शनिवार, 27 जून 2020

920


ज्योत्स्ना प्रदीप  
1
ये  प्रीत निराली है 
पग  पायल  बाँधी 
कितनी मतवाली है ।
2
जब मोहन मीत बना 
पायल की छम- छम 
बिरहा का गीत बना ।
3
माना  मैं ना  मीरा  
तेरा  नाम    लिए 
मन को  मैंने चीरा ।
4
राधा -सा  भाग  नहीं 
तुझसे   मिलने  की 
क्या मुझमें आग नहीं
5
अब श्याम  सहारा दो 
 तुम बिन  नाच रही 
 सुर  की नव - धारा दो ।
6
मीरा ना  राधा  हूँ 
तेरा   नाम  लिया 
बोलो क्या बाधा हूँ
7
मन में तुम आते हो  
मन - केकी  नाचे 
जब सुर बरसाते हो 

8
मोहन  वो  लूट गया   
पायल  का  मोती 
उसके  दर  छूट गया !
9
पीड़ा अब अठखेली 
मेरी पीर सभी
खुद मोहन ने  ले लीं 
-0-

शुक्रवार, 26 जून 2020

919


बेंच की पीठ
डॉ.पूर्वा शर्मा
          इस बार गर्मी की छुट्टियाँ समय से पहले ही आरंभ हो गई और अब खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही । कितना सूना-सूना लग रहा है पूरा स्कूल परिसर, मेरा तो मन ही नहीं लग रहा । कक्षा में रखी एक कुर्सी ने इतना कहकर अपना मुँह लटका लिया । उसे उदास देख ब्लैक बोर्ड ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा - अरे यूँ तो मुझे अच्छा नहीं लगता कि सब मुझ पर दिनभर चाक रगड़ते रहें,  पर हाँ ! इस बार तो मैं भी अकेला महसूस कर रहा हूँ । इससे अच्छा तो वहीं था जब सब मुझे चीरते रहते थे । कोने में पड़ा कचरे का डिब्बा जो आम दिनों में हरदम पेंसिल के छिलकों, टूटे पेन की निब/ रीफिल एवं काग़ज़ों के टुकड़ों आदि से खचाखच भरा रहता था, उसने झाँकते हुए अपने खाली पेंदे को ध्यान से देखा । लाट एवं पंखे चालू-बंद करने वाला स्विच वाला बोर्ड तो जैसे रोनी-सी शक्ल लेकर दीवार के सहारे खड़ा था, उसकी खटकों की आवाज़ सुनने के लिए तो कई बार बच्चे झगड़ पड़ते थे । उस रेग्युलेटर का कान मरोड़ने में तो सब माहिर थे, पर आज उस पर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा । सब एक दूसरे का मुँह ताकते लगे फिर सभी कक्षा के बाहर झाँकने लगे । बाहर का वातावरण भी कुछ खास नहीं था ; बास्केट बॉल कोर्ट, म्यूजिक-डांस रूम, लेब, खेल का मैदान, बगीचे के खाली झूले आदि को देखकर सभी को ऐसा लगा , मानो पृथ्वी पर प्रलय आया हो और सब कुछ खत्म हो गया हो । कहीं कोई हलचल नहीं, कोई शोर नहीं और कहीं पर भी वो ............नन्हे शैतान भी नहीं । इतने में इस सूनेपन को तोड़ते हुए और अपनी अकड़ी पीठ सीधी करते हुए बेंच ने बोला – पता नहीं इस कोरोना के चक्कर में न जाने और कितने दिन यूँ ही बीतेंगे......
     बंद है स्कूल
    कौन थपथपाए ?
   बेंच की पीठ


