शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

907



हवा गाती है (ताँका संकलन)
ज्योत्स्ना प्रदीप
कृति: हवा गाती है: सुदर्शन रत्नाकर (ताँका),पृष्ठ: 112,मूल्य: 220 रूपये,
SBN: 978-93-88471-93-0,प्रथम संस्करण: 2020,प्रकाशक: अयन प्रकाशन
1 / 20, महरौली, नई दिल्ली-110 030
ताँका एक जापानी विधा है । इसे 5-7-5-7-7अक्षरों के क्रम में लिखा जाता है । जापान में पहले ताँका ही लिखा
जाता था । परन्तु हाइकु की लघुता में छिपी गहनता ने लोगों को ताँका के मुकाबले ज़्यादा आकृष्ट किया, जबकि ताँका से ही हाइकु का जन्म हुआ है । कहना ग़लत न होगा कि हाइकु ने ताँका की कोख से जन्म लिया है । परन्तु कुछ समय से भारत में ताँका भी अपना वर्चस्व स्थापित करने में लगा है । अभी गत वर्षों में कई ताँका संकलन प्रकाशित हुए। सुदर्शन रत्नाकर जी का ताँका संग्रह 'हवा गाती है' मैंने पढ़ा । इसमे 379 ताँका हैं । इसे पढ़कर मैं प्रकृति के सौंदर्य में समाहित हुए बिना ना रह सकी! रत्नाकर जी प्रकृति सौंदर्य-रस प्रेमी हैं।आकाश, धरती, नदियाँ, सागर, पहाड़, झरने, पेड़-पौधे, फूल सभी से आकर्षित होती हैं ।
ताँका संग्रह ' तीन खंडों में विभाजित है-1-आद्या प्रकृति, 2-जीवन पथ,3-विविधा
पहला खंड आद्या प्रकृति-आद्या का अर्थ है-माँ आदि शक्ति । यह आदि शक्ति ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में वास करती हैं । यह शक्ति ही प्रकृति के सौंदर्य में भी वास करती हैं ।यही सौंदर्य हमें एक अनूठे जगत में ले जाकर परमानन्द की अनुभूति कराता है । ऐसी अनुभूति उसे ही हो सकती है जो प्रकृति से जुड़ा हो इसके मोहक रूप से । सुदर्शन रत्नाकर जी आह्लादित रहती हैं प्रकृति की मोहक सुंदरता देखकर । वह कहती हैं-
पत्तियों पर / मोती-सी ओस-बूँदें / मोहती मन / सूरज सोख लेता / पर उसका तन।
इक संगीत प्रेमी के समान रत्नाकर जी पक्षियों की सरसराहट में, हवाओं में वाद्य यंत्रों की दिव्य-नाद सुनती हैं-
उड़ते पक्षी / सरसर करती /  चली हवाएँ / लयबद्ध तानों ने  / शहनाई बजाई ।
फूलों का सौंदर्य कवयित्री के मन को सुवासित करता है । गुलमोहर, कनेर, अमलतास, गुलाब, हरसिंगार, मधुमालती, रजनीगंधा, चम्पा, पलाश, सभी फ़ूलों की सुगंध निहित है इस खंड में । फूलों के इस अनूठे जमघट में वह मानों अपने में ही कहीं खो गई हों । काव्यात्मक शब्दों से गुंथें कुछ चमत्कृत ताँका-
झंकृत हुए / मन वीणा के तार / सजी वीथिका / बही बरौली हवा / खिले फूल पलाश ।
खिल रहे हैं / ग्रीष्म की आतप में / गुलमोहर / दहकते अंगार / धरा पर बिखरे ।
लता झूमती / लद गई फूलों से / मधुमालती / दूध केसर रंग / दूध केसर रंग / लटकें ज्यों झूमर ।
खिले गुलाब / आँखों का है उत्सव / मनाओ तुम / अनुपम सौंदर्य / अँजुरी भर पीओ ।
प्रकृति के इस मनमोहक पर्व को गर्व से मनाती हैं रत्नाकर जी, इस पर्व से आशा, सुख उत्साह की वृद्धि होती है सौंदर्य में सन्देश निहित हो तो बात ही क्या! रत्नाकर जी का ये प्यारा ताँका सुन्दर सन्देश देता है-
सूरज से लो / ऊर्जा तप जाने की / खिले पलाश / प्रकृति का नियम / तपता, वह खिलता ।
सत्य और सुन्दर भाव में जो तपता है वही तो खिलता है ।विचारों को उत्पन्न करनेवाली कल्पना-शक्ति मन की सृजनशक्ति ही है ।कल्पना-शक्ति में यथार्थ के ऋतुराज का छलकता यह सौंदर्य बड़ा सुखकारी है-
किया शृंगार / फूलों के आभूषण / पहनकर / सतरंगी लिबास / आ गया ऋतुराज ।
एक ओर सौंदर्य को पाने का आनन्द है, तो दूसरी ओर उसे खो देने का दुख भी, सुख जब आता है, तो हम उसकी क़द्र नहीं करते-
चाँद आया था / उजियारा लेकर / मेरे आँगन / पर मैं सोती रही / बंद किए खिड़की ।
प्रकृति सौंदर्य का अनन्त-कोष है । इस अनन्त-कोष से ही लिया इस ताँका का दैदीप्यमान रूप देखिए-
बाँचते रहे / रात भर चिट्ठियाँ / चाँद-सितारे / धरा ने भेजी थीं जो / आसमान के लिए ।
सौंदर्य है तो सुख है, जहाँ सुख है वहाँ आशाएँ भी तो सहज ही आ जाती हैं-आशा की नई किरनें बिखेरते मनमोहक सजीव कुछ सजीव चित्र—
