रविवार, 11 दिसंबर 2022

1091- यादें

 

1- यादें

सुदर्शन रत्नाकर

 

        ये जो यादें हैं दिल की परतों से निकलती  ही नहीं जोंक की तरह चिपकी हैं। पूरी देह का रक्त चूसकर ही निकलेंगी। कील की तरह चुभती रहेंगी और जब कुछ  भी भूलता नहीं ,तो मन को कचोटती रहती हैं, पीड़ा देती हैं। भूली- बिसरी यादों का कारवाँ परछाई की तरह साथ-साथ चलता रहता है। अब बताओ भला इतने भारी बोझ के साथ इंसान चल भी कैसे सकता है। वह तो टूटेगा और टूटकर गिरेगा भी। पर गिरेगा तो सम्भलना भी उसे ही है और सम्भलेगा तब, जब यादों की गिरफ़्त से निकलेगा।अतीत को साथ लेकर नहीं जिया जा सकता। कब तक उसकी गठरी सिर पर उठाते रहेंगे। वर्तमान में भी तो बहुत कुछ है, उसका आनंद क्यों न लें। जो कल था, वह आज नहीं है, आज वाला कल नहीं होगा। परिवर्तन आवश्यंभावी है , प्रकृति का नियम है ,जिसे स्वीकारने में ही समझदारी है। यही जीवन का सत्य है।

1

भूल भी जाओ

कचोटती हैं जो

यादें पुरानी।

2

जाती ही नहीं

भूली बिसरी यादें

बसी मन में।

-0-

2-जड़ें बेकार नहीं होतीं

 

     बरगद के पेड़ को उसके पूर्वजों ने लगाया था ।कई पीढ़ियों से छाया देता आया है। आसमान को छूती शाखाएँ और छतनार से फैले इस पुराने पेड़ की जड़ें अब उसके चारों ओर लटक रही हैं। नई पीढ़ी के बच्चे उसे देखकर पूछते हैं , पेड़ की इन जड़ों का क्या लाभ दादू, काट क्यों नहीं देते। कितनी भद्दी लगती हैं। पेड़ को तो पानी -खुराक अंदर की जड़ों से मिलता है न। वह उन्हें वैज्ञानिक आधार तो बता सकता है; लेकिन यह कैसे समझाए कि ये फैली बेकार की जड़ें पेड़ को आँधी- तूफ़ान से रक्षा तो करती है, उसे मज़बूती भी देती है।आज की पीढ़ी भौतिकवाद और पश्चिमी सभ्यता के भँवर में फँसी है, उसका आचार -विचार, रहन-सहन  बदल रहे हैं। उन्हें यह समझाना आवश्यक है कि जैसे बूढ़ा पेड़ और फैली जड़ें  प्रकृति की संरक्षक हैं। बेकार नहीं होतीं। वैसे ही वृद्ध ,पुरानी परम्पराएँ , धर्म, दर्शन ,संस्कार  ये हमारी संस्कृति, सभ्यता के संरक्षक है, जिसे हमें बनाए रखना है।

1

पुरानी जड़ें

रखतीं सुरक्षित

संस्कृति को भी।

2

परम्पराएँ

संस्कृति का आधार

बनाए रखें।

-0-ई-29,नेहरू ग्राउंड,फ़रीदाबाद 121001

शनिवार, 3 दिसंबर 2022

1090

1-रश्मि विभा त्रिपाठी

1

मैं और तुम


एकाकार जबसे

कोई भी भेद नहीं,

जीवन मेरा

परिपूर्ण है अब

कुछ भी खेद नहीं। 

2

प्रिय को सुख 

अपने लिए कुछ 

दिल में चाह नहीं,

वह प्रणय

समुद्र समान है 

उसकी थाह नहीं।

3

मेरी आशा की

दीप अवलियों के

तुम रखवारे हो,

ओ मीत मेरे 

मन के अम्बर के

तुम ध्रुवतारे हो।

4

मधुमास- सा

जीवन का मौसम 

कितना है निराला,

आके जबसे

मन की नगरी में

तुमने डेरा डाला।

5

तय था मेरा

धूप के सफर में 

प्यासे गले मरना,

प्यार तुम्हारा

शीतल पानी का ज्यों 

सीकस* में झरना।

6

ये मन तेरा 

और जीवन तेरा

साँसें तेरी सम्बन्धी

तेरे सिवाय

अब कुछ न दिखे 

मैं हो गई ज्यों अन्धी।

7

अपने सुख

देके मेरा दुख जो

तुमने सहेजा है 

सचमुच ही

तुमको ईश्वर ने

मेरे लिए भेजा है।

8

तू पल पल

मेरे हर दुख में

देता मुझे संबल

तेरे रूप में

मिला प्रभु से मेरी

पूजा का प्रतिफल।

9

ये प्रेम तेरा

सच में सजीवन

इसमें है जीवन

जी उठे अब

अखियों के सपन 

बल पा गया मन।

10

अति निर्मल 

निश्चल औ उदार

पाया जो तेरा प्यार

है यही मेरा

पावन तीर्थस्थल 

कैलाश, हरिद्वार।

 -0-*सीकस - रेतीली धरती

 2-भीकम सिंह 

गाँव  - 22

 


ले ग
सारे 

खेतों को खींचकर 

शहर

मुट्ठी में भींचकर

देखता गाँव 

आँखों को मींचकर

आखिरकार 

पहचान थे वह

जिन्हें फेंका है 

उन्हीं की जमीन से 

जैसे उलीचकर।

 

 

गाँव  - 23

 

देसी किस्मों को 

खोना नहीं है आज

सोचते खेत 

बिक जाने के बाद 

देखती आँखों 

ख़्वाब उड़ा दि हैं 

रातों ने आज

जी. एम. फसलें हैं

खेतों में आज

कल वीराना होगा 

खुलेंगे जब राज ।

 

गाँव  - 24

 

खेत - क्यारी को

वजूद-सा पहने

धोखे के मारे 

गाँव सामने आ

घंमडियों से

मंडियों में दिखते 

ज्यों नपे खड़े 

तुला की डंडियों से 

सोच रहे हैं 

कैसे बचे, मंडी के 

इन शिखंडियों से 

 

गाँव  - 25

 

सुख के लिए 

गाँवखेत बेचके 

बने हुए हैं 

सुख मिले कहाँ से 

जब से मुए 

ठेके घने हुए हैं 

सरकार ने 

जब करे नाराज़ 

गाँव तब से 

अनमने हुए हैं 

कटखने हुए हैं 

 -0-

-0-