मंगलवार, 23 जून 2020

918-पिता

      
पर्वत से बहता मीठा झरना

 अनिता ललित
    
पिता! –इस शब्द में ही घने पेड़ की छाँव का एहसास होता है! एक ऐसा पेड़, जो सर्दी-गर्मी, लू-धूप-आँधी-तूफ़ान-बरसात, मौसम के हर तेवर को सहते हुए, अडिग खड़ा रहकर, अपने साये में अपने परिवार को समेटे रहता है, उन्हें हर मुसीबत से बचाता है! बाहर से दिखने में कठोर मगर भीतर से एकदम कोमल –जैसे विराट पर्वत से बहता हुआ झरना, जैसे ठोस नारियल से निकला मीठा पानी! –बस इतनी सी ही होती है ‘पिता की कहानी’!
      जिस तरह माँ, अपनी जी-जान न्योछावर करके, घर का मोर्चा संभाले रहती है, उसी तरह पिता, बाहरी दुनिया से तारतम्य बिठाकर, हर ऊँच-नीच को झेलकर, अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं, उन्हें सुरक्षा देते हैं! बच्चों या परिवार पर कोई आफ़त आए, उसके पहले ही पिता ढाल बनकर उसे अपने ऊपर ले लेते हैं! वह बच्चों को इस कपटभरी दुनिया से निपटने के तैयार करते हैं! बच्चों के सिर पर पिता का हाथ होने भर से ही बच्चों में असीम शक्ति एवं आत्मविश्वास का संचार होता है तथा उनका व्यक्त्तित्व निखर के सामने आता है! पिता-विहीन बच्चों का बचपन और मासूमियत कठिन हालात के धरातल से टकराकर खो जाते हैं! उनको कई तरह के मानसिक व शारीरिक कष्टों का सामना करना पड़ता है, जिसका सीधा प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर पड़ता है!
     माँ का समय तो बच्चों के साथ प्यार-दुलार में हँस-बोलकर कट जाता है, परन्तु स्वार्थी दुनिया के बीच रहकर काम करते-करते, अक्सर पिता का स्वभाव कड़क, और व्यव्हार रूख़ा हो जाता है! इसके अतिरिक्त, माँ के लाड़-प्यार से बच्चे कहीं बिगड़ न जाएँ, इसलिए घर में अनुशासन बनाये रखने की ज़िम्मेदारी भी अमूमन पिता ही निभाते हैं! जिसके परिणामस्वरूप, कई बार डर के कारण, बच्चे, पिता से एक भावनात्मक दूरी बना लेते हैं! पिता के पास तो बच्चों के साथ खेलने-दुलारने का वक़्त भी नहीं होता! वे तो अपने बच्चों के लिए ऐशो-आराम के साधन जुटाने की धुन में स्वयं को ही बिसरा देते हैं! बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा देना, उनकी इच्छाओं एवं ज़रूरतों को पूरा करना, उन्हें उनके पैरों पर खड़ा करना और फिर धूमधाम से उनका विवाह कर देना –इन्हीं सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद में, पिता अपने जीवन के सभी सुखों को तिलांजलि दे देते हैं! जब तक उनके ये सपने पूरे होते हैं, तब तक उनके शरीर के पुर्ज़े घिस चुके होते हैं व बच्चे उस घोंसले से फुर्र हो चुके होते हैं! –आख़िर उन्हें भी तो अपने आशियाने का निर्माण करना होता है! अंत में उनका साथ निबाहने को रह जाती है -थकी-हारी उनकी पत्नी, जो स्वयं अब तक अधेड़ावस्था की कई बीमारियों से ग्रसित हो चुकी होती है! बाहर की दुनिया से अब उनके तार कट चुके होते हैं, और अब, जब उन्हें सहारे की आवश्यकता होती है, तो उनकी धुँधला चुकी आँखों पर वक़्त का मोटा चश्मा व हाथ में छड़ी आ चुकी होती है –परन्तु आसपास कोई नहीं होता! ऊपर से कभी सख्त़-मिज़ाज दिखने वाले पिता, ढलती उम्र के इस मोड़ पर बहुत बेबस और बेसहारा हो जाते हैं! वे माँ की तरह आँसू बहाकर या दिल के जज़्बात को शब्दों में पिरोकर, ज़बान से कुछ नहीं कहते मगर उनके सीने में भी ममताभरा दिल होता है, जो किसी को दिखाई तो नहीं देता, मगर अपने बच्चों के सानिध्य के लिए बेहद तरसता है!
        जिन कँधों पर उसका बचपन पला, जिन बाँहों ने उसे झूला झुलाया, अपने उस जन्मदाता, उस पालनहार का ऋण, कोई औलाद पूरा तो कभी नहीं चुका सकती, मगर कम से कम इतना तो कर ही सकती है कि ज़िन्दगी के आख़िरी पड़ाव पर उन्हें अकेलेपन और अवसाद से जूझने के लिए कभी न छोड़े!
बहुत  ख़ुशनसीब होती हैं वे औलादें जिन्हें स्वयं अपने पिता एवं माँ की आँखें और छड़ी बनने का सौभाग्य प्राप्त होता है!

घनी है छाँव
पिता के कन्धों पर
बच्चों का गाँव!

