1-भीकम सिंह
सागर- 11
पाँव पसारे
जब- जब सिन्धु ने
काँधों पे झूला
त्यों तटों के सलीब
मौन पीड़ाएँ
किनारों में रेंगती ☆
क्लिफ का तन
☆
हुआ है भयभीत
सिन्धु के प्रति
चिर - कृतज्ञ खड़ा
ज्यों अहिंसा को लड़ा ।
--
☆सागरीय तट और किनारे में अन्तर होता है, किनारा तट से लगा वह भाग जहाँ पानी आता- जाता रहता है । तट वह जहाँ पानी ना पहुँचे ।
☆ क्लिफ सागरीय जलकृत स्थलरुप है, जो सागर की ओर खड़ा
दिखता है ।
सागर- 12
गीले तट पे
सूखा लंगर डाला
मुसकाया है
सारा तटीय क्षेत्र
क्षुब्ध हो गया
त्यों, लहरों का वेग
थपेड़े मारे
गिरती-पड़ती- सी
राह भटके
सैलानी-सी पहुँचे
शरमीले तट पे
।
सागर- 13
सिन्धु की साँस
ऊपर नीचे गिरी
लहरें बनी
हरेक आकर की
स्पष्ट रेखीय
और वृत्ताकार भी
सीमा के रुद्ध
मुड़ी,
तटों की ओर
देने उनको
प्रेम की अभिव्यक्ति
नई सृजन शक्ति
।
सागर- 14
तट के आगे
घूम रहे उदास
डूबे - डूबे से
सैलानी कुछ खास
गर्म रेत पे
करे क्षणिक वास
आँखों का नशा
बनाये देवदास
लेके पैरों में
आए हैं
वनवास
मन में है संन्यास ।
सागर- 15
तट ने सब
बदला हुआ देखा
द्वीपों को देखा
बनते - बिगड़ते
सिन्धु आस्था में
डूबता हुआ देखा
मछुआरों को
श्रम - गँवाते देखा
टाइटैनिक,
क्या जाने कैसे डूबा
तट ने वो भी देखा
।
-0-
2-कपिल
कुमार
1-चोका
1
मेघों के जाते
मौसमी नदियों की
नस-नस में
सूखेपन का दर्द
ज्यों उभरता
तसले-फावड़े ले
भूमाफिया का
एक जत्थे का जत्था
छाती चीरने
उत्सुकता के साथ
घर से निकलता।
2
चली छोड़के
पहाड़ों को अकेली
होने को सिद्ध
घाटी से पीछे लगे
प्राण लेने को
मानव-रूपी गिद्ध
ज्यों नीचे आई
नाले ऐसे झपटे
नभ में देख
छोटी-छोटी चिड़िया
गिद्ध-लार टपके।
3
सिन्धु ने काटे
पिछले तीस साल
डर-डरके
आधुनिकता-भाव
देता था घाव
तटों पर खड़ी हुई
ज्यों इमारतें
ताजी-ताजी हवा के
रोक के रास्ते
रही-सही कसर
मेघ पूरी करते।
--0-
ताँका
1
नदी ने देखें
बेमिसाल स्थापत्य!
तटों पर खड़े
छोटे से लेके बड़े
नए और पुराने।
2
नदी ने देखें
तपते हुए ऋषि
लिखते वेद
इसके अतिरिक्त
युद्धों में मात खाते।
3
नदी ने सुनी
गुनगुनाते हुए
वेदों की ऋचा
झेलम, यमुना पे
युद्धों के शंखनाद।
4
सिन्धु ने देखा
सिकंदर झुकते
वक़्त के आगे
अच्छे-अच्छे योद्धा भी
दुम दबाके भागे।
5
गंगा ने ढोई
पाप के साथ-साथ
मनुष्य-अस्थि
बोझ में दबके भी
दौड़ रही हँसती।
6
कैसे मिलती?
पितामह भीष्म को
पाप से मुक्ति
हे गंगा मैया, जाना
बताके कोई युक्ति।
7
बिना जल के
मरुस्थल में बने
भ्रम की नदी
ज्यों आती है, तुम्हारी
आहट कभी-कभी।
8
होते ज्यों तुम
मेघ इतने भले
तुम्हारे हाथों
मौसमी नदी, सिन्धु
ना गए होते छले।
9
अरे ओ मेघो!
इन्द्र का नंबर दो
अगले साल
कहना है उनसे
समय पर भेजें।
10
धन्य! तुम्हारा
बेशक देर आए
मेघों के जत्थे
वर्ना कौन है ऐसा?
जो जाके लौटता है।
11
फर्क पड़ा है
क्या कुछ लिखने से?
‘रोटी का राग’
या कलम उड़ाती
भूखों का उपहास।
-0- ** रोटी का राग, श्रीमन्ननारायण अग्रवाल
की एक कृति है।
8 टिप्पणियां:
आपको हार्दिक शुभकामनाएं बहुत अच्छा तांका और चोका लिखने के लिए।
सुंदर चोका एवं तांका से सुसज्जित यह साहित्यिक पटल आज जगमगा रहा है 🌹🙏
बहुत ही सुंदर चोका और ताँका।
हार्दिक बधाई आदरणीय भीकम सिंह जी को, कपिल कुमार जी को।
सादर
बहुत सुंदर चोका और तांका। आप दोनों को हार्दिक बधाई।
वाह! बहुत सुंदर रचनाएँ!
बहुत सुंदर रचनाएँ।बहुत-बहुत बधाई रचनाकार द्वय को।
मनभावन चौके और ताँका रचनाएँ पढ़कर बहुत आनंद आया । भीकम सिंह जी और कपिल कुमार जी को दिली बधाइयाँ ।
तट और किनारे का अंतर जानकार अच्चा लगा, आभार |
सभी रचनाएँ बहुत अच्छी है, बहुत बधाई
एक टिप्पणी भेजें