घबरा मत / लहलहाते पत्ते / ठूँठ से बोले / हम तेरे साथ हैं / हाथ आगे तो बढ़ा ।
डूबता सूर्य / दे गया है सन्देश / सोचना मत / अंत नहीं है जाना / लौट के आता दिन ।
छोड़ दिया है / पत्तों ने साथ तेरा / मत घबरा / सूखी टहनियों में / काँटें अभी शेष हैं ।
ताँका में लय का भी बड़ा महत्त्व है । लयप्रधान काव्यगुण से सम्पन्न ताँका—
लो आ गई / चूनर ओढ़े रात / सितारों वाली / चंदा रहेगा साथ / होने तक प्रभात ।
मन में सजीव भाव चित्र बनाती ये पंक्तियाँ पाठकों के मन को अलौकिक सुख प्रदान करती हैं—
श्वेत बादल / बहती ज्यों नदियाँ / आसमान में / कितनी हैं अद्भुत / प्रकृति की निधियाँ ।
रुई के फाहे / गिरते धरा पर / फैली ज्यों चाँदी / श्वेतांबरा वसुधा / हँसी खिलखिलाई ।
प्रथम खंड में प्रकृति का सौंदर्य लगभग हर ताँका में देखने को मिलता है। जो पाठक को प्रकृति से जोड़कर मन को असीम सुख प्रदान करता है ।
दूसरा खंड जीवन पथ-जीवन पथ में रत्नाकर जी ने मानव में उथल-पुथल मचाने वाले भावों को बड़ी सरलता से समेटा है-प्रेम-घृणा, सुख-दुख, क़सक, ईर्ष्या, द्वेष, शान्ति, संतोष-असंतोष । प्रेम जीवन का सबसे सुन्दर भाग है । मानव जीवन प्रेम के बिना अपूर्ण है । मगर प्रेम में कभी मन खिलता है तो कहीं छिलता भी है । ऐसे ही भाव लिए दो ताँका-
तुम ने छुआ / तन तरंगित हुआ / मन है खिला / भूली हुईं यादों का / काफ़िला है निकला ।
काली घटाएँ / छा जाती चारों ओर / बिखरे बाल / नागिन बन डसें / प्रिय नहीं जो पास ।
माँ-पिता के प्रेम की धार को पाना अमिय-पान करने जैसा है। माँ-पिता के स्नेह-सुधा-रस से सराबोर ये भाव भावुक कर देते हैं पढ़ने वाले को-
माँ की ममता / पिता का दुलार / कहाँ खो गए / अपनों की भीड़ में / क्यों अकेले हो गए?
धुआँसी आँखें / काँपते हुए हाथ / झुकी कमर / जिह्वा पर आशीष / ऐसी माँ की तस्वीर ।
लेकिन कुछ रिश्ते कभी-कभी हृदय को बहुत आहत करते हैं । अपनों से मिली चोट खाकर भी जीवन तो जीना ही है-
चोट खाई है / ज़ख्मों को सिल लिया / राह दुर्गम / फिर भी मुस्काती हूँ / बस यही जीवन ।
रिश्ते-नातों पर लिखे सभी ताँका मर्मान्तक पीड़ा का आभास कराते हैं । रत्नाकर जी के अनुसार रिश्ते बहुत नाज़ुक होते हैं । इन्हें हर हाल में सहेजना चाहिए—
रिश्ते होते हैं / तितली से नाज़ुक / ख़ूबसूरत / सम्भल कर छूना / न बिगड़ें, न उड़ें ।
रिश्ते सभी प्यारे होते हैं पर एक रिश्ता बहुत अनोखा है-बेटी का रिश्ता । आज वह हर घर की शोभा है-
छोड़ो भी अब / बेटी नहीं है बोझ / शोभा घर की / महकता वह फूल / नहीं पाँव की धूल ।
बाँटते रहो / खुशियों की सौगातें / वापिस आती / ढेरों खुशियाँ बन / जीवन महकाती ।
तभी वह भ्रूण हत्या जैसे पाप पर, आज के समाज को फटकार भी लगाती हैं-
हो रही आज / नज़रों के सामने / हत्याएँ आम / अजन्मी बेटियों की / चुप क्यों बैठे आप?
रत्नाकर जी प्रकृति को प्रेम करती हैं । इसी प्रकृति में आनन्द है पर कभी-कभी एक पीड़ा उन्हें सताती है। आदि शक्ति-इस जग के कण-कण में निहित है । ये ही शक्ति हमारे अतल-मन में भी निवास कर हैं । मगर इस महामाया को पाना आसान नहीं । उसे खोज न पाने की पीड़ा का अहसास देखिए—
स्वयं की खोज / ईश को पाने जैसा / भटक मत / सिर झुका के देख / भीतर वह बैठा ।
तुम ही तो हो / मेरे हर श्वास में / धड़कन में / दोष मेरा ही तो है / खोज न पाऊँ तुम्हें ।
हाथ में आई / बस सीपियाँ मेरे / गई नहीं मैं / सागर में गहरे / बैठी रही किनारे ।
मगर विश्वास तो कभी नहीं खोती रत्नाकर जी-
नहीं दिखती / गर मंज़िल तुम्हें / मत घबरा / उठ, दीपक जला / मन में विश्वास का ।
गिर रहे हैं / सूखे पत्ते पेड़ से / मत घबरा / सृष्टि का नियम है / उगेंगे फिर पत्ते ।
नदी की धारा / बहती है रहती, / नहीं रूकती / शिला से टकराती / फिर भी मुस्कुराती ।
तीसरा खंड विविधा
जहाँ एक ओर कवयित्री को पर्यावरण, भ्रष्टाचार और बढ़ते प्रदूषण की चिन्ता है वहीं मजदूर, गरीब बच्चों और दीन-हीन लोगों की दुर्दशा पर उनका कलेजा फटता है इस खण्ड में । कुछ कोमल मन की गहन वेदना के नायाब ताँका—