बनके देखो
कभी छड़ी औ चश्मा -
सुकूँ की ठाँव!
-0-

शनिवार, 13 जून 2020

917


 हवा गाती है – ताँका महकते हैं

डॉ. पूर्वा शर्मा

         कवि अपने मन में उठ रहे भाव, विचार, अनुभूति अथवा संवेदनाओं को सुंदर शब्दों में पिरोकर विभिन्न काव्य रूपों में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है । काव्य के विभिन्न रूपों में चाहे वह दोहा, चौपाई आदि प्रसिद्ध छन्दबंद हो या कोई मुक्तक; इन सभी का सृजन तभी सफल कहा जा सकता है जब उसमें काव्यत्व का गुण अवश्य विद्यमान हो । आज काव्य के अनेक रूप प्रचलित है, कुछ विधाएँ विदेशी होने के बावजूद भी पाठकों के हृदय में अपना स्थान बना चुकी है । जापानी साहित्य एक प्रसिद्ध साहित्य है, जिसका नन्हा काव्य रूप ‘हाइकु’ तो विश्वभर में प्रसिद्धि हासिल कर चुका है और अनेक भाषाओं में रचा जा रहा है । इसी के साथ ताँका, चोका, सेदोका, हाइबन आदि ये सभी जापानी काव्य रूप धीरे-धीरे पाठकों तक पहुँच रहे हैं और उनके बीच अपना
स्थान सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।
‘ताँका’ अर्थात् लघु गीत; पाँच पंक्ति की यह लघुकाय कविता क्रमशः 5-7-5-7-7 के वर्णक्रम में रची जाती  है । जापानी काव्य रूप ‘ताँका’ का इतिहास बहुत पुराना है । मान्योशू’ (Collection of Ten Thousand Leaves’) जापानी भाषा का सबसे प्राचीन और बेहतरीन काव्य संकलन (आठवीं शताब्दी के मध्य) है । 260 कवियों की 4,515 कविताओं वाले संग्रह में लगभग 4,207 ताँका कविताएँ संगृहीत है । प्राचीन जापानी साहित्य में काव्य की रेंगा पद्धति स्थापित थी । रेंगा एक शृंखलाबद्ध कविता है, जिसे दो कवि मिलकर रचते थे । इसके अंतर्गत पहला कवि तीन पंक्तियाँ की रचना क्रमशः 5-7-5 सिलेबिल ( जापानी में ओंजि या ओन) में करता था तथा दूसरा कवि उसमें दो पंक्तियों को क्रमशः 7-7  सिलेबिल से जोड़कर, उस शृंखला को पूर्ण करता था । इस तरह यह शृंखला चलती जाती थी । इसके प्रथम भाग 5-7-5 को ‘कामी नो कु’ (kami-no-ku) तथा अंतिम भाग 7-7 को ‘शिमो नो कु’ (shimo-no-ku) कहा जाता है । हाइकु के इतिहास के दृष्टि से तो यह शैली (‘ताँका’) बहुत महत्त्वपूर्ण है ही, इसके साथ जापानी काव्य शैलियों में यह एक प्रसिद्ध शैली भी रही है।
जापानी भाषा स्वरांत है और जापानी भाषा की प्रकृति में ही अनुप्रास और लय व्याप्त है । इसी कारण इन जापानी काव्य शैलियों की संरचना (5-7-7अथवा 5-7-5) से काव्य  संगीतात्मक प्रतीत होता है कम शब्दों में अर्थपूर्ण, लययुक्त एवं भावों को संजोने वाली ताँका कविता का सृजन एक गंभीर तथा श्रमसाध्य रचनाकार ही कर सकता है । हिन्दी रचनाकारों द्वारा गत 20 वर्षों से (लगभग वर्ष 2000 से) इस जापानी काव्य रूप का हिन्दी में सृजन जारी है । हिन्दी में ताँका सृजन करने वाले कुछ रचनाकार जैसे – डॉ. सुधा  गुप्ता, डॉ. उर्मिला अग्रवाल, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. हरदीप कौर सन्धु, रेखा रोहतगी, मनोज सोनकर, डॉ. मिथिलेशकुमारी मिश्र, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, पुष्पा जमुआर, डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव आदि है, जिनके ताँका संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । अब इन रचनाकारों की पंक्ति में एक और नाम जुड़ गया है – सुदर्शन  रत्नाकर । सुदर्शन जी के जापानी विधा हाइकु के दो संग्रहों के प्रकाशन के पश्चात् ‘हवा गाती है’ शीर्षक से ताँका संग्रह प्रकाशित हुआ ।
