भीकम सिंह
चोका- 64
दूब
पे गिरी ओस
खेत
मुस्काया
दूर
तक थी छाया
धूप
ने पाँव
फिर
ऐसे फैलाया
मिटा
दी वही
सप्तरंगी-सी
काया
सूरज
हँसा
फिर
हँसता हुआ
सिर
पे चढ़ आया ।
गाँव - 65
किसान
मरे
खेतों
में खड़े-खड़े
जोड़के
पाई ,
लाल
किले से करे
मंत्र-
आलय
खेती
की रुसवाई,
वादों
के ताल
भरे
जलकुंम्भी से
बोल
के झूठ,
छँटती
नहीं काई
मुसीबत-सी
आई ।
गाँव
- 66
खेत
से खेत
गाँव
आते रहते
कभी-कभार,
शहर
भी आ जाते
कच्चे
रस्तों पे
रुकती
बैलगाड़ी
कभी-
कभार
कुछ
मोटरगाड़ी
बस
,रुकती
सिवानों
पर कहीं
ऐसी
भी दशा रही ।
गाँव- 67
घिरे
रहती
पथवारे
के बीच
गाँव
की नारी ,
शाम
को थककर
पड़ी
रहती ,
चूल्हा
भी जलाना है
कुछ
सुस्ताके
वहीं
लगी रहती,
थोड़ा
नमक,
मिर्च, हल्दी की गाँठ
सब
खुली रहती ।
गाँव- 68
गाँव
दौड़ता
कुलाँचे
भी भरता
हरे
खेतों में
जैसे
हो सुखी वही ,
नहीं
दिखाता
पीड़ा
वो छुपी हुई,
सबके
साथ
वो
मुस्कुराते हुए
खो
जाता कहीं
दिखाई
देता नहीं
योजनाओं
में कहीं ।
गाँव- 69
धीरे
पसरी
सुबह
दो तिहाई ,
मौन
सन्नाटा
जोड़
रहा दहाई ,
छेड़ती
हवा
खेतों
का सूखापन
लेती जम्हाई,
मौन
तोड़ता सूर्य
दिया
दिखाई ,
दूर
गाँव का हल्ला
फिर
पड़ा सुनाई ।
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8 टिप्पणियां:
भाई भीकम जी के सभी चोका उत्तम हैं विशेषकर गाँव पर रचित चोका। हार्दिक बधाई। सविता अग्रवाल “सवि”
बहुत ही उत्कृष्ट चोका।
हार्दिक बधाई आदरणीय भीकम सिंह जी को।
सादर
बहुत उत्तम चोका...हार्दिक बधाई भीकम सिंह जी।
हमेशा की तरह उत्कृष्ट चोका! भीकम सिंह जी को हार्दिक बधाई!
बहुत सुंदर चोका।बधाई सर।
मेरे चोका प्रकाशित करने के लिए सम्पादक द्वय का हार्दिक धन्यवाद और मन को प्रसन्न करने वाली टिप्पणियाँ करने के लिए आप सभी का हार्दिक आभार ।
बहुत ही सुन्दर चोका ,बधाई आपको।
सुरभि डागर
सभी चोका बहुत मनभावन हैं, मेरी बधाई
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