चारों तरफ / बह रही हवाएँ / भ्रष्टाचार की / आओ मिल थाम लें / बह न जाएँ कहीं ।
सूखी नदियाँ / रोएँ दोनों किनारे / पेड़ न कोई / गौरैया उदास है / नहीं गीत सुनाए ।
ज़रा सुन रे / पहचान उनकी / नंगे बदन / फुटपाथ बिस्तर / ओढ़नी है अम्बर ।
तपती धरा / गर्म हवा के झोंके / बहता स्वेद / झुलसते बदन / विवश मजदूर ।
ढूँढ रहा / कचरे में सपने / भोर बेला में / वह नन्हा बालक / पढ़ने की वय में ।
अंत में इतना कहना चाहूँगी कि अपने नाम के अनुरूप ही रत्नाकर जी ने प्रकृति में छिपे रत्नों को समेटा है
इस ताँका संकलन में ।'हवा गाती है' एक ख़ूबसूरत संकलन है । प्रकृति-प्रेम के साथ-साथ संवेदनात्मक, प्रतीकात्मक और मानव के जीवन की पीड़ा के लयात्मक सुगंध लिए यह पुस्तक आपको भावों में समाहित किए बिना न रह पाएगी । यह मेरा विश्वास है! साहित्य के विशाल उपवन में ये 'हवा' गाती रहेगी । चहुँओर सुंदर स्वर बिखेरती रहेगी । खिलाती रहेगी अनेक हृदय-पुष्पों को । मंगल-शुभकामनों के साथ-
-0-ज्योत्स्ना प्रदीप,मकान नंबर 32 गली नंबर-9 गुलाब देवी रोड, न्यू गुरुनानक नगर, जालंधर
पंजाब 14403 (फ़ोन-6284048117 ,jyotsanapardeep@gmai. Com)

सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

906-रिश्ते वे सारे


रिश्ते वे सारे
रामेश्वर काम्बोजहिमांशु

रिश्ते वे सारे
आओ करें तर्पण
बीच धार में
जो चुभते ही रहे
उम्रभर यों,
जैसे जूते में गड़ी
कील चुभती
रह-रह करके
जीवन भर
टीस ही देते रहे
वे क्रूर रिश्ते,
जो लेना ही जानते
कुछ न देते
उलीच लेते साँसें
निष्ठुर लोग
सब कुछ ले लेते
जब देना हो,
चुभती कील जैसे
दर्द ही देते
कर्त्तव्य की वेदिका
शीश लेकर
कभी तृप्त न होती
रक्त-पिपासु 
सिर्फ़ प्राण माँगते
क्रूर वचन
क्रूस पर टाँगते
विष उगाते
अमृत कैसे बाँटें
जिह्वा की नोक
विष-बुझी छुरी-सी
आत्मा को चीरे
दग्ध करे मन को
जो साँसें बचीं
उनको समेट लें
तय कर लें-
रिश्तों के मज़ार पे
फ़ातिहा पढ़ लेगें।

बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

905



1-ताँका
मंजूषा मन
1.
नेह के नाते
तुम्हें कैसे बताते
बीती थी क्या क्या
पीर गाथा सुनाते
क्यों संग में रुलाते?
2.
सारे के सारे
दर्द मिट ही जाते,
घावों के चिह्न
हरदम रुलाते 
बीता याद दिलाते।
-0-
2-सेदोका
सविता अग्रवाल 'सवि'
1
दूरियाँ हुईं
सहते गए हम
अकेले काटे दिन,
आदत बनी
एकांत लगा भाने
आहट भी ना कोई ।
2
कैसी दुविधा ?
ना है दिल को चैन
नींद आँखों से उड़ी,
हैं लंबी रातें
आँसू नेत्रों से झरे
टूटी सब आशाएँ
3
दूरी तुम्हारी
सूनी हुई बगिया
मुरझाये से फूल,
धरती सूखी
घास हुई  कँटीली
बादल गए रूठ ।
4
साथ था तेरा
पथ लगा सुगम
छूटा जबसे हाथ,
तम ही तम
ढूँढती उजियारा
पाई न सफ़लता ।   
-0-
सविता अग्रवाल 'सवि' कैनेडा 

सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

904-वेलेंटाइन डे


वेलेंटाइन डे
डॉ.पूर्वा शर्मा
बसंत के आते ही धरा प्रफुल्लित हो बगिया की तरह खिल उठी, चहुँ ओर सुगंधी हवा मदमस्त होकर बहते हुए इन दोनों की प्रीत की कथा कहने लगी । धरा अपने हरे लहँगे पर पीले-नारंगी फूलों वाली ओढ़नी धारण कर दुल्हन की तरह सज सँवरकर, अपने साजन बसंत के स्वागत में इठला रही ।  अपने प्रेम को जताते हुए भौंरे भी रंग-बिरंगे फूलों पर मँडरा कर अपना सुरीला नेह गान सुना रहे । एक ओर तरु के प्यार में पड़ी लता तरु के आलिंगन में मदहोश होती जा रही, तो दूसरी ओर बसंत के आगमन से ख़ुशी में पगली सरसों फूली नहीं समाई जा रही । बसंत की आने की खबर सुन कुछ कोमल नवपल्लव हौले से मुस्काते हुए बसंत को देखने की चाह में नंगी टहनियों से झाँकने लगे । प्रेमानुराग भरे वातावरण को देख आम पर भी बौर खिल उठे । इन आम की मंजरियों पर बैठ कोयल अपने प्रीत का स्वर सुनाती कहू-कुहू की मीठी तान में बसंत के आगमन एवं वैभव का गुणगान करते नहीं थकती । बसंत की छुवन से मौसम गरमाया और उसके नेह ने पहाड़ों की बर्फ़ को भी पिघलाया । प्रकृति की गहन प्रीत को देखकर वेलेंटाइन का मौसम आया और यूँ लगा जैसे प्रकृति ने जमकर वेलेंटाइन डे मनाया।
1
छुए बसंत
मना रही प्रकृति
वेलेंटाइन।
2
हल्दी है चढ़ी
दुल्हन-सी निखरी
बासंती धरा।