‘हवा गाती है’ - शब्द सुनते ही ऐसा लगता है मानो मंद-मंद बहते हुए भीनी-भीनी ख़ुशबू वाली पवन तन को सहला रही हो । मन लुभाता यह शीर्षक इस संग्रह के प्रकृति केन्द्रित होने का आभास दिलाता है । कवयित्री ने स्वयं भूमिका में कहा है – “प्रकृति से मुझे विशेष लगाव है । सागर, नदियाँ, पर्वत, झरने, पेड़-पत्ते, पशु-पक्षी, फूल, धरती, आसमान, चाँद-सितारे और मंद-मंद बहती हवा से मन झूम उठता है । इन सबसे मैं आकर्षित होती हूँ और फिर लिखे बिना रह नहीं पाती ।”
आद्या प्रकृति, जीवन पथ एवं विविधा शीर्षक के अंतर्गत विविध विषयों को प्रस्तुत करते 379  ताँका इस संग्रह में संगृहीत है। प्रकृति प्रेमी को प्रकृति के कण-कण में सौन्दर्य दिखाई देता है । रवि-किरणों का जल में अटखेली करना, चाँद-सितारे की रोशनी का धरा पर बिखरना, धूप की लुका-छिपी, पेड़ों के पत्तों एवं शाखों का लहरना, पर्वतों की गोद से निकली नदी का सागर में समा जाना इस तरह के प्रकृति के सौन्दर्य के सूक्ष्म पर्यवेक्षण को सुदर्शन जी की रचनाओं में देखा जा सकता है । प्रकृति के विविध रूपों का चित्रण पर्याप्त रूप से संग्रह में प्रस्तुत है । कहीं पर प्रकृति का आलंबन रूप, तो कहीं पर प्रकृति का उद्दीपन रूप अथवा उपदेशात्मक रूप को देखा जा सकता है । प्रस्तुत संग्रह में ताँका रचनाओं में प्रकृति के मानवीकरण, प्रतीक रूप एवं परिगणनात्मक आदि रूप भी प्राप्त है । प्रकृति चित्रण में कवयित्री का मन खूब रमा है । कुछ ताँका उदाहरण के रूप में द्रष्टव्य है -
उद्दीपन रूप -
हवा गाती है / पत्तियाँ नाचती हैं / फूल फैलाते / माहोल में ख़ुशबू / मन को महकाते।(पृ. 16)
अमलतास / लटकें हैं झूमर / पत्ते गिरते / पीतवर्ण वसुधा / सजी सजीली सेज ।(पृ. 23)
हरसिंगार झरते रात भर / मेरे अँगना / उज्ज्वल हुई धरा / महकती हवाएँ ।(पृ. 23)
आलंबन रूप -
ओस की बूँदें / ओढ़ ली धरती ने /झीनी चादर / मत रखना पाँव / मोती टूट ने जाएँ । (पृ. 16)
भोर होते ही / बहीं  ठंडी हवाएँ / पंछी हैं जागे / पत्ते गुनगुनाएँ / सूरज मुस्कुराया ।(पृ. 17)
खिल रहे हैं / ग्रीष्म की आतप में / गुलमोहर / दहकते अंगार / घरा पर बिखरे ।(पृ. 21)
उपदेशात्मक रूप -
बुँदे पहने / खड़ा पेड़ कनेर / सुगंधहीन / पीले फूलों से लदा / व्यर्थ जीवन ऐसा ।(पृ. 24)
सूरज से ले / ऊर्जा तप जाने की / खिले पलाश / प्रकृति का नियम / तपता, वो खिलता ।(पृ. 25)
मौसम चक्र चलते रहने से विभिन्न ऋतुओं का अनुभव हमें प्राप्त होता है । प्रत्येक ऋतु की अपनी कोई न कोई विशेषता होती है । प्रकृति सदा हमें देती ही आई है । ये ऋतुएँ हमारी प्राकृतिक संपदा को संपन्न करती है । ऋतुओं की विविधता को उसके सुहावने रूप को कवयित्री ने बहुत ही सुंदर तरीके से अपने काव्य में पिरोया है । बसंत, ग्रीष्म, वर्षा एवं शीत का सुंदर चित्रण परिगणनात्मक रूप में प्रस्तुत हुआ है -  
भीनी-सी गंध / खिली आम्र-मंजरी / बौरी  होकर / कुहुकती कोयल / गूँजते मीठा बोल । (पृ. 25)
मौसम बदला / कलियाँ मुस्कुराईं / दुग्ध-घवल / सुवासित दिशाएँ / महका उपवन ।(पृ. 28)
दिग्दिगंत हो / कोकिला का बसंत / छेड़ी जो तान / हुए संगीतमय / धरती व अम्बर ।(पृ. 28)
सूर्य है उगा / प्रचंड रूप धरा / लू के थपेड़े / भीषण है आतप / पशु-पक्षी व्याकुल । (पृ. 42)
उड़ी आ रही / बादलों की पालकी / बैठी दुल्हन / वर्षा शृंगार किए / धरती से मिलने । (पृ. 47)
व्योम में छाईं / घनघोर घटाएँ /  चाँदी के मोती / बरसें धरा पर / समेटने वो लगी । (पृ. 49)
जाड़े की धूप / खेले आँखमिचौली / कभी कोहरा / या, बादल की छाँव / सिमटा सारा गाँव । (पृ. 44)
प्रकृति चित्रण में माहिर कवयित्री ने वर्षा की बूँदों के धरती पर गिरने को माँ-बेटी का मिलन कहकर सुंदर चित्र प्रस्तुत किया है - 
