1-डॉ भीकम सिंह
सागर- 5
नदी को देख
सिन्धु उतर गया
बरस पड़ीं
नदी की बूढ़ी आँखें
ज्यों प्रियवर
खोया-सा मिल गया
लाश - सी नदी
काँधों पे उठाकर
लहरों में से
तर-ब-तर होके
सिन्धु गुज़र गया ।
सागर - 6
सुबह लगे
इतना प्यारा सिन्धु
पानी वही है
लेकिन खारा सिन्धु
मंथन हुआ
तो,थक -
हारा सिन्धु
देवों के लिए
है क्षीर , सारा सिन्धु
जाल समेंटे
तो , मछुआरा
सिन्धु
तटों का नारा सिन्धु ।
सागर - 7
रिश्तों- सी लौटी
तट से ज्यों लहरें
बाँधे न बँधा
रेत का वो घरौंदा
उम्मीदों ने जो
आँखों में उतारा था
वह प्यारा- सा
जिस पर नाम भी
लिखा तुम्हारा
सागर में डूबा है
प्रेम में थका-हारा ।
सागर - 8
किसने सुना
खुलती सीपियों से
मोती का राग
तटों पर मिली वो
खाली थे हाथ
एक टुकड़ा तट
उस पर भी
फेंकी हजारों बार
दूर कहीं पे
मोती का कारोबार
करे , सिन्धु
पे वार ।
सागर- 9
मोती की जिद
सीपियों के भीतर
जागे रात में
करती ठक -ठक
सिन्धु सुनता
और जगाता सारे
नए - पुराने
टिमटिमाते तट
वाणिज्य-वृत्ति
जहाजों से झाँकती
उतरे फटा-फट ।
सागर - 10
काटते हुए
एक नदी को देखा
तट का गला
भरती चोर ज़ेबें
कछारों वाली
फेर मुख पे जल
उसी नदी को
सागर के तलुवे
चाटते देखा
हतप्रभ- सा खड़ा
सिन्धु का कोई धड़ा ।
-0-
ताँका- रश्मि विभा त्रिपाठी
1
तू लोहे जैसा
मुझको काट रहा
मैं तो हूँ मिट्टी
क्यों मुझमें गहरे
खुद को पाट रहा।
2
जब भी बाँचा
कौन कितना साँचा
इसी धुन में
रह गया है शेष
अब हड्डी का ढाँचा।
3
उसने पूछा!
मैं सन्न- सी थी खड़ी
जब बिगड़ी-
पापा की तबीयत
'कहाँ है
वसीयत?'
4
कृष्ण को पूजें
फिर भी नहीं सूझें
गीता के श्लोक
मोह पे नहीं रोक
छल से जीतें लोक!
5
अभिमन्यु- सी
रणक्षेत्र में फँसी
छल से मारा
भेदना था दुरूह
रिश्तों का चक्रव्यूह।
6
रिश्तों का रूप
हुआ बङा विद्रूप
अंगुलिमाल
मेरा घर लूट के
बन गए हैं भूप।
7
किसने किया
प्रेम का जीर्णोद्धार
सजा रहे हैं
अपना दरबार
करके वो संहार।
8
कृष्ण मैंने तो
कुछ भी नहीं सहा?
ये जग वही
चौथ का चन्द्र रहा
तुम्हें भी चोर कहा।
9
भरा विकार
द्वेष औ अहंकार
मन से प्रेम
उसे न था स्वीकार
कर दिया संहार!
10
आओ मोहन
वियोगिनी मैं राधा
एकाकिनी हूँ
जगभर की चिंता
मेरा शरीर आधा!
11
लोग सारे ही
पैसे पर अटके
प्रेम के रिश्ते!
क्या करते?, हारके
फाँसी पर लटके!!
-0-
चोका- रश्मि विभा त्रिपाठी
1
कर पाती हूँ
तभी तो आसान मैं
भारी से भारी
रोज के व्यवधान
जितनी मर्जी
खूब हुंकार भरे
देती ही नहीं
कभी आँधी पे ध्यान मैं
ठहरा नहीं
कहीं भी देर तक
कुछ पल का
मौसम मेहमान
लहराती हूँ
वादी में हवाओं- सी
देखकरके
मुझे इस रंग में
कुछ भी कहो
मंजूर मामी पीना
मगर यूँ ही
जीवन को है जीना
पाँव धरा पे
मन आसमान में
बिखेरूँ मुस्कान मैं।
2
दु:ख का बोझ
काँधों तले उठाना
मीलों- मील के
सफर पर जाना
रुलाता खूब
रास्तों का रुख कड़ा
देखता रहा
हुजूम दूर खड़ा
इस सच से
रोज ही पाला पड़ा
मैंने ले लिया
फिर फैसला बड़ा
तुम भी यही
नियम अपनाना
भीगें आँखें, तो
भीना हास बहाना
आँसू पोंछने
किसको यहाँ आना
अपने लिए
ये जग अनजाना
दबकरके
घुट ही जाता दम
मैंने न कभी
दुख को दुख माना
मुझे न भाया
किसी भी सूरत में
हिलकियों का
कोई दृश्य दिखाना
तमाशा बन जाना!!
-0-
11 टिप्पणियां:
बहुत ही सुंदर चोका और ताँका!
डॉ. भीकम सिंह जी और रश्मि विभा त्रिपाठी जी,दोनो ही समर्थ रचनाकार हैं।दोनो के चोका और ताँका अनुपम हैं।
आदरणीय भीकम सिंह जी के बहुत ही सुंदर ताँका। एक- एक में सिंधु, नदी और उसके आसपास के तट का दृश्य साकार हो उठा है।
हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
सादर
मेरे ताँका- चोका प्रकाशित करने के लिए आदरणीय सम्पादक द्वय का हार्दिक आभार।
आदरणीय शिव जी श्रीवास्तव जी एवं कपिल कुमार जी का हार्दिक आभार।
सादर
रश्मि विभा त्रिपाठी जी ! आप अपनी रचनाओं में कथ्य के साथ संवेदना गज़ब की पिरोती हो, ऐसे ही लिखती रहो ।बीच-बीच में नज़र भी उतरवा लिया करो, बहुत ही सुन्दर लिखा रही हो । हार्दिक शुभकामनाएँ ।
हार्दिक आभार आदरणीय।
आपकी टिप्पणी हमेशा नई ऊर्जा का संचार करती है और आपके सृजन की साधना से लेखन को परिपक्वता की ओर ले जाने की प्रेरणा मिलती है।
आप यूँ हमें प्रेरणा देते रहिए।
सादर
भीकम जी ने सागर पर अद्भुत चोका लिखा है। सभी एक से बढ़कर एक। रश्मि जी की रचनाएँ बहुत सुन्दर। आप दोनों को पढ़कर आनन्द आ गया। आप दोनों को बधाई।
वाह्ह्ह!!अनन्य लेखनी आप दोनों की... सार्थक एवं सौंदर्य युक्त सृजन... 🌹🙏
भीकम जी और रश्मि जी आप दोनों की बेहतरीन रचनाएँ। आप दोनों को हार्दिक बधाई।
दोनों रचनाकारों का अति सुंदर सृजन! बधाई।
बेहतरीन रचनाओं के लिए आप दोनों को बहुत बधाई
एक टिप्पणी भेजें