शनिवार, 15 फ़रवरी 2020

903-नेह के नाते


रामेश्वर काम्बोजहिमांशु
1
सिरा आए हैं
सब नेह के नाते,
मीठी वे बातें,
जो दिल में बसी थीं
निकलीं सिर्फ़ धोखा।
2
बरस बीते
पथ में मिल गए
अपने लगे,
कल जब वे छूटे
टूटे सपने लगे ।
3
पीर-सी जगी
सुधियाँ वे पुरानी
याद आ गईं,
साँझ रूठी आज की
झाँझ-सी बजा गई।
4
मिलना नहीं
अब किसी मोड़ पे
डर है हमें
तुम्हें पाने को बढ़ें
फिर हम सूली चढ़ें।
 -0-

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2020

902-सृजनात्मकता एवं गहन अनुभूति का गुणवत्तापूर्ण संग्रह


सृजनात्मकता एवं गहन अनुभूति का गुणवत्तापूर्ण संग्रह

रमेश कुमार सोनी
गीले आखर -  चोका संग्रह ,संपादक द्वय - रामेश्वर काम्बोज हिमांशु एवं डॉ भावना कुँअ ;प्रकाशक – अयन प्रकाशन,1/20, महरौली  नई दिल्ली-110030; संस्करण: 2019 , मूल्य  - ₹260    , पृष्ठ - 132
          चोका ,जापानी विधा की लंबी कविता है, जो 5, 7........के वर्णानुशासन में उच्च स्वर में गाई जाती है। इसकी कुल पंक्तियों का समापन विषम संख्या में होता है , इसकी लंबाई रचनाकार पर निर्भर करती है। चोका हिंदी साहित्य में एक नया नाम तो है लेकिन अजाना भी नहीं ; वर्तमान में इसके कई संग्रह बाजार में उपलब्ध है तथा इंटरनेट पर प्रचुर सामग्री भी उपलब्ध है। गीले आखर में कुल 21 में 20 महिला साहित्यकार हैं, जो इनके साहित्य अनुराग को इंगित करता है  - पुराने रचनाकारों के इस  साझा संग्रह में कुल 190 चोका संग्रहित हैं । 
           विशुद्ध प्रकृति वर्णन की कुशल रचयिता डॉ.सुधा गुप्ता के चोका में सावन झूले की सुंदर मोहक प्रस्तुति शीत में सूर्य को भ्रष्ट  अधिकारी बताना और धूप के राशनिंग का वर्णन सुंदर बन पड़ा हैबसंत, फूलों , भौरों और शीत के इर्द-गिर्द आँसुओं के डेरे पर समाप्त होती है तथा ग्रीन हाउस से  पीड़ित धरा  का प्राकृतिक उपचार पीले गुलाब का कोमल एहसास दे जाता है। आपके चोका में सृजनात्मकता एवं गहन अनुभूति का सुखद चर्मोत्कर्ष है जो आपके कठिन तपश्चर्या का परिणाम है-
सिंधारा-इंतज़ार 
शाखों के झूले 
चिड़ियाँ गातीं गीत 
 पिया रंगीले ...... । 

...... हुई घोषणा 
राशनिंग धूप की  
बन आयी है 
अफसरशाही की ! 
देर से खुले 
सूरज का दफ्तर 
बन्द हो जल्दी 
निष्ठुर अधिकारी 
एक ना सुने ....... ।
                 
