रविवार, 17 सितंबर 2017

777

1-डॉ.जेन्नी शबनम
1
हाल बेहाल
मन में है मलाल
कैसी ज़िन्दगी?
जहाँ धूप न छाँव
न तो अपना गाँव। 
2
ज़िन्दगी होती
हरसिंगार फूल,
रात खिलती
सुबह झर जाती,
ज़िन्दगी फूल होती। 
3
बोझिल मन
भीड़ भरा जंगल
ज़िन्दगी गुम,
है छटपटाहट
सर्वत्र कोलाहल। 
4
दीवार गूँगी 
भेद सारा जानती,
कैसे सुनाती?
ज़िन्दगी है तमाशा
दीवार जाने भाषा। 
5
कैसी पहेली?
ज़िन्दगी बीत रही
बिना सहेली,
कभी- कभी डरती
ख़ामोशियाँ डरातीं। 
6
चलती रही
उबड-खाबड़ में 
हठी ज़िन्दगी,
ख़ुद में ही उलझी
निराली ये ज़िन्दगी। 
7
फुफकारती
नाग बन डराती
बाधाएँ सभी,
मगर रुकी नहीं,
डरी नहीं, ज़िन्दगी। 
8
थम भी जाओ,
ज़िन्दगी झुँझलाती 
और कितना?
कोई मंज़िल नहीं
फिर सफ़र कैसा?
9
कैसा ये फ़र्ज़ 
निभाती है ज़िन्दगी
साँसों का क़र्ज़,
गुस्साती है ज़िन्दगी 
जाने कैसा है मर्ज़। 
10
चीख़ती रही
बिलबिलाती रही
ज़िन्दगी ख़त्म,
लहू बिखरा पड़ा
बलि पे जश्न मना।
  
-0-

2-विभा रश्मि 
जुगनू तम में  आया 
आशा चमकी फिर 
था  रोशन  हमसाया ।
मन डूबा - उतरा है
आलोड़न में अब
भीगा हर कतरा है ।
3
थक जाना मत राही
साँस तलक चल  तू
मंजिल पा दिलचाही । 
4
मेरा घर सूना है 
आ भर खुशियाँ तू
उजियारा दूना  है ।
5
बातों के घोड़े थे 
दौड़े सरपट वो
सपनों को जोड़े थे ।
6
आखर बहुतेरे हैं 
काग़ज़ तो कोरा 
भावों के  डेरे हैं ।

-0-

बुधवार, 13 सितंबर 2017

776

अज्ञात भय
कमला घटाऔरा

 वह नहीं चाहती थी कि बच्चों के साथ घूमने जा बुढ़ापे में घूमने- फिरने का कोई आनन्द तो  है नही।वहाँ का विशाल मंदिर देखने का बड़ी बेटी का बहुत मन था  वह उसे  मना भी तो नहीं  कर सकती थी। बच्चों की ख़ुशी के लिए उसे आना पड़ा।मंदिर देख- घूम फिर कर वे एक जगह थककर सुस्ताने को बैठ गईं।  एक बेटी अपने  बच्चों के लिए कुछ लेने एक ओर  चली गई तथा दूसरी बेटी मंदिर की पूजा अर्चना देखने चल दी। इतनी दूर मंदिर देखने आ हैं साथ में पूजा भी देख लें तो सोने पे सुहागा।

माँ को उनके इंतजार का एक एक पल भारी हो रहा था थोड़ी देर कह कर ग। अभी तक एक भी लौटकर नहीं आई ।भय का साँप उन्हें अपनी और आता दिखाई देने लगा। अनजाने लोगों की आती- जाती भीड़ देख वह और भयभीत होने लगीं। कहीं उनकी बेटियाँ इधर उधर न हो जाएँ ,साथ के छोटे बच्चों को सँभालते - सँभालते माँ को  भूल ही न जाएँ। वह किसे पुकारेगी ? वह कहाँ ढूँढेगी उन्हें ? तरह -तरह के विचार आकर उसे  चिंतित करने लगे। वह दहल -सी ग

इस समय याद आ ग उसे अपनी खो हु दबंग भाभी ,जिसने कभी अपनी जवानी में घर घुसे चोरों को डंडे से मार मारकर खदेड़ दिया था ,लेकिन बुढ़ापे में अपने बच्चों से मिलने बड़े शहर क्या गई, तो लौटकर घर ही न पहुँची, जबकि साथ में भैया भी थे। वह टॉयलेट ही ग थी। वहीं से कहीं गायब हो ग। सारी  ट्रेन छान मारी उस का कोई अता- पता न चला। वर्षों उस की तलाश जारी रही। नहीं मिली सो नहीं मिली। …

यह सोचकर वह और डर ग। वह अकेली किस ओर पहले जाए ,छोटी को मंदिर से बुलाने गई, तो बड़ी आकर उसे यहाँ तलाश करेगी ,जहाँ बैठाकर ग है। दोनों हाथ पकड़कर ऊँची -नीची जगह से चलाकर लाई हैं कि कहीं ठोकर न लग जा। वह बार -बार अपना चश्मा साफ करके कभी इस ओर,  कभी उस ओर  उन के आने की राह देखने लगी। क्या करे ?अब दिन भी ढलने लगा था। बच्चे कहाँ जान पाते हैं माँ की इन चिंताओं को। माँ तो बस माँ है चिंताओं में ही कट जाती उम्र उसकी  
उतरी संध्या
डरी सहमी-सी माँ
अज्ञात भय।


शनिवार, 2 सितंबर 2017

775

1-माहिया
परमजीत कौर 'रीत'
1
खामोशी कहती है
यादें सावन बन
आँखों से बहती हैं
2
आँगन के फूलों की
याद बहुत आ
नानी-घर झूलों की
3
नदिया- सा मन रखना
रज हो या कंकर
सब हँस-हँसकर चखना
4
नभ में मिलती राहें
पाँव धरा पे जो
मंजिल थामे बाहें
5
क्या खोना ,क्या पाना
अपनों के बिन ,जी!
क्या जीना,मर जाना
-0-
2-चोका
 पुष्पा मेहरा

लिपटा क्या है
इस कलेवर में
आया कहाँ से
है ज्ञात ना मुझको
बस ज्ञात है-
भिन्न रूपों-नातों से
आ जुड़े सभी
कहीं न कहीं हम
भिन्न भावों से,
जातिगत भेद से,
धर्म बंध से
मिल गए हैं जैसे
जन्म लेते ही
मधुरिम वात्सल्य,
ममता-डली
बिन माँगे ही हमें
निकटतम
निज माता-पिता से ,
प्रिय-अगाध
तन्द्रिल औ मायावी,
खोये अहं में
धीरे–धीरे जागे तो
मिली रौशनी
अनजाने सूर्य से
मिली चाँदनी
शुभ्रतम चाँद की,
मिलता सुख
संदली हवाओं का
निर्विरोध ही,
बढ़ते रहे सदा
दृश्य पथ  पे
नियति-डोर थाम
लिपटे हुए 
अहं मद में रमे
बेचते रहे
सपने,सुहावने
खरीद कर
सुख-राशि क्षणिक,
मन उनींदा
घिरा रहा तम से
दिखी ना राहें
मतवाले प्रेम की,
बिछड़े साथी
ज्यों नदी के किनारे
लहरें ऊँची
तोड़ती रहीं बाँध
सद्भावना का
जलस्तर स्वार्थ का
बढ़ता रहा
धँसते गए, डूबे,
गुह्य तल में
जो था घाना अँधेरा
मिला न द्वार
न मिली झिरी कोई,
न ही प्रकाश कभी
-0-
pushpa.mehra@gmail.com