सोमवार, 30 अक्तूबर 2023

1146

 दुबड़ी मोनेस्ट्री 

भीकम सिंह 

 

 युकसुम भारत के सिक्किम राज्य के पश्चिमी भाग में स्थित है। जो गंगतोक से 123 किलोमीटर की दूरी पर है ।

सन् 1642 में यह सिक्किम की राजधानी हुआ करता था । कंचनजंघा राष्ट्रीय उद्यान और कंचनजंघा माउंट पर ट्रैकिंग के लिए आधार शिविर के रूप में ट्रैकर इसी नगर का उपयोग करते हैं ।

  फुंसक नामग्याल ने सन् 1701 में जिस मोनेस्ट्री को युकसुम में स्थापित किया, उसे दुबड़ी मोनेस्ट्री के नाम से जाना जाता है । जिसे अब राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया है और यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सरंक्षण में है । युकसुम के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से एक छोटी- सी पगडण्डी में दो- तीन किलोमीटर की दूरी पर एक पहाड़ी की चोटी पर ये अदभुत मोनेस्ट्री है ।जिस पहाड़ी की चोटी पर ये  मोनेस्ट्री है उसकी ऊँचाई तक आँखें पहुँच जाती है इसलिए चढ़ने का साहस जुट जाता है ।हमने भी आहिस्ता-आहिस्ता चढ़ना शुरू किया ।मौसम बहुत अच्छा था ।मन भी बहुत खुश था ।लगभग आधा घंटे में हम मोनेस्ट्री पहुँचे 

मैने देखा मेरे सामने एक बौद्ध भिक्षु कुछ उठाये चला आ रहा है ।वह मेरे सामने आकर खड़ा हो गयावह लंबा और रोबीला बौद्ध भिक्षु मुस्कुराया और उसने स्पष्ट हिन्दी में बोलते हुए दस - बारह अखरोट दिए और एक  फल चखने को दिया जो शक्ल और स्वाद में बिल्कुल आँवले जैसा था ,जिसका नाम उसने मेल बताया  ।उसका स्वाद लेने के बाद मैं मोनेस्ट्री के अन्दर ध्यान लगाने बैठ गया तो ऐसा लगा जैसे बौद्ध भिक्षु ने कहा हो ,  "अनचखा स्वाद चखने की अनुभूतियों जैसा जीवन है, कुछ स्वादरहित " , और फिर लगा मोनेस्ट्री के अन्दर गुनगुनाता कोई भँवरा बाहर निकलना चाह रहा हो । मैंने  आँखें खोली और बुद्ध की प्रतिमा को देखने लगा। बुद्ध के चेहरे की चमक तसल्ली दे रही थी, मन में अच्छे- अच्छे ख्याल आने लगेकहीं बुद्ध वाकई बोल उठे ? ऐसा सोचते हुए, थोड़ी देर बाद मोनेस्ट्री से बाहर निकलने पर मैंने  देखा वह बौद्ध भिक्षु एक पेड़ की छाया में बैठा है। जैसे उसे हमसे कोई मतलब नहीं है। मैं बौद्ध भिक्षु के पास गया ।अपने पर्स से पाँच- सौ का एक नोट निकालकर मैंने  उसकी ओर बढ़ा दिया। उसने रुपये लेने से मना कर दिया और निर्लिप्त भाव से आकाश को देखता रहा ।मैं बौद्ध भिक्षु का यह अदभुत व्यवहार समझ नहीं सका।

     इसके बाद हम सभी मोनेस्ट्री की तलहटी की ओर बढ़ गए, जहाँ पर एक स्वच्छ दर्पण- सा झरना बहता है, जिसे एलीफेंट जलप्रपात के नाम से जाना जाता है। उस रास्ते के दोनों ओर घने बाँस लहलहाते हुए जैसे हवा के रहस्यों को ढक रहे थे। मैंने जलप्रपात की ओर देखा, जिसकी एक शिला पर वही बौद्ध भिक्षु विराजमान था, जिसे हम मोनेस्ट्री में छोड़ आए थे। मुझे आश्चर्य हुआ। वह एक हाथ खड़ा किए ऐसी मुद्रा में बैठा था जिससे गौतम बुद्ध की ज्ञानप्राप्ति वाली प्रतिमा की स्मृति जागृत हो रही थी। अपराह्न का तेज सूर्य बाँसों के झुरमुटों से आ रहा था ।मैं सोचता हुआ लौट रहा था 

