहारी जाऊँ

तुम्हारे द्वारे

शिव! झोली फैलाऊँ

तो ये आशीष पाऊँ।

4

हे गंगाधर!

तुम भक्तवत्सल

माँगूँ वर एकल

सदा प्रिया का

मन हो परिमल

खिलें सुख-उत्पल।

5

वे मेरी शक्ति

प्राण-मन आधार

मेरा जीवन-सार

प्रिया के हिय

शिव! करो अपार

सर्वसुख-संचार।

-0-

बुधवार, 8 दिसंबर 2021

1013

 1-सुदर्शन रत्नाकर

मन

       यह मन भी क्या है जिसने सम्पूर्ण प्राणी जगत को अपने नियन्त्रण में कर रखा है।मेरा मन नहीं है”, यह छोटा-सा वाक्य हमारे  जीवन में कितनी शिथिलता, कितनी निष्क्रियता कितनी नकारात्मकता भर देता है, यह तो हम सोचते ही नहीं और यह मन है कि इसे कितना भी समझाओ पर  सांसारिक आकर्षणों के प्रति इसका मोह छूटता ही नहीं।जितना प्रयत्न करो और और बँधता ही जाता है

         यह मन बड़ा चंचल है, हर समय छिछरता है, उलझता रहता है ।अच्छी बातों की ओर कम उच्शृंखलता की ओर अधिक जाता है और फिर अच्छी-बुरी बातों में पिसते मन का द्वन्द्व किसी निर्णय पर पहुँचने ही नहीं देता। विचारों, इच्छाओं ,आकांक्षाओं की लहरें इसमें उफनती रहती हैं जो सीमायें लाँघती रहती हैं, रुकती ही नहीं। संसार में दुखों का कारण दिग्भ्रमित होता हमारा मन ही है। पहले अच्छे -बुरे की सोच नहीं करता, अशांत रहता है फिर भटकता है अँधेरी कंदराओं में, निराशा के गर्त में डूबता है और अवसाद में भरकर जीवन के आनंद से भी वंचित हो जाता है।

       मन सुंदर तो तन सुंदर, जीवन सुंदर ।मन एक शक्तिशाली यंत्र है, आत्मशक्ति है जो सभी इन्द्रियों का राजा है। जिसका स्थान हृदय में है। शरीर के सारे कार्य मन की प्रेरणा से संचालित होते हैं। मन को देखा या छुआ तो नहीं जा सकता लेकिन सुख-दुख की अनुभूति हमारा मन ही करता है। संसार मन के अलावा कुछ नहीं ,ऐसे मन की भटकन, द्वन्द्व को तो दूर करना ही होगा, मज़बूत  बनाना होगा नहीं तो  जीना दूभर हो जाएगा।  मन इन्द्रियों रूपी घोड़ों की लगाम है उसे बुद्धि रूपी सारथी ही वश में कर सकता है।इसलिए विवेक से काम लेना आवश्यक है ,नहीं तो वह भटकता ही रहेगा।पर हमें उसे भटकने से रोकना है, उसे समझाना बुझाना है।अपने निर्मल मन को शांत रखना है, तभी मानसिक शांति बनी रह सकती है। धैर्य रखना सीखना है। उसे बुरे विचारों से मलिन नहीं करना। उस पर अंकुश लगाना ज़रूरी है। सदा उसकी नहीं सुननी मन को एकाग्र करने के लिए उसके भीतर गहरे  में झाँकना होता है तभी मन स्थिर होगा ।आशावादी दृष्टिकोण अपना कर मन वश में करेंगे तो वह हमारी भी सुनेगा।

 1

कैसा है मन

भटकता रहता

द्वन्द्व में जीता।

2

मन ही तो है

अपनी है करता

नहीं सुनता।

3

करो वंश में

भटकते मन को

शांत जीवन।

-0-सुदर्शन रत्नाकर, ई-29,नेहरू ग्राउंड, फ़रीदाबाद 121001

-0-

ताँका-  रश्मि विभा त्रिपाठी 

1

प्रेम- विधान 

सर्वसुख- संधान

प्रिय- रूप में 

ईश का वरदान 

पा प्रफुल्ल हैं प्रान।

2

प्रतिपल ही

धरें तुम्हारा ध्यान 

मन औ प्राण

गाएँ प्रेमिल गान 

नि:शेष जग- भान।

3

वन्दनीय है 

ये प्रेम- समर्पण 

तुम विरले

उठाया ये बीड़ा 

हर ली दुख- पीड़ा।

4

जीवन- रण 

यही तुम्हारा ध्येय 

रहूँ अजेय

मिला जो अप्रमेय 

सुख का तुम श्रेय।

5

प्रत्येक बार

जीवन- नैया पार 

लेता उबार

सुभाशीष विशिष्ट 

प्रिय ही मेरे इष्ट।

6

मन विकल 

अभिलाष प्रबल

करे प्रज्वल 

प्रतीक्षा के प्रदीप

प्रिय आओ समीप।

7

है अविरल

भाव- नदी निर्मल

संतृप्त हुआ

मन का मरुथल

'पावन प्रेम- जल'

-0-