              रामेश्वर काम्बोहिमांशु जो कोमल एवं  मृदु शब्दों के जादूगर हैं इनके  चोका शृंगार की रचनाओं से शुरू होकर  कँटीली डगर के नगर तक जाती है जहाँ  ख्वाबों के खुशबू की दुआओं से स्वप्न हरे हो जाते हैं  , शाम को तरसती प्यासी पाखी की व्यथा पानी बचाओ का संदेश देती है  ; शब्द बाण से बिंधे रिश्तो का  दरकना एवं  हँसी के पीछे का  छिपा दर्द कालकूट विष के स्वाद को श्मशान तक ले जाता है । यहाँ चन्दन मन का शिलालेख विराट प्रेम को अंकित कर सुनहले चाँदनी में गमक उठता है । समग्र जीवन के अंतर्द्वंद्वों को आपने अपने शिल्प सौदर्य से उकेरा है-
 तुम जो मिले 
ताप भरे दिन में 
धरा से नभ 
खिले सौ सौ बसंत 
कामना यही 
हो पूर्ण ये मिलन 
पलकें तन मन। (15) 

- धीरज नहीं खोना 
मन शांत हो  
सिर्फ फूल खिलाना 
दुआएँ  करें  
सुख की झोली भरे 
सब स्वप्न  हों हरे । (16) 

 ....... मिटेगा नहीं  
लिखा जो शिलालेख 
 सामान्य जैसे 
अधरों ने , करों ने । (31)
                   डॉ. भावना कुँ  की बचपन-सी   सुकोमल अल्हड़ता  लिए चोका  कागज वाली नाव चलाते हुए, पुराना ल्बम , सूना घर और परिंदों की मानिंद यादों को सहेजे  सहमी हिरनी -सी फुदक  रही है  । ये पंक्तियाँ  सुख-दुख और सुहाने दिनों को लिए हुए बेधड़क चोका लिखने दौड़ पड़ती है । आपकी रचनाओं में बचपन की यादें दर्द  ,रिश्ते और मन के राज लिए प्रकट हुए हैं । 
पकड़ो हाथ 
चलो तो मेरे साथ 
तुम्हें ले चलूँ  
बचपन के पास  ...... 

  मैं मजबूर हूँ  
  ही कलम 
अब न बिखरेगी  
 न ही टूटेगी  
बेधड़क होकर 
दौड़ेगी यह कलम ।
             कमला  निखुर्पा  के चोका  पहाड़ी नार जैसी  प्रेम की निशानी लिये माया की बोली बोलते हुए प्रकट हुई है।  वहीं  डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा के चोका में दर्द , दुख की आँधी  एवं प्रेम से चंदा  की बिंदी लगाए , हाथ पकड़े निकल चली है।  
             डॉ. कविता भट्ट  के चोका में प्रेमघन को मन का आमंत्रण भेजती हैजिसे वे प्रेमग्रंथ के पन्नों पर  उकेरती  हैं  जिसके  शाश्वत प्रेम के मुस्काते शब्द द्रष्टब्य है - 