                     स्वप्न वितान 

                  कैसे- कैसे लगाता 

                    मन का हाता 

 

 

 

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2023

1145

 

भीकम सिंह 

1

खेतों में उठी 

बारिश की खुशबू 

औ - पुरवाई 

गाँवों ने नापी दूरी 

फिर फटी बिवाई 

2

खुशबू झरे 

फसलों में सोंधी- सी 

प्रत्येक भोर 

अनगढ़-से खेत 

झूमते सराबोर 

3

सरसों-चना 

खेतों में खिला घना 

फूल फूल की 

खुसपुस-सी कई 

सटके बैठ गई 

4

मिट्टी से भरे 

ताल और तलैया 

बढ़ी है प्यास 

गंजे हो चुके गाँव 

दूब बची ना घास 

5

ठहर गई 

ग्रामीण इलाकों में 

छोटी नहर 

जीवन शैलियों का 

पुख्ता हुआ कहर 

-0-

 

शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

1144

 वक़्त

 प्रीति अग्रवाल



ऐसी क्या जल्दी
दो पल तो ठहर
उतरने दे
मखमली पलों को
मन्द गति से
बेकल हृदय की
तलहटी में
आत्मसात हो जाए
मरुस्थल में
अविराम बहती
प्रेम की गंगा
वक्त की बागडोर
फिसली जाए
हाथ जोड़ूँ मनाऊँ
हम बेचारे
चंद पल हमारे
बस तेरे सहारे!
-0-

शनिवार, 14 अक्तूबर 2023

1143-जीवन चक्र

 सविता अग्रवाल 'सवि ' कैनेडा 


मेंहदी रची

दुल्हन के हाथों में

रंग छोड़ती

अरमान जगाती

पी से मिलन

फूली नहीं समाती

अगले पल

बाबुल का आँगन

सोच- नयन

झर -झर बहाती

माता की सीख

ह्रदय में रखती

डोली में बैठ

पराये घर जाती

उसी में जीती

सुख -दुःख सहती

वर्ष बिताती

घर भी सँभालती

बेटी जन्मती

पलकों पे रखती

बड़ी होती तो

दुल्हन सा सजाती

माँ की शिक्षाएँ

बेटी की झोली -डाल

विदाई देती

थककर बैठती

यही सोचती

जीवन का चक्र है

सदा निभाना हमें

-0-

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

1142

 

विडम्बना

प्रीति अग्रवाल

 

 चाह अगर

सुख की अनुभूति

उतर जाओ

दुःख की तलहटी

मौन-गरिमा

जानना 'गर चाहो

शोर के मध्य

कुछ वक्त बिताओ

जीवन साथी

परखना जो चाहो

विरह-अग्नि

दूरियाँ आज़माओ

विचित्र- सी है

जीवन- विडंबना

जो कुछ चाहो

उससे विपरीत

चखते जाओ

प्रकृति के नियम

रचे किसने

समय न गँवाओ

सिर झुकाते जाओ!!

