भीकम सिंह
सागर- 16
सिन्धु
का जब
हुड़दंग
मचे है
तटों
की निष्ठा
तब
कहाँ बचे है
जल
का तल
बार-
बार माथे से
तट
लगाता
तो
कहाँ बाँधकर
वो
रख पाता
निष्ठा
के स्थल रूप
समर्पण- प्रारूप।
सागर-
17
आँखों
के आगे
सिन्धु
की सीमा-रेखा
तट
ने देखा
दिन, मास,
वर्षों से
कहाँ
लाँघी है
बस
गरजते देखा
खुद
को खुश
मर्यादाओं
में देखा
मौजों
से मिला
विचित्र
प्यार देखा
भूला
त्यों सीमा-रेखा ।
सागर-
18
कैसे
समझे
सिन्धु
के संघर्षों को
स्तब्ध-सा
तट
मौन
संदर्भों के
वो
मुखर
शब्द
जो
शैलों की आड़ में
सिन्धु
ने साधे
लहरों
ने चुने वो
अधूरे-आधे
बिखरा-
सा सृजन
समन्दर
ही बाँधे ।
तट
से लौटी
सीपी
थामें हाथों में
धारा
ने हर
किनारा
सजा दिया
यू
ही बातों में
एक
मछली काँपी
खड़े
पानी में
कैसा
था वो संयोग
जो
अब मिला
मौका
पार जाने का
कुछ
कर जाने का।
सिन्धु
ज्यों व्रती
लहरें
अनुवर्ती
अर्पित
होके
तट
को समर्पित
अर्घ्य हैं देतीं
प्रातः
से शाम तक
फिर
व्यर्थ में
रात
भर का रोना
मोती
पिरोना
घूम
आती चिन्ता में
सिन्धु
का कोना-कोना
।
21-सागर
त्वरित
गति
पीछा
करती धारा
सिन्धु
आँकता
केवल
एक क्षण
पाँतों
के बीच
चक्रवाती
नज़ारा
पँख
फैलाए
पानी
तैरता सारा
जैसे
सौन्दर्य
गतियों
में घूमता
लगाता
फिरे नारा
।
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9 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर।
हार्दिक बधाई आदरणीय।
सादर
बहुत ही बेहतरीन ।
🙏
वाह्ह्ह सर... इतना मनोरम सृजन... 🌹🌹🌹वाह्ह...
बहुत सुंदर चोका लिखें है सर।
सुंदर बिम्ब
सुंदर रचनाएँ
बधाई आदरणीय
बहुत सुंदर चोका...हार्दिक बधाई।
सागर पर एक से बढ़कर एक चोका। हार्दिक बधाई भीकम सिंह जी।
आपकी सागर पर सभी चोका सृजन लाजवाब हुए हैं । पढ़ते हुए चित्र सागर की नाना दृश्यावली साकार हो उठी ।
बेहतरीन चोका के लिए बहुत बधाई
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