पड़ने लगीं / नन्ही वर्षा की बूँदें / गिरीं धरा पे / मिलन माँ-बेटी का / बिछुड़ी एक हुईं । (पृ. 50)
हवाओं का बहना, पक्षियों / चिड़िया का चहचहाना, तितली-भौरें का फूलों पर मंडराना आदि को लेकर भी कई ताँका रचनाएँ संग्रह में है । भौरें को चोर कहना, पतंगे की बेबसी को काव्य के सुंदर रूप में देखिए -
भ्रमर चोर / चुरा कर ले गया / मधुर रस / देखती रही कली / मुरझा फिर गई ।(पृ. 30)
जल रहा है / जलता ही रहता / सुध खोकर / रात भर पतंगा / बेबस हो प्यार में ।(पृ. 30)
आकार में संक्षिप्त मुक्तक रचानाओं में जीवन दर्शन की अपेक्षा नहीं की जा सकती है लेकिन जीवन के कड़वे एवं गहरे अनुभवों को प्रतीकों अथवा संकेतों के माध्यम से रचनाकार अपनी रचनाओं में जीवन दर्शन को व्यक्त करता है । सुदर्शन जी के इस संग्रह में कुछ ऐसी ही रचनाएँ है जो उनके जीवन संबंधी दृष्टिकोण को सहजता से प्रस्तुत करती नज़र आई । कुछ उदाहरण अपेक्षित है   
लहरें उठीं / उठ कर वो गिरीं / जीवन-क्रम / आसमान को छूना / धरती में समाना । (पृ. 54)
दिन का अंत / साँझ का आगमन / चलता क्रम / धूप-छाँव ज़िंदगी / जन्म-मृत्यु का चक्र । (पृ. 68)
गंध-विहीन / कागज़ के फूल-सा / व्यर्थ जीवन / कब तक कटेगा / ऐसा सुगंधहीन । (पृ. 83)
नाव हैं फँसी / सागर मँझधार / कौन बचाए / नहीं खेवनहार / टूटे पतवार । (पृ. 97)
सर उठाए / इठलाते रहे वे / जीवनभर / धरा पर सोए हैं / साँसों ने छोड़ा साथ । (पृ. 99)
ऊपर प्रस्तुत कुछ प्रतीकों के माध्यम से कवयित्री ने बड़ी ही सहजता से जीवन दर्शन को व्यक्त किया है । जीवन के कड़वे सत्य और गहराई को प्रस्तुत करने वाली कवयित्री का आशावादी दृष्टिकोण प्रतीकों, नीति-ज्ञान के रूप में  कुछ रचनाओं में अभिव्यक्त हुआ है -
डालियाँ सूखीं / तृष्णाएँ नहीं मिटीं / स्पर्श की चाह / खींचता उस ओर / जीवन जहाँ खड़ा ।(पृ. 32)
घबरा मत / लहलहाते पत्ते / ठूँठ से बोले / हम तेरे साथ हैं / हाथ आगे तो बढ़ा ।(पृ. 31)
इतरा मत / अपने यौवन पे / मिट जाएगा / हम भी तो हरे थे / वक्त ने मिटा दिया ।(पृ. 32)
जीवन के विविध रंगों का ताना-बाना द्वितीय खण्ड ‘जीवन पथ’ में प्रस्तुत किया गया है । जीवन में प्रेम बहुत आवश्यक है, प्रेम के बिना जीवन नीरस लगता है । अपने प्रिय के बिना जीवन जीना बड़ा कठिन प्रतीत होता है । प्रेमी दो नदियों की तरह होते हैं, एक बार मिल जाने के पश्चात् उन्हें कोई अलग नहीं कर सकता । सच्चा और गहन प्रेम पानी में उठी तरंग की तरह होता है । पानी में उठता है और उसी में विलीन हो जाता है, इसी तरह की व्यंजनात्मकता ताँका में प्रस्तुत हुई है । प्रेम हो तो अपने प्रिय के दिए शूल भी फूल की तरह लगते हैं । गहन प्रेम का सुंदर चित्रण लिए कुछ रचनाएँ –
मेरी आँखों से / बहे तुम्हारे आँसू / मिटे शिकवे / मिटी सब दूरियाँ / तुम हुए अपने । (पृ. 55)
तुम्हारी आँखें / बहुत बोलती हैं / चुप भी करो / दिल से भी तो कहो / विश्वास भी कर लूँ । (पृ. 55)
तुम्हारा संग / पानी ज्यों तरंग / अस्तित्व पानी / उसमें ही उठती / हों उसी में विलीन । (पृ. 56)
तुम्हारे दिए / शूल भी स्वीकारे हैं / मुस्कराकर / फूल देकर देखो / कैसे सहेजती हूँ । (पृ. 57)
थोड़ी देर तो / आओ मिल के बैठें / बीते कल की / कुछ तो बात करें / दिल भरा हुआ है । (पृ. 57)
प्रेम और विरह एक ही सिक्के के दो पहलू है । भारतीय साहित्य में बारहमासा का प्रयोग तो विशेषतः विरह वेदना के लिए किया गया है । विभिन्न ऋतुओं एवं त्योहार को भारत में धूम-धाम से मनाया जाता है लेकिन प्रियतम साथ न हो तो कोई भी तीज-त्योहार या ऋतु के आगमन या उत्सव से मन प्रसन्न नहीं किया जा सकता, यथा -  