-0-

 

 


सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

1141

 ब्रह्मताल सम्मिट पॉण्ट

भीकम सिंह 

 

  गाइड ने एक-एक करके सभी के चेहरे पर टॉर्च की सीधी रोशनी डाली । यद्यपि गाइड सभी का चेहरा नहीं देख पा रहा था - झीनी रोशनी के घेरे में शरीर का ढाँचा भर देख पा रहा था ट्रैकर से जितना बन पड़ रहा था, वे ब्रह्मताल सम्मिट पॉइण्ट  की ओर खिसक रहे थे । आकाश का अधिकांश हिस्सा साफ हो चुका था। एक - आध तारा ही चमक रहा था। सभी ने अपनी टॉर्च बन्द कर ली थी। पीठ पर रुकसैक चिपकाए,  11227 फीट की ऊँचाई पर चढ़ आ थे। पैरों में ताकत नहीं थीआली बुग्याल के पीछे पहाड़ पर लालिमा जैसा दिख रहा था। धड़कने थामें हुए सभी ट्रैकर कैमरों का शटर खोल रहे थे। एक जनवरी दो हजार तेईस के सूर्योदय की थोड़ी- सी रोशनी ऊपर उठकर पहाड़ों को प्रकाशित कर रही थी। ट्रैकर का फोटो शूट अनवरत चल रहा था। सूर्योदय हो चुका था। अभी वह पेड़ की दो शाखाओं के बीच टिका था ; लेकिन देखते-देखते ऊपर चढ़ गया। झंडी टॉप पर आते-आते सूर्य देवता सिर पर आ चुके थे। मैंने चारों ओर निगाह दौड़ाई। ब्रह्मताल नजरों से ओझल हो रहा था ।

 

धूप- सिंचित

वर्ष की भोर

मन विभोर ।

रविवार, 8 अक्तूबर 2023

1140

 दिव्य सम्बन्ध

 


अनिता ललित

हमारे कमरे के सामने बाल्कनी और उससे लगी हुई, खुली छत है, जिसकी शोभा सुंदर रंग-बिरंगे फूल और हरे-भरे पौधे बढ़ाते रहते हैं। वहाँ बैठना परिवार के हम सभी सदस्यों को बहुत भाता है, विशेषकर जब मौसम थोड़ा ठंडा हो या बारिश हो रही हो। बारिश की बूँदें जब फूलों की पंखुड़ियों और हरी-हरी पत्तियों पर नाचती हुई गिरतीं हैं तो यूँ लगता है, जैसे मोतियों की अनगिनत लड़ियाँ खनक रही हों। सर्दियों में धूप के पीछे जितना भागो, वो उतनी ही छिटककर दूर... और दूर भागती चली जाती है -धूप के साथ इस लुकाछिपी के खेल का अपना अलग ही मज़ा है।

   पता नहीं कब और कैसे, वहाँ हमने पँछियों को दाना डालना शुरू कर दिया। पहले गिलहरी आती थी, फिर कबूतर आए, फिर गौरैया ... और अब तो न जाने कितनी तरह की सुंदर-सुंदर नन्ही-मुन्नी और थोड़ी बड़ी चिड़ियाँ भी आने लगीं। किसी के गले में लाल धारी और पेट का कुछ हिस्सा सफ़ेद है, सिर पर कलगी जैसी बनी हुई है -इसकी बोली बहुत ही मीठी है; कोई पूरी धानी रंग की -ऐसी कि पत्तियों में छिप जाए; कोई ऐसी तराशी हुई कि लटकती बेल की टहनी पर टेढ़े बैठकर अपनी लंबी व तीखी चोंच सीधे फूलों के अंदर घुसा देती है -शायद फूलों का रस पीती होगी; कोई पीली चोंच वाली -जो बारी-बारी से पानी में डुबकी लगाकर गमलों के सिरे पर या छत की रेलिंग पर बैठ जाती हैं; कुछ फ़ाख़्ता हैं -वो भी ऊपर बिजली के तार पर बैठकर इंतज़ार करती रहती हैं, दाना डलने का। सब समूह में चार-पाँच इकट्ठे आतीं हैं। सुंदर रंगों से सजी हुई तितलियाँ और उनके बच्चे भी इधर से उधर पंख झुलाते हुए दौड़ते रहते हैं, जैसे छुआ-छुआई खेल रहे हों, काले भँवरे भी वहीं मँडराते रहते हैं। अब ये सारे हमारे ही परिवार का हिस्सा बन गए हैं।   

