कृष्णा वर्मा
गुरुवार, 19 अगस्त 2021
बुधवार, 18 अगस्त 2021
983
पूनम सैनी
-0-
सेदोका-मीरा गोयल
1
लग जा गले
आडम्बर न कर
मेजबान होने का,
न मेहमान।
समय नहीं बचा
पानी-सा बह चला।
2
अधीर हिय
विरोधी आकांक्षाएँ
पराजय निश्चित
एक म्यान में
चाहो दो तलवार
असंभव चयन।
3
महत्त्वाकांक्षा
निश्चयात्मक पग
लक्ष्य सिद्धि संभव
माया न क्षोभ
लक्ष्य बने सर्वस्व
धर्म कर्म नियम।
4
हठी है अहं!
दुःख सहना, देना
है, उसका
व्यसन
जीतने न दो
तोड़ो ये सिलसिला
आत्मा को मत रुला।
5
त्रिगुणात्मक
नियम प्रकृति का
है सत, रज, तम
लो पहचान।
सहर्ष अपनाओ
संघर्ष बिसराओ।
6
मोह व्यर्थ है
चिन्ता है निरर्थक
कर्म बने प्रधान
शुद्ध हृदय
सरल अभिव्यक्ति
सार्थक हो जीवन।
7
नहीं विजय
प्रकृति से उलझे
अखण्डित नियम
अपक्षपाती
भोगना है सब को
आज नहीं तो कल।
8
मानव मन
शंकित पीड़ित क्यों
न छोड़ सके माया
न त्यागे धर्म
साँप छछून्दर-सा
उगले न निगले।
9
मानव मन
अनबूझ पहेली
खुद नहीं जानता
चाहता है क्या
पूरब औ पच्छिम
चाहता साथ साथ।
10
मिलोगे तुम
प्रफुल्लित हुई मैं
तुम्हारी इच्छा पूर्ति
संतोष मुझे
सफलित कमाना
सुखी अन्तरात्मा।
शुक्रवार, 13 अगस्त 2021
982
भीकम सिंह
1
नए-पुराने
पत्थर बिखराए
पहाड़ ने यू
गुस्से में मौन तोड़ा
किसी तपस्वी ने ज्यों।
2
धकेले पार
पापी पतझड़ को
ऋतु बहार
सूर्य की अरुणाई
देती सुख अपार।
3
छोटा पाट ले
बलखाती सिन्धु ने
नीली चूनर
घाटियों को ओढ़ाई
तो पवन बौराई ।
4
पहरा देता
पत्थरों के अस्त्र ले
पहाड़ बड़ा
दे रहा निमंत्रण
शांति का खड़ा-खड़ा।
5
बाहें बड़ी-सी
हर ओर फैलाते
प्यारे पर्वत
नदियों में मुस्काते
दु:ख ना कह पाते।
6
पत्थर टूटे
मौन मुखर हुआ
परबतों का
झरी है कांत काया
धूल ने यूँ बताया ।
7
मूक है
बड़ा
कोलाहल से भरा
दर्द से हरा
पहाड़ बैठ रहा
दूर से
दीखे खड़ा।
8
देख अकेला
पृष्ठभूमि में चाँद
तारें लूटते
पहाड़ों पर
नींदे
पर्यटक उनींदे ।
9
मेघ ज्यों फटा
पहाड़ों से भी ऊँचे
तरु
उखड़े
लहरों पे तैरते
पत्थरों के
टुकड़े।
10
पेड़ कहते
पर्वतों की कहानी
देके गवाही
विकास के नाम पे
जीवन की तबाही।
-0-
मंगलवार, 10 अगस्त 2021
981
ताँका
मंजूषा मन
1
सौदा किया था
सुख अपने देके
दुख लिया था,
फिर भी मुस्काए हैं
चलो! काम आए हैं।
2
पीड़ा के वक़्त
छोड़ जाएँ अकेला
अपने सब,
कैसा लगा है रोग
पराए सारे लोग।
3
टीसते नहीं
पुराने हुए जख्म
हुआ लगाव
लगने लगे प्यारे
अब ये दर्द सारे।
4
रहे मौन ही
घातें आघातें झेल
रो भी क्या पाते
सारा मान
गँवाते,
कह किसे बताते।
5
सुख चाहा था
पाए तिरस्कार ही
स्वयं को लुटा
जिसके लिए खोए
काँटे
उसने बोए।
-0-