सावन मास / आया तीज त्योहार / सखियाँ झूलीं / प्रिय रूठे मुझसे / मैं झूलूँ किन संग । (पृ. 51)
महाकवि सूरदास जी की विरह वेदना से पूर्ण एक पंक्ति  देखिए –
“पिया बिन नागिन काली रात । / कबहुँ यामिनी होत जुन्हैया, डस उलटी ह्वै जात ॥
यहाँ पिया के बिना बीतने वाली रात को काली नागिन कहकर जो विरह वेदना प्रस्तुत की गई है ठीक उसी प्रकार की वेदना को कवयित्री ने भी अपने काव्य में प्रस्तुत किया है -
काली घटाएँ / छा जाती चारों ओर / बिखरे बाल / नागिन बन डसें / प्रिय नहीं जो पास । (पृ. 52)
हमारा जीवन रिश्ते-नातों के बीच पनपता है । रिश्ते बहुत नाज़ुक होते हैं । रिश्ते विश्वास पर ही खड़े रहते हैं, कोई अपना जब धोखा दे दे तो उसकी चोट दिल पर बहुत गहरी लगती है ।
चढ़ती रही / बना कर सीढ़ियाँ / विश्वास की मैं / टूटी सारी कड़ियाँ / औंधें मुँह जा गिरी । (पृ. 59)
रिश्ते होते हैं / तितली से नाज़ुक / खूबसूरत / संभल कर छूना / न बिगड़ें, न उड़े । (पृ. 69)
बीमार रिश्ते / कब तक सहेजूँ / छूटते नहीं / शरीर से लिपटीं / चूसती जोंकों जैसे । (पृ. 71)
सभी रिश्तों में माता-पिता का रिश्ता सर्वोपरि होता है । यही एक ऐसा रिश्ता होता है जो मात्र प्रेम, त्याग और समर्पण  से पूर्ण होता है ।  याद अपने बचपन की हो या गाँव की हो अथवा अपने प्रिय की, बहुत ही सताती है । बड़े हो जाने पर बचपन की यादें, गाँव में नानी-दादी के साथ बिताये क्षण, उनकी लोरी, उनका आशीर्वाद सभी कुछ बहुत याद आता है । यादों के ढेर बहुत ऊँचे होते हैं, इनसे पीछा नहीं छुड़ाया जा  सकता । वक्त किसी की प्रतीक्षा नहीं करता ।  खूबसूरत सफर एक बार गुजर जाए तो दुबारा नहीं आता, बस रह जाती है इन सुखद क्षणों की यादें । इस प्रकार के मार्मिक भावों के लिए कई सुंदर ताँका इस खण्ड में देखे जा सकते हैं, यथा –     
माँ की ममता / पिता का दुलार / कहाँ खो गए / अपनों की भीड़ में / क्यों अकेले हो  गए ? (पृ. 60)
चुपके से आना / आँखें बंद करना / फिर पूछना - / बोलो माँ, कौन हूँ मैं / वाह रे बचपन ।(पृ. 60)
बूढ़ी आँखों में / तैरते हैं सपने / बचपन के / जब छुपाती थी माँ / आँचल में मुझको ।(पृ. 61)
शीतल छाया / पीपल के पेड़ की / खो गई कहीं / सपना लगता है / बड़ी याद आती है । (पृ. 62 )
सोचती रही / लौट कर आएगा / वक्त पखेरू / उड़ा, उड़ता गया / हँसता मुझ पर । (पृ. 94 )
जीवन के अनेक मोड़ पर प्रेम अथवा अन्य रिश्तों में धोखा मिलने पर निराशा तो होती ही है लेकिन कवि हृदय इन सबसे जूझने को तैयार है । अँधेरा फैला है तो उसे दूर करना ही होगा । उड़ना है तो अपने पंख खोलने ही होंगे और बाधाएँ अनेक होगी राह में लेकिन हमें थकना नहीं है । कवयित्री का का आशावादी दृष्टिकोण कई स्थान पर दिखाई दिया है, जैसे  
नहीं दिखती / गर मंज़िल तुम्हें / मत घबरा / उठ, दीपक जला / मन में विश्वास का ।(पृ. 79 )
‘विविधा’ शीर्षक के अंतर्गत दर्शन, भ्रष्टाचार, राजनीति, त्योहार, रिश्ते-नाते, नारी-जीवन, गरीबी, पर्यावरण प्रदूषण आदि से संबंधित विविध ताँका आपको अपनी ओर आकर्षित करते हैं । कुछ सुंदर उदाहरण देखिए -   
पसर रही / खामोशियाँ हैं यहाँ / सूना घर हो / कोई बोलता नहीं / सरहदें हैं बँधी । (पृ. 103)
उतरी शाम / घिरती खामोशियाँ / उदास चेहरे / प्रश्न हैं वे पूछते / दिन बीता या हम ।(पृ. 104)
फागुन आया / बिखरे धरा पर / फूलों के रंग / कान्हा ने खेली होली / राधा-सखियों के संग ।(पृ. 104)
