सोमवार, 26 सितंबर 2022

1078-तुम कौन हो?

रश्मि विभा त्रिपाठी


1

मेरे लिए तो

कठिन था झेलना

ये समय का शाप,

जो एक दिन

अचानक मुझसे

मिले न होते आप!

2

जो कहने को-

जन्म से थे अपने

मरता छोड़ गए

तुम कौन हो?

जिसकी बदौलत

जिए मेरे सपने!!

3

वे जो गए हैं

देके पीठ पे घाव!

पड़ने नहीं देते

तुम जरा- सा

मेरे जी पे दबाव

तो किसे दूँगी भाव?

4

दिखाई दिया

मुझे तेरे मन का

साफ- स्वच्छ दर्पण

इसी कारण

तेरे सामने हुआ

ये आत्मसमर्पण!!

5

आशा के बीज

मेरी आँखों में बोए

तूने सौंप दी मुझे

भरकरके

मुस्कान की गागर

जो छलके, भिगोए!!

6

आँखों में गड़ा

जब- जब भी काँच

चटके सपनों का

तुमने भरी

आशा तब मुझमें

आने नहीं दी आँच!

7

तुझे पाकर

मुझे बरसों बाद

जो मिला है आह्लाद!

सच में पाया

तेरे रूप में मीत

ईश्वर का प्रसाद!!

8

दुआ के बीज

प्रणय बो रहा है

तो बेबस बनके

दुर्भाग्य आज

मारकर दहाड़ें

खुद ही रो रहा है!

9

दुख की आज

उल्टी पड़ गई है

सारी की सारी चाल

उसे क्या पता!

मेरे पास मीत के

आशीषों की है ढाल!!

10

तम के आगे

मान ही लेती हार

अगर मीत तुम

चुपचाप- से

ये धूप का टुकड़ा

धर न जाते द्वार।

11

कोरा जीवन

कोई नहीं था रंग

और तुम आ गए

प्रेम का प्रिज्म

इंद्रधनुष- सी है

आज मेरी उमंग।

-0-

2-माँ तेरा ध्यान

रश्मि विभा त्रिपाठी

1
भाग का लेख
तूने जो भी लिखा है
जगदम्बिके!
कब टलेगी व्याधि
जरा पढ़के देख!!
2
तोड़ते विघ्न
जीवन लच- लच
फिर भी जीती!
माँ तेरा ध्यान ही है
मेरा रक्षा कवच!!
3
होगा कल्याण
तुझे जप करके
आस्थावान मैं!
अम्बिके तेरा नाम
मेरे तो चारों धाम!!
4
डूबते को है
तू तृण का सहारा
भवतारिणी!
तूने ही सदा मुझे
आकरके उबारा!!
5
मेरे सुख का
कर देना संधान
भयहारिणी!
जब- जब भी करूँ
मैं तुम्हारा आह्वान!!
6
तुम स्वीकारो!
माँ ये श्रद्धा के फूल
मैं बदले में
तुम्हारे चरणों की
चाहती बस धूल!!
7
मैं जानती हूँ
माता तुम्हारा क्रोध
इसीलिए तो
बाध्य हूँ स्वजनों का
झेलने को विरोध!!
8
आसुरी- से हो
अति ही कर डाली
मैं चुप, क्योंकि
माँ करुणामयी से
बन जाती है काली!
9
तुमसे कभी
कुछ न बच पाता
मैं क्या बताऊँ?
मन को पढ़ लेती
तुम हो मेरी माता!
10
बड़ा कठिन
जीवन का अध्याय
क्या करूँ अब?
माँ तुम ही बताओ
आज अच्छा उपाय!
11
चीरने वाली
रक्तबीज की छाती
इन्हें भी रोक!
माँ जाने क्यों बने हैं
अपने ही उत्पाती!!

-0-


रविवार, 25 सितंबर 2022

1077-मिट गए संशय

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'


भरम हुआ

यह  न जाने कैसे

दरक गया

है मन का दर्पन।

धुँधले नैन

थे देख नहीं पाए

कौन पराया

कहाँ अपनापन ।

मुड़के देखा-

वो पुकार थी चीन्ही

पहचाना था

वो प्यारा सम्बोधन।

धुली उदासी

पहली बारिश में

धुल जाता ज्यों

धूसरित आँगन ।

आँसू नैन में

भरे थे डब-डब

बढ़ी हथेली

पोंछा हर कम्पन।

थे वे अपने

जनम-जनम के

बाँधे हुए थे

रेशम- से बन्धन।

प्राण युगों से

हैं इनमें अटके

यूँ ही भटके

ये था पागलपन

तपथा माथा

हो गया था शीतल

पाई छुअन

मिट गए संशय,

मन की उलझन ।

शनिवार, 17 सितंबर 2022

1076-नेह की संजीवनी

 

 रश्मि विभा त्रिपाठी 


1
जब- जब भी

प्राणों पर है बनी

जिलाए फिर

मीत! मुझे देकर

नेह की संजीवनी!!

2

तुम्हीं ने दिए! 

मुझे नए आयाम 

अपनी सारी 

सुख की विरासत 

लिखके मेरे नाम!!

3

उस पार से

तुम जो पुकारते

मैं मुग्धा सुनूँ

बजते सितार- से

वे बोल मल्हार- से!!

4

ये कैसी बस्ती?

मतलबपरस्ती 

कौड़ी के भाव

खरीदें- बेचें लोग

प्रीति कितनी सस्ती!