   पहले पानी का एक बर्तन रखा हुआ था, मगर वो जल्दी ही खाली होने लगा, तो दो रखे, फिर तीन और अब चार बर्तन रखे हैं हम लोगों ने -किसी में आकर वे छई-छप्पा-छई करती हैं, तो किसी में से पानी पीती हैं। कबूतर भी उसमें नहा जाते हैं। यही नहीं, कौवे महाराज भी कुछ महीनों से आकर अब काँव -काँव करने लगे, तो उनके लिए भी रोटी बनने लगी, वो भी समय-समय पर आने लगे। कभी-कभी तो कौवे महाराज किसी और के यहाँ से रूखी रोटी लाकर यहाँ पानी के बर्तन में भिगो देते, फिर मुलायम होने पर उठा ले जाते। गिलहरी तो सबसे अधिक शैतान और पेटू! -कोई खाए या न खाए, वो आंटी तो सबका खाना खा जाती हैं। चाहे बाजरा हो या ब्रेड या रोटी या बिस्किट  ... ये सब चट कर जाती हैं, मुँह में दबाकर भाग जाती हैं। एक नहीं इनका पूरा मोहल्ला यहाँ दावत खाने आ जाता है, सात-आठ गिलहरियाँ! किसी से नहीं डरतीं। भगाना पड़ता है उन्हें। उनका बस चले तो बाजरे का डिब्बा भी खा जाएँ!

   ये सिलसिला अब रोज़ का हो गया है। सुबह से ही गिलहरी की कर्र-कर्र, कबूतर की गुटरगूँ, गौरैया की चीं-चीं और कौवे महाशय की काँव-काँव शुरू हो जाती है। सवेरे उठकर सबसे पहला काम छत पर दाना डालना होता है। फिर नाश्ते के समय चिड़ियों के लिए ब्रेड, फिर दोपहर खाने के पहले फिर दाना डाला जाता है, और शाम को एक बार और। अब तो छत पर किसी काम से निकलने पर ही एक-दो सफ़ेद कबूतर आकर सामने बैठ जाते हैं, डरते नहीं वो! एक तो आकर पास ही टहलता रहता है और हर थोड़ी देर बाद आकर हमारी कुर्सी पर बैठकर कमरे में झाँकता रहता है। कुछ बोलो तो गार्डन टेढ़ी करके आँखें भी घुमाता है और दाने के डिब्बे की तरफ़ देखता है। दाना डालो तो भागकर खाने लगता है। कभी-कभी डर लगता है कि ज़्यादा खाने से उसकी तबीयत न ख़राब हो जाए। मगर जिस तरह से वो सामने आकर बैठ जाता है, तो थोड़ा सा देना पड़ता है कि इतनी आस लगाए हुए है। उसका नाम हमने ‘नॉटी’ रख दिया है।

    कौवे महाराज भी आकर कभी रेलिंग, फिर गमले पर और फिर ज़मीन पर फुदकते रहते हैं और ब्रेड या रोटी का टुकड़ा उठाकर खाते हैं। कभी-कभी जब उनका दूसरा साथी भी आ जाता है, तो उस टुकड़े को लेकर अपनी चोंच से उसकी चोंच में खिलाते हैं -कौवे को हमने ऐसा करते पहली बार देखा है।

    कुछ दिनों के लिए घर से बाहर जाएँ तो छत का रास्ता खोलकर जाना पड़ता है, जिससे घर के कामों में मदद करने वाले अंदर आकर, पौधों को पानी व इन सबको समय पर दाना-रोटी दे सकें। फ़ोन से उन्हें याद भी दिलाते रहते हैं। एक ख़ूबसूरत दैवीय रिश्ता -सा बन गया है सबसे, जो दिल को बहुत सुकून देता है।

बिन बोले ही

समझे दिल की बात

मन विभोर।

 

दैवीय रिश्ता

पंछियों ने बनाया

सुकून देता।   

-0-

अनिता ललित

लखनऊ