आज हमारा देश प्रगति के पथ पर अग्रसर है और लेकिन आज भी हमारी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे अपना जीवन गुज़ार रहा है । हालाँकि धीरे-धीरे इस संख्या  में गिरावट आ रही है । फिर भी गरीबी हमारे देश की ऐसी समस्या एवं सच्चाई है जिसे हमें नकार नहीं सकते । गरीबी के कारण हमारे देश के भविष्य नन्हे बच्चों को पढ़ने-लिखने के उम्र में कचरा बीनना, खेतों-खलिहानों या ढाबों पर काम करना पड़ रह है । मजदूरों और किसानों की स्थिति भी दयनीय है । इन सामाजिक समस्याओं का कवयित्री ने अपनी रचनाओं में चित्रित किया है, यथा -
ढूँढ रहा है / कचरे में सपने / भोर बेला में / वह नन्हा बालक / पढ़ने की वय में । (पृ. 106)
नंगे बदन / सोता है बचपन / नहीं साधन / कँपाती ये हवाएँ / कहर ढाती जाएँ । (पृ. 106)
कहाँ जाए वो / ठिठुरती रातों में / नहीं ठिकाना / ऊपर आसमान / नीचे है भू बिछौना । (पृ. 105)
तपती धरा / गर्म हवा के झोंके / बहता स्वेद / झुलसते बदन / विवश मजदूर । (पृ. 105)
विज्ञान और टेक्नोलॉजी से भरपूर आधुनिक युग ने हमें बहुत कुछ दिया है, तो दूसरी ओर हमसे बहुत कुछ छीना भी है । इस से प्रकृति को बहुत हानि भी हुई है । प्रदूषित प्रकृति को देखकर कवयित्री ने कुछ रचनाओं में नसीहत भी दे दी है कि प्रदूषण विनाश का कारण है, हमें पर्यावरण को शुद्ध रखना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा वृक्षारोपण करना चाहिए, यह तो हमारी समृद्धि के आधार है । प्रकृति को प्रदूषित होता देख दुखी कवि हृदय कह उठता है –
सूखी नदियाँ / रोएँ दोनों किनारे/ पेड़ न कोई / गौरैया उदास है / नहीं गीत सुनाए ।(पृ. 101)
तपती धरा / व्याकुल सब प्राणी / कटे जंगल / बरसा नहीं पानी / भला कैसा मंगल । (पृ. 101)
कथ्य की दृष्टि से प्रकृति के सुंदर चित्रण के साथ उपर्युक्त विषयों की विविधता संग्रह में देखी जा सकती है । सशक्त भावों को लिए कथ्य पक्ष के विवेचन के बाद संग्रह में प्रस्तुत रचनाओं के शिल्प पक्ष की ओर दृष्टिपात करते हैं । भारतीय काव्य में अलंकारों का अपना ही स्थान है | जाने-अनजाने अनेक अलंकार काव्य में आ ही जाते हैं, लेकिन एक अच्छा रचनाकार अपनी रचना में बड़ी कलात्मकता से इनका प्रयोग/ उपयोग करता है । शिल्प की दृष्टि से विभिन्न अलंकारों के सफल प्रयोग से इस जापानी विधा के भारतीय रूप के सौन्दर्य में वृद्धि हुई है  
उपमा –
पत्तियों पर / मोती-सी ओस-बूँदें / मोहती मन / सूरज सोख लेता/ पर उसका तन ।(पृ. 15)
पत्तों से छन / उतर कर आ रही / नरम धूप / गर्माहट दे रही / माँ-सी बाँहों का स्पर्श ।(पृ. 45)
भ्रांतिमान –
शांत खड़े हैं / हिमाच्छित पर्वत / योगी हों जैसे / शिवभक्ति में लीन / या हों प्रहरी जन के । (पृ. 54)
उत्प्रेक्षा –
लता झूमती / लद गई फूलों से / मघुमलती / दूध-केसर रंग / लटकें ज्यों झूमर।।(पृ. 22)
रूपक –
साँझ की बेला / खिलने लगी चम्पा / शशि-किरणें / फैली जग-आँगन / सुरभित उजाला ।(पृ. 24)
मानवीकरण –
खिली चाँदनी / शरद पूर्णिमा की / फीके हैं तारे / धवल वसुंधरा / चाँद संग मुस्काई । (पृ. 36)
चलने लगे / कामदेव के बाण / धरती हुई / फिर से सुहागिन / लहराया आँचल । (पृ. 37)
बाँचते रहे / रातभर चिट्ठियाँ / चाँद-सितारे / धरा ने भेजी थीं जो / आसमान के लिए । (पृ. 38)
घूँघट काढ़े / धीरे पग बढ़ाती / लजाती हुई / आ रही है सहर / लाल चूड़ा पहने ।  (पृ. 42)