5

बुढ़ापे तक

तुम न सीख पाए

प्रेम के बोल

तुमसे बड़े अच्छे

मेरे दो छोटे बच्चे!!

-0-

गुरुवार, 15 सितंबर 2022

1075

 1- ताँका (ब्रजभाषा) - रश्मि विभा त्रिपाठी 

1

ह्याँ न हत जु 

कोऊ सुध लिवैया 

तौ कहा लाग 

हौं बारी! मेरौ बन्यौ 

कन्हैया- रखवैया!!! 

2

नन्द के लल्ला

तुमहिं सन जोरी

हौं रसरीती! 

दधि- माखनईं सौ

तैंनैं कर् यौ 'जी' चोरी!!

3

भलौ भयौ जु 

आपुने रंग बोरी 

स्याम तेरी सौं-

जाहि जग की खोरी

भुरवै मो- सी भोरी!!

4

मानहु स्याम 

मोहि न गहि आवै 

कर मौं माला

साँस पै तो भजिबौ 

जा जी कौं पतियावै!

5

आपुनौ जग 

तुम आइ सँवारौ 

साँँचेेहु स्याम

हेत अब इत तैं 

सरग कौं सिधारौ।

6

मंत्र उचारै 

मानुस जोर- जोर 

मंदिर माहिं 

स्यामहिं पैहै काँ, जु 

बँध्यौ प्रीति की डोर।

7

कितैं पराने 

तुम नन्द के ढोटा

आहु सिदौसी 

तिहारौ हेत रोवै 

परैं झूरिकैं सोटा। 

8

स्याम सम्हारौ 

धकधकात जिया 

जा जग माहिं 

प्रेम के पंथिन कूँ 

कहूँ दीसै न ठिया। 

9

कैसी बिरिया 

आछी जु पै तिरिया 

वाके जिय की

पोसी न रसरीती

करि डारी किरिया। 

10

हेतऐ मारौ 

बरनि सौं विड़ारौ

आछौ बनिज

तैनैं गहि खरारौ 

द्वार उठिकैं झारौ।

11

कैसौ बखत 

अँध्यारौ ई अँध्यारौ

हेत कौ सेत

रूप काहू न प्यारौ 

मनुआँ निरौ कारौ!

-0-

2-कपिल कुमार

1

तोड़के आई

ग्लेशियरों से रिश्ता

घाटी से होके

पग-पग पर देते

मैदान धोखे

नालियाँ तो नोंचती

तन-बदन

परेशान होकर

खाती ठोकर

तटों पर पहुँचके

सिमट गई

सिन्धु के आग़ोश में

पूरे जोश-जोश में।

2

खेतों ने देखा

सूखापन औ' बाढ़

पौष में वर्षा

सूखा-सूखा आषाढ़

गिरते ओले

तेजी औ' हौले-हौले

कर्जे में दबे

फाँसी पर हाली चढ़े

चैत्र की छटा

नभ की नीली घटा

बंजर मिट्टी

मेढ़ों पर सरसों

पल में बीतें वर्षों।

3

किसकी आज्ञा?

तुम मानते मेघ

स्याह-सफेद

कहाँ के तुम वासी?

मस्त-संन्यासी

समझते क्यों नहीं?

भू की उदासी

खोलो आज ये भेद

मिटाके द्वेष

अगली बार आना

खेत भरके जाना।

-0-

शनिवार, 10 सितंबर 2022

1074

 भीकम सिंह 

सागर- 16

 

सिन्धु का जब 

हुड़दंग मचे है 

तटों की निष्ठा 

तब कहाँ बचे है 

जल का तल 

बार- बार माथे से 

तट लगाता

तो कहाँ बाँधकर

वो रख पाता 

निष्ठा के स्थल रूप 

समर्पण- प्रारूप।

 

सागर- 17

 

आँखों के आगे 

सिन्धु की सीमा-रेखा 

तट ने देखा 

दिन, मास, वर्षों से 

कहाँ लाँघी है 

बस गरजते देखा 

खुद को खुश 

मर्यादाओं में देखा 

मौजों से मिला

विचित्र प्यार देखा 

भूला त्यों सीमा-रेखा ।

 

सागर- 18

 

कैसे समझे 

सिन्धु के संघर्षों को

स्तब्ध-सा तट

मौन संदर्भों के  वो

मुखर शब्द 

जो शैलों की आड़ में 

सिन्धु ने साधे 

लहरों ने चुने वो

अधूरे-आधे

बिखरा- सा सृजन 

समन्दर ही बाँधे ।

  सागर- 19

 

तट से लौटी

सीपी थामें हाथों में 

धारा ने हर 

किनारा सजा दिया 

यू ही बातों में 

एक मछली काँपी 

खड़े पानी में 

कैसा था वो संयोग 

जो अब मिला

मौका पार जाने का

कुछ कर जाने का।

 सागर- 20

 

सिन्धु ज्यों व्रती

लहरें अनुवर्ती 

अर्पित होके 

तट को समर्पित 

अर्घ्य हैं देतीं 

प्रातः से शाम तक 

फिर व्यर्थ में 

रात भर का रोना 

मोती पिरोना 

घूम आती चिन्ता में 

सिन्धु का कोना-कोना 

21-सागर 

त्वरित गति 

पीछा करती धारा 

सिन्धु आँकता 

केवल एक क्षण

पाँतों के बीच

चक्रवाती नज़ारा 

पँख फैलाए 

पानी तैरता सारा 

जैसे सौन्दर्य 

गतियों में घूमता 

लगाता फिरे नारा 

-0-