शुक्रवार, 31 मार्च 2023

1118

 चोका

1- रश्मि विभा त्रिपाठी

1

बँटवारे में

दे देते थोड़ा- सा ही

अगर ठौर

आँगन के कोने में

या ओसारे में

रहती खुशी- खुशी

बच्चों के संग

अपने बसेरे में

वो फरमाती

आराम की ज़िन्दगी

छक के पाती

छोटे- से नीड़ में ही

राजसी सुख

दुनियाभर का वो

जो कभी तुम्हें

सबकुछ पाके भी

न मिल सका

उठकरके वह

भोर होते ही

उजास की नदिया

नहाके आती

तुमको भी नींद से

आके जगाती

चुन-चुनके लाती

पूजा के फूल

और फिर सजाती

आरती थाल

श्रद्धा भाव से गाती

प्रभु के गुण

तुम्हारे लिए भी वो

प्रार्थनाओं में

रोज सुख माँगती

उस प्रभु से

फुदककर आती

चुगने दाना

चावल के तिनके

चोंच में लेके

चूजों को पुकार के

पुचकार के

कौर- कौर खिलाती

गौरैया प्यारी

अपनी ममता का

हर दिन ही

नियम- धरम से

पर्व मनाती

नहीं छूटता कोई

वृत- त्योहार

विधिवत् करती

चौक पूरके

चीं- चीं कर उठाती

मंगल- गीत

सारे शगुन करती

तुम चैन से

कंक्रीट की कोठी में

रहो अकेले

वो सहे सौ झमेले

माता का मर्म

समझ लेते थोड़ा

पढ़े होते जो

कभी पद सूर के

न जाने कहाँ

वो भटकती होगी

तुम्हारी ओर

उसके सगे- साथी

देखते हैं घूरके।

-0-

2-प्रीति अग्रवाल

1-काश

 

इस 'काश' का
है कैसा मोह पाश
अतृप्त प्यास
कितनी ही तृष्णाएँ
'गर ये होता
असंख्य भावनाएँ
'गर वो होता
घेरें सम्भावनाएँ
चले जा रहे
उनमें उलझते
आहें भरते
गिरते सम्भलते
'आज' पर है
न ध्यान, न विचार
वो बीत रहा
निराधार अंजान
आए वो दिन
काश! इस 'काश' से
मुक्त हम हो पाएँ!
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2-प्रेम दूत

कौन है देता
दिल पर दस्तक
यूँ निरन्तर
क्या नहीं है देखता
लटकी तख्ती
बाहर जो कहती-
'अंदर आना
यहाँ पर वर्जित'
मैं प्रेम दूत
मैं पढ़ता केवल
दिल की बात
तख्तियों से मुझको
भला क्या काम
तेरा दिल है खाली
अब उसकी बारी!
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3 - हिसाब

दो रुपयों को
प्रतिदिन खींचती
चार का काम
हर बार हूँ लेती
घर भर की
सब ज़िम्मेदारियाँ
उँगलियों पे
गिन-गुन हूँ लेती
सोचा करती
अकसर मुझको
क्यों बतलाते
वो हिसाब में कच्ची!
रखती याद
सितम न उनके
खुद गिनती
और न गिनवाती
सच कहते
अब मैं भी कहती
मैं हिसाब में कच्ची!!
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रविवार, 26 मार्च 2023

1117

 भीकम सिंह 

 गाँव  - 70

 बेहद खास 

ना जानें कहाँ गये

खेतों के राग 

वर्षों से चुपचाप

जिन्हें सुनके 

सजीव हो उठती 

मेड़ की घास 

नायिका की तरह

खिलखिलाती 

और लहलहाती 

मौसम के चौमास 

 गाँव  - 71

 

सन सो रहा 

खेतों के ताल पर 

दीर्घ निद्रा में 

उसके कम्बल में 

लगी हवाएँ 

कुलबुलता सन

खोल रहा है 

मटमैली टाएँ

ये गंध भरा 

एक सिलसिला है 

जो कार्तिक में आए ।

 गाँव- 72

 

बैठा है खेत 

घास के मखमली 

टुकड़ों पर

पेड़ों से सर -सर

निकली हवा 

सरसों को छू-कर

यादें जागी हैं

गंध में बहकर

गाँव का मन

बाहर आना चाहे

दर्द को सहकर ।

 गाँव  - 73

 अंक में लेके 

दही-छाछ के लोटे 

गाँवों में फिर

प्रीत के दिन लौटे 

घिरे घूँघट 

काँपते-से हाथों से 

दृष्टि समेटे 

बेशरम बुड्ढों के

लग जाते त्यों 

बुझती-सी आँखों पे

ऐनक मोटे-मोटे ।

 गाँव  - 74

 खेतों को देके

नये-नये सपने

चली गयी है 

बरसात की नदी ,

बियाबानों से 

निभा रही है रिश्तें 

मूँदे पलकें 

ज्यों रूमानियत में 

चले हल - के

किनारों की अय्याशी 

काँस में से झलके 

 गाँव  - 75

 

बरबस ही 

बादल घिर आये 

कल परसों 

फूली नहीं समाई 

पीली सरसों 

भीग कर चिपका

कुर्ती-सा पत्ता 

तिर्यक हँसी, हँसा 

भृंग का पट्ठा 

बेशरमी- सी छाई

सरसों शरमाई ।

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