प्रत्येक शब्द अपना अलग ही जादू बिखेरते हैं और शब्द शक्तियाँ काव्य को विशिष्ट अर्थ अथवा दुहरे अर्थ प्रदान करती है । छोटे काव्य रूप में कम शब्दों में अधिक कहने और अन्य अर्थ की प्रतीति करवाने में शब्द शक्ति बहुत उपयोगी होती है । निम्नलिखित ताँका में ‘मैं सोती रही’ में व्यंजना की शक्ति देखिए, यहाँ पर सोने का तात्पर्य रात्रि में शयन नहीं है । सोते समय हम अचेतन रहते हैं और हमें भान नहीं रहता कि क्या हो रहा है । ‘बंद किए खिड़की’ कहकर कवयित्री ने संकेत कर दिया कि अचेतन रहकर ऐन्द्रिय आदि किसी भी प्रकार का कोई उपयोग या प्रयास नहीं किया । अवसर तो प्राप्त हुआ था लेकिन उस गवाँ दिया और बहुत कुछ खो दिया -
चाँद आया था / उजियारा लेकर / मेरे आँगन पर मैं सोती रही / बंद किए खिड़की । (पृ. 37)
काव्य किसी बिम्ब काव्य में आकर्षण उत्पन्न करते हैं । बिम्ब भावों और अनुभूतियों को चाक्षुष रूप प्रदान करते हैं । सुदर्शन जी ने अपनी ताँका रचनाओं में अनेक सार्थक बिम्बों का सृजन किया है । कल्पना, भाव एवं एन्द्रिकता इन तीनों गुणों का समन्वय इनके काव्य बिम्बों में देखा जा सकता है । संग्रह में घ्राण, दृश्य, श्रव्य एवं स्पर्श बिम्ब से युक्त अनेक ताँका संगृहीत है, यथा -
भीनी सुगंध / रजनीगंधा खिली / चाँदनी रात / महकी है धरती / झूमा आसमान  ।(पृ. 25)
बाल रश्मियाँ / फैलीं जो धरा पर / बजी घंटियाँ / थिरका झील-जल / स्वागत विहान का । (पृ. 41)
टपकी बूँदें / बादल की गोद से / धरा समाई / अंतर्मन है भीगा / खिल उठी प्रकृति । (पृ. 48)
लहरें उठीं / छूने कदम मेरे / शरमा गईं / आँचल समेटा / लौट गईं भीतर । (पृ. 53)
किसी भी लघु कलेवर वाली रचना में शिल्प पक्ष का सशक्त होना आवश्यक हो जाता है ।  प्रस्तुत संग्रह का काव्य शास्त्रीय विवेचन करने पर हम यह कह सकते हैं कि शिल्प की दृष्टि पर सभी रचनाएँ खरी उतरती है । संग्रह में कुछ टंकण संबंधित त्रुटियाँ रह गई है । प्रस्तुत संग्रह में एक ही ताँका (क्रमांक149 और 166) दो बार छप गया –
काली घटाएँ - / छा जातीं चारों ओर / बिखरे बाल / नागिन बन डँसें / प्रिय नहीं जो पास ।(पृ. 52 एवं 56)
ताँका क्रमांक 98 (पृष्ठ 39) और क्रमांक 330 (पृष्ठ 98) में सिर्फ अंतिम की पंक्ति अलग है, एक ही भाव का दोहराव नज़र आ रहा है –
सूरज उगा / उज्ज्वल हुई धरा / पवित्र मन / गूँजने लगे स्वर / जगदीश-वंदन । (पृ. 39)
सूरज उगा / उज्जवल हुई धरा / पवित्र मन / गूँजने लगे स्वर / सृष्टि करे वंदन । (पृ. 98)
निम्नलिखित ताँका की चौथी पंक्ति में 7 के स्थान पर 6 ही वर्ण है । ‘प्रचंड सूर्य को’ – में सूर्य के स्थान पर ‘सूरज’ होना चाहिए –
अभिशप्त है / जीवन किसान का / कभी देखता / प्रचंड सूर्य को / सहे बाढ़ के बाण । (पृ. 106)
‘हवा गाती है’ का काव्य शास्त्रीय विवेचन करने के पश्चात् हम यह कह सकते हैं कि कवयित्री की सतत काव्य साधना उनके अध्ययन, कौशल एवं मेधा के समन्वय से ही संग्रह के विविध पक्ष आकर्षक, मजबूत एवं सफल बने हैं । प्रस्तुत संग्रह के सभी ताँका का विवेचन एवं वैशिष्ट्य को कुछ पृष्ठों में समेटना कठिन है, लेकिन यहाँ पर जितना भी हो सका उसे प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । कथ्य, शिल्प एवं भाव की दृष्टि से देखने पर हम यह कह सकते हैं कि इस संग्रह से गुजरना एक आनंददायक अनुभव रहा । काव्य जगत में इसका भव्य स्वागत होगा ऐसी कामना करते हैं । जापानी विधा के मनोहारी भारतीय रूप को प्रस्तुत करने वाले इस सुंदर संग्रह के लिए सुदर्शन जी को नमन एवं हार्दिक शुभकामनाएँ ।      
कृति : हवा गाती है (ताँका -संग्रह), कवयित्री : सुदर्शन रत्नाकर, मूल्य : 220 /-, पृष्ठ : 111, संस्करण : 2020, प्रकाशक : अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली