कृष्णा वर्मा
1
कार्तिक स्नान
न रहे कुंभ मेले
लगा नहाने
घर-घर में जन
अपने आँसुओं में।
2
दिन न माह
कब बरस जाएँ
सीख ली हैं क्यों
आँखों ने आवारगी
आवारा बादल -से।
3
कौन करेगा
झूठ का पर्दाफ़ाश
सच कहते
अब टँग जाती है
झट पेड़ पे लाश।
4
ध्वनि रहा हूँ
मैं ज्येष्ठ संताप की
यक़ीन मुझे
फूटेगा एकदिन
सावन टूटकर।
5
ढोता रहा है
सलीबों पे सपने
हारा तो सही
टूटा नहीं ग़रीब
लड़ता नसीबों से।
6
तेरी क़लम
भरा कितना ताप
तय करती
अभिव्यक्ति की आग
कहाँ खड़े हैं आप।
7
पढें न सिर्फ़
लहर व्याकुलता
टटोलें कभी
नदी की तलछट
छिपा पीड़ा-प्रसाद।
8
साँझ होते ही
डूब जाता है दिल
ग़नीमत है
चाँद मुस्कराता है
डूबा उबारने को।
9
तुम्हारे बिना
जले मेरा जीवन
दर्द हज़ार
नैना रोएँ
बिछुड़ी
जैसे कूँज कतार।
10
बोलती आँखें
पड़ा ज़ुबाँ पे ताला
कौन जाने है
इस जग में नया
अब क्या होने वाला।
-0-
8 टिप्पणियां:
आहा!!! अत्यंत सुंदर मर्मस्पर्शी सृजन.... 🌹🌹🌹कौन जाने है इस जग में नया अब क्या होने वाला..... वाह्ह्ह...!!!💐💐💐
एक से बढ़कर एक रचनाएँ, धन्यवाद कृष्णा जी!
अलग अलग भावों को व्यक्त करते बहुत प्रभावी ताँका।बधाई कृष्णा वर्मा जी।
गज़ब के ताँका हैं, भावपूर्ण -बहुत सुंदर।
बधाई।
कृष्णा जी सभी ताँका अलग अलग भावों को सुंदरता से दर्शा रहें है हार्दिक बधाई।
सभी ताँका बहुत सुंदर, भावपूर्ण।
हार्दिक बधाई आदरणीया।
सादर 🙏🏻
बहुत ही सुन्दर एक से बढ़कर एक ....भावपूर्ण ताँका
विशेषतः -
...घर-घर में जन / अपने आँसुओं में
...अब टँग जाती है / झट पेड़ पे लाश
हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें
कृष्णा जी के सभी ताँका मानव और प्रकृति की पीड़ा से सराबोर । गागर में सागर,गहन - गंभीर बात सहज ही कहते हैं । अत्यंत भावप्रणव ताँका - सृजन । बधाई ।
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