बुधवार, 30 मई 2018

810



1-सेदोका
1-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा
1
जिंदगी मेरी
ये रंग कैसे-कैसे
इसमें दिए डाल
ओ चित्रकार  !
अब इस चित्र से
बाहर तो निकाल ।

-0-
2-शशि पाधा
1
लो छू ही गई
बंद खिड़कियों से
सलाखों में लिपटी
गुलाबी गंध
रोम- रोम महका
सुवासित- सा तन
2
डगमगाई
सिहराई सिसकी
अँखियों से पिघली
मन की पीर
बह गई नदियाँ
टूटे बाँध -किनारे
3
परतें खुलीं
अतीत की चादर
सलवटों से झाँके
कोई निशानी
कब से बिसराई
वो ही प्रीत पुरानी
--०-
 2-ताँका
1-पुष्पा मेहरा
1
जल से बर्फ़
बर्फ़ से बना जल
सत्य अटल
जन्मे नारी औ नर
बढ़े सृष्टि –चरण ।
2
बाँधना नहीं
जड़ बन्ध से कभी
पाँव ये मेरे
काटना नहीं डैने
चूमूँगी आकाश मैं।
3
कली–कली में
भरो,सृजन-रस
हरो उदासी
छेड़ो मृदु  भैरवी
फिर जागें तन्द्रा से !!
4
घट पराग
छिपाए थीं कलियाँ
मधु से भरा
नटखट था भौंरा
उड़ा ले गया सारा !!
5
पाला था भ्रम
यहीं-कहीं फूलों का
चाही ख़ुशबू
घूमी जो घाट-घाट
मिले काँटों के बाँध !!
6
खुली जो आँखें
पढ़े चार अध्याय
नियतिबद्ध
अंतिम चौखट पे
धुँधले मिले सारे !!
7
रात ढलेगी
सूर्य फिर उगेगा
छाया हुआ जो
आतंक अँधेरे का
एक दिन छँटेगा ।
8
भरे उड़ानें
मन, यह बावरा
कभी न थके
ढंग पाले निराले
तौलता रहे डैने ।
9
छेनी से नहीं
हथौड़े से भी नहीं
खाता है चोटें
जब अविश्वास की
मन टूटता तभी ।
10
बादल बनूँ
आकाश से उतरूँ
धरा से मिलूँ
वेणी माँ की सजा दूँ
सीप का मोती बनूँ ।
11
मुझे ना मार
सुहाग मैं धरा का
घर पाखी का
कहता थका पेड़
पर,कत्ल हो गया 
12
नई है पीढ़ी
छिपाए है दावाग्नि
छेड़ो न इसे
जलेगी-जलाएगी
रोको,आँधी उत्पाती ।
13
सभ्य गढ़ में
बसी ,सृष्टि की देवी
चाहे सुरक्षा
अग्नि की ज्वालाओं से
खूंखार पशुओं  से ।
14
चिरैया प्यारी
ढूँढे ना मिली कहीं
सभ्य नगर
यात्राएँ विकास की
विनाश –रेल चढीं
15
मथा जो जग
मिले सुधा औ विष
किया चिन्तन
फेंकी विष –गागर
पी के छकी अमृत ।
16
पल दो पल
आओ ! हँस बोल लें
न जाने कब
समय का मछेरा
फाँसे हमे जाल में !!
-0-
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शुक्रवार, 25 मई 2018

809


1-ताँका
डॉ.जेन्नी शबनम
1.
अँजुरी भर
सुख की छाँव मिली
वह भी छूटी
बच गया है अब
तपता ये जीवन।
2.
किसे पुकारूँ?
सुनसान जीवन
फैला सन्नाटा,
आवाज घुट गई
मन की मौत हुई।
3.
घरौंदा बसा
एक-एक तिनका
मुश्किल जुड़ा,
हर रिश्ता विफल
ये मन असफल।
4.
क्यों नहीं बनी
किस्मत की लकीरें
मन है रोता,
पग-पग पे काँटे
आजीवन चुभते।
5.
सावन आया
पतझर-सा मन
नहीं हर्षाया,
काश! जीवन होता
गुलमोहर -गाछ
6.
नहीं विवाद
मालूम है, जीवन
क्षणभंगूर
कैसे न दिखे स्वप्न
मन नहीं विपन्न।
7.
हवा के संग
उड़ता ही रहता
मन- तितली
मुर्झाए सभी फूल
कहीं मिला न ठौर।
8.
तड़प रहा
प्रेम की चाहत में
मीन -सा  मन,
प्रेम लुप्त हुआ, ज्यों
अमावस का चाँद।
9.
जो न मिलता
सिरफिरा ये मन
वही चाहता
हाथ पैर मारता
अंतत: हार जाता।
10.
स्वप्न -संसार
मन पहरेदार
टोकता रहा,
जीवन से खेलता
दिमाग अलबेला। 
-०-
2-सेदोका

डॉ.जेन्नी शबनम
1.
अपनी व्यथा
गुमसुम प्रकृति
किससे वो कहती
बेपरवाह
कौन समझे दर्द
सब स्वयं में व्यस्त।
2.
वन, पर्वत
सूरज, नदी ,पवन
सब हुए बेहाल
लड़खड़ाती
साँसें सबकी डरी
प्रकृति है लाचार।
3.
कौन है दोषी?
काट दिए हैं  वन
उगा कंक्रीट-वन
मानव दोषी
मगर है कहता-
प्रकृति अपराधी।
4.
दोषारोपण
जग की यही रीत
कोई न जाने प्रीत
प्रकृति तन्हा
किस-किस से लड़े
कैसे जखम सिले। 
5.
नदियाँ प्यासी
दुनिया ने छीन है
उसका मीठा पानी,
करो विचार
प्रकृति है लाचार
कैसे बुझाए प्यास।
6.
बाँझ निगोड़ी
कुम्हलाई धरती
नि:संतान मरती
सूखा व बाढ़
प्रकृति का प्रकोप
धरा बेचारी।
7.
सब रोएँगे
साँसें जब घुटेंगी
प्रकृति भी रोएगी,
वक्त है अभी
प्रकृति को बचा लो
दुनिया को बसा लो।
8.
विषैले  नाग
ये कल कारखाने
जहर उगलते
साँसें  उखड़ी
जहर पी-पी कर
प्रकृति है मरती। 

9.
लहूलुहान
खेत व खलिहान
माँगता बलिदान
रक्त पिपासु
खुद मानव बना
धरा का खून पिया 
10.
प्यासी नदियाँ
प्यासी तड़पे धरा
प्रकृति भी है प्यासी,
छाई उदासी,
अभिमानी मानव
विध्वंस को आतूर। 
-०-

शुक्रवार, 18 मई 2018

808

1
कुछ खिलौने
उम्र छीन ले गई
कुछ वक़्त  ने लूटे,
ख़ाली हाथ हूँ
काश ! कोई लहर
हथेली भर जाए !

आज आदरणीया डॉ. सुधा गुप्ता जी का जन्म दिन है , इस अवसर पर हाइकु की शोध छात्रा  पूर्वा शर्मा का पत्र ,तथा अन्य रचनाएँ दी जा रही हैं. 
 पूज्या सुधा गुप्ता  जी को शत -शत नमन !
( सम्पादक एवं सभी रचनाकार )
-०-
आदरणीया सुधा जी,
प्रणाम !
 आपको जन्म दिन के लिए बहुत-बहुत बधाई हम सब के लिए बहुत ही ख़ुशी का अवसर है कि आपने अपने जीवन के 84 वर्ष पूर्ण कर लिये  और आज भी आपका साहित्य-सृजन निरंतर गतिमान है ‘हाइकु’ शब्द के साथ ही आपका नाम अपने आप जिह्वा पर आ जाता है  मैं ये दावे के साथ कह सकती हूँ कि शायद ही कोई ऐसा हाइकु रसिक होगा ,जो आपकी रचनाओं से प्रभावित न हुआ हो  आपके साथ बिताया प्रत्येक पल मेरे जीवन का अविस्मरणीय पल है, जिसे कैमरे में कैद करने की आवश्यकता नहीं है, यह सभी स्वर्णिम  पल मेरी आँखों में सदा के लिए बस चुके हैं  बस यही कामना  करते हैं आप नीरोग रहे और आपकी रचनाओं का स्वाद लेने का सौभाग्य हमें प्राप्त होता रहे  हम सभी हाइकु प्रेमियों की ओर से आपको बहुत-बहुत बधाई 
हाइकु वर्षा
अनवरत बरसे
सुधा-कलम से
-पूर्वा शर्मा 
-०-
1-मन बावरा 
-सत्या शर्मा ' कीर्ति '

उबड़ -खाबड़ , चढ़ाई से भरे रास्ते  और कहीं-कहीं दिखते पत्थरों से बने खूबसूरत से मकान
, जिनके आस -पास हसीन से  लोग जानी पहचानी सी मुस्कान लिए यूँ अपनापन दे रहे थे जैसे शायद उन्हें पता हो मै आऊँगी एक दिन ,जैसे कि नियति ने पहले ही सब व्यवस्था कर रखी हो ।
फिर हल्की सी बारिश और पेड़ों , फूलों , पत्तों से निकली मिली- जुली मीठी -सी खुशबु जैसे अंदर तक अमृत घोल गयी ।शुद्ध हवा कितना कुछ दे जाती है न जैसे कुछ भरता ही जाता है  अंदर ही अंदर ।पास ही सर्पिली सी नदी बलखाती- सी नीचे उतर रही थी और मेरा चढ़ना देख ,हँसकर  कह रही थी जाओ न अलकनन्दा तुम्हे ही याद कर रही है । मन जैसे और भी पुलकित हो उठा ।
तभी कहीं से किसी वाद्य यंत्र की आवाज सुनाई दी ।
जाने कहाँ से हवा संग तैरती - ढूँढ़ती हुई आ मिली मुझेसे ।मैंने भी कानों से सुन मन में बसा लिया पर जाने क्यों आँखों से टपक नदी संग बह गयी ।
कितना अजीब है न जहाँ हम किसी को नहीं जानते पर उस जगह को भी इन्तजार सा रहता है हमारा । हाँ , तभी तो मैं अपने सम्पूर्ण बजूद के साथ समाती जा रही थी और लग रहा था जैस एक जगह कब से खाली रखा था इन खूबसूरत वादियों ने शायद मेरे लिए ।
क्या सब कुछ निश्चित होता है ?
शायद इसीलिए पास से गुजरती हुई हवा ने हल्के से छू कर कहा "थकी तो नहीं "और आस - पास के पेड़ों को जोर से हिला अनगिनत रंग - बिरंगे फूलों को मुझ पर बरसा कहा " आओ स्वागत है तुम्हारा ।"
हाँ , कुछ जगहें भी इन्तजार करती है हमारे आने का ।
0
देखता द्वार
करता इन्तजार
मन बावरा ।।

0
उठे है हूक
पिया परदे
सी
कब
 आएँगे।।

-0-
2-दर्द  पेड़ों का
 -कमला घटाऔरा

आज मन बड़ा उत्साह से भरा था ।गगन में रह रह कर बादल अठखेलियाँ कर रहे थे । धूप  चंचल शिशु की तरह हमारी कार की खिड़की से हमारा स्पर्श कर  दूर भाग जाती। कभी जंगल की         ओर जाने वाले ऊँचे -ऊँचे पेड़ों के पीछे जाकर लुका-छिपी का खेल खेलती कभी फिर सामने आ जाती ।हमारा बचपन जगा रही थी । जी करता अभी कार से निकल हम भी पेड़ों के पीछे छुप जायें उसके दिखते ही उसे पकड़ लें । लेकिन शीतल हवा का स्पर्श तन में कंपन भर रहा था ।यहाँ इस देश में धूप होने पर भी ठंड ही रहती है ।
हम एक नए खरीदे घर को देखने जा रहे थे उसके मालिक के साथ । कार अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रही थी ।अब हम फोरेस्ट रोड़ से आगे जा रहे थे । ऐसा प्रतीत हुआ जैसे सड़क के दोनों ओर  ऊँचे - ऊँचे घने वृक्षों की कतारें आने वालों के स्वागत में खड़ी हों ,नवीन हरित वस्त्र धारण किये मुस्कुराती हुई ।आगे चल कर गिनती के कुछेक घरों का छोटा सा रिहायशी एरिया आ गया ।कुछ माइल चलने के बाद हमारी मंजिल थी । गेट खोलने के लिये कार से बटन दबाया गया । हमारी कार हमें कई मीटर चलकर अंदर गृह द्वार तक ले गई ।
तीन चार एकड़ की जगह में फैला यह एरिया  चारों ओर दरख्तों से घिरा था ।एक तरह से जंगल के बीच स्थित था । चारों ओर घूम कर अपने पग चिन्ह बनाना मेरे जैसे ढलती उम्र वालों के लिए मुश्किल होता है ।सो चारों ओर घूम कर हर पेड़ से ‘हैलो’ नहीं कह सकी । मैं तो वहाँ पूर्व बाशिंदो के लगाए फूल पौधों ,बेलों और फलों के पेड़ों को ही निहारती रही । मोहित होती रही । पेड़ पौधों के रसिकों का मन ही मन गुण गान करती रही । एक बहुत ही पुराना पेड़ जिसकी जड़ें , इस अर्ध सदी पूर्व बनाए पाँच कमरों के घर की नींव तक पहुँचने जा रही थी ,उन्हें काट दिया गया था ताकि घर को कोई क्षति न पहुँचे ।उसकी लकड़ियों को छोटा- छोटा करके  सूखने के लिये बिखेर दिया गया था , जो सर्दियों में घर गर्म रखने के काम आने वाली थी।
घर के नए मालिक ने इधर उधर बिखरी सूखी पतली टहनियों को भी इकट्ठा करके जलाने के लिए एक पेड़ के नीचे जमा किया हुआ था । जाते ही वह अपने काम में जुट गया । पुराने पेपर ले जाकर लाइटर से आग जला दी । धुँआ छोड़ती लकड़ियाँ जल्दी ही लपटों में बदल गईं । जिस सूखे पेड़ के नीचे सूखी लकड़ियाँ रखकर जलाई जा रही  थीं , उसकी लपटें सूखे पेड़ के शिखर को तो छू ही रही थी, लेकिन जब उन लपटों का सेक आस पास खड़े हरे भरे पेड़ों को भी झुलसाने लगा तो मन
असह्य पीड़ा से भर गया ।लगा जैसे पेड़ दर्द से कराह उठें हों ।मैं न उन्हें सांत्वना  दे सकती थी ना धुएँ को उस ओर जाने से रोक सकती थी ।जो कर सकती थी वह भी न कर सकी । मैं कह सकती थी आप लोगों को इन हरे भरे वृक्षों के पास इस तरह आग नहीं जलानी चाहिये थी । मैं कुछ कहती पहले ही मकान मालिक आग जला चुका था ।कहने का अब कोई फायदा नहीं था ।
जो एक तरफ तो सैंकड़ों नए पेड़ लगाने को यत्नशील है दूसरी ओर आग जलाते समय यह कैसे भूल गया  कि जो पेड़ लहलहा रहें हैं उन की सुरक्षा तो पहले सोच लूँ ।उनसे दूर जा कर आग जलाऊँ । मैं  इस उलझन से घिरी सोचती  रही कि हमारा ध्यान क्यों एक ही  काम पर जुट जाता है ? उसके दूसरे पक्ष को कैसे भूल जाता है ? काश ! उन की आँखें देख पाती जलते पेड़ों के दर्द को , जान पाती  उन में भी जान होती है । उन के दुख से धरा को भी पीड़ा होती 
दर्द पेड़ों  का
जान पाए न कोई
धरा तड़पे ।

-०-

-०-
3-भीग गई वसुधा
डॉ.पूर्णिमा राय, अमृतसर 

हवा के झोंके
छू रहे तन-मन
निश्छल यादें
बरबस उतरी
मन के द्वार
अखियों का पैमाना
ज्यों ही छलका
बादलों से टपकी
बूँद-बूँद से
भीग गई वसुधा
विरहाग्नि में
मूसलाधार वर्षा
हृदय नभ
हो गया आह्लादित
प्रिय मिलन
अनोखा प्रकृति का
भीनी सुगंध
अंग प्रत्यंग  हुए
पुलकित धरा के !

-0-