अब  गठरी लिये
 स्वयं ही खोजें 
पेड़ की  छाँव  घनी 
और पीने को पानी । 
              इस चोका संग्रह में शशि पाधा जी का बचपन वर्णन , पूरे विश्वास के साथ प्रीत की परंपराओं की यादों को  सहेजे हुए हैं , वहीं प्रियंका गुप्ता जी ने मन का दर्द और भुट्टा जैसे जिंदगी कृष्णा वर्मा जी ने बावरी साँझ का पुष्पा मेहरा जी ने अपनी अनमोल दो भेटें मंजूषा मन जी ने बेबस गौरैया चुप है तथा सत्या शर्मा कीर्ति जी ने प्रभु  संगीत  के माध्यम से अपने चोका को समर्पित किया है । 
          डॉ. सुरंगमा यादव जी के सजल नैन से  पिया घर में  आँसू , मोती बन पड़े हैं यद्यपि  उपर्युक्त सभी  चोका  शिल्प की दृष्टि से कम पंक्ति वाला है, तथापि इनकी समझ काफी गहरी हैं तथा गूढ़  संदेश लिये हुए हैं ।
          सुदर्शन रत्नाकर जी ने नव विहान में रंगीली वसुंधरा का सुंदर वर्णन किया है जिसकी यादों को उन्होंने माँ  के साथ जोड़ा है और दिलों के रावण को खत्म करने का संदेश देती हैं - 
रंगों के मेले 
तितलियों के रेले 
इंद्रधनुषी 
रंगीली वसुंधरा 
रूप सजा निराला । (77)
       डॉजेन्नी शबनम जी ने अतीत के अनुभवों के पन्नों पर साँसों की लय को गूँथा  है ।ज्यादातर रचनाएँ जिंदगी के इर्द - गिर्द सिमटी हुई हैं  ।  भावना सक्सेना जी  के चोका जिंदगी के वक्त के आसपास बुनी हुई रचनाएं हैं इसमें - 
गीत प्यार के
 संगीत जीवन का
 सबको सिखा
 अपने घरौंदे में 
 धूप की डोरियों से 
 बुने नेह चादरें । ( 99) 
        ज्योत्स्ना प्रदीप जी के चोका में शुभ सौंदर्य दमकता है लेकिन अचानक वृक्ष के वध की चिंता करने लगती हैं –
काटो न पेड़ 
पार करो न हद  
जान लो तुम 
पादप तो संत हैं 
ये हैं , तो बसंत है ।
        अनिता ललित जी के चोका में जहाँ तमाशबीन मानव है वहीं  नवाबी बादल की बूंदें घुँघरू बन बरसती हैं । धूप की गुड़िया में प्रकृति का मासूम चेहरा स्पष्ट परिलक्षित होता है । अनिता मंडा जी के भोर के रंगों का आकर्षण पढ़ने को खींचता है
 रश्मि शर्मा जी की पीली चिट्ठियों में प्रेम आज भी जिंदा है - 
रहा नहीं हमसे 
कोई भी नाता 
मेरे पास रखी है 
मुड़ी-तुड़ी सी 
बिसराई उदास 
वो पीली पड़ी चिट्ठी । 
   मिले किनारे ( 2011) से चोका सृजन में  सृजनरत  डॉ. हरदीप कौर संधु जी के चोका समापन पृष्ठों की शान बढ़ाते हुए प्रस्तुत हुए हैं । इस दौर में युद्ध की विभीषिका और झंडाबरदारी की होड़ को उजागर करते चोका कह उठते हैं - .....शोर न करो .... । आपने सबसे अलग भारत के साम्प्रदायिक सद्भाव को जिंदा रखने चिड़िया -कबूतर के शीर्षक से  उम्दा चोका लिखा  है - 
 पंख- पंख को कर 
हरा , गुलाबी 
आज़ाद छोड़ देते 
खुले आकाश 
लगाकर अपने 
नाम की पर्ची 
ये है मेरी चिड़िया 
वो तेरा कबूतर ।
         इस चोका संग्रह की अपनी विशेषता यह है कि इसमें चोका की गुणवत्ता पर संपादक द्वय द्वारा विशेष ध्यान दिया गया है, यद्यपि सभी चोका इसमें एक से बढ़कर एक हैं : लेकिन सभी का उल्लेख कर पाना सम्भव नहीं  ।  इस संग्रह के चोका महज प्रकृति या जीवन की सम्वेदनाओं  का वर्णन नहीं है, बल्कि इसके भाव और विचार अद्भुत हैं ।  जापानी विधा की रचनाओं में चोका की लंबाई के साथ वर्णानुशासन बनाए रखना चोकाकार को अपनी  कसौटी पर पूरा कसती है । यह संग्रह उत्तम  सृजन हेतु  नव कलमकारों का मार्ग प्रशस्त करेगा , शोध की सामग्री बनेगा और पाठकों को अवश्य पसंद आएगा, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है । 
-0-रमेश कुमार सोनी (राज्यपाल पुरस्कृत व्याख्याता एवं साहित्यकार ) 
जे पी रोड , एच पी गैस के सामने - बसना , जिला - महासमुंद ( छत्तीसगढ़ )- 493554 
संपर्क - 7049355476


सोमवार, 10 फ़रवरी 2020

901-तेरी वो पाती


ज्योत्स्ना प्रदीप 
1
हथेली पर 
जब भी शूल  उगे 
खुद को छील लिया 
होंठों ने तेरे
चुग लिया प्यार से 
हर काँटा दर्दीला !
2
कुछ काँटें थे 
जो मन में चुभोए 
हम बहुत  रोये 
ग़म इतना 
जिसको दिया प्यार 
वो ही दे गया ख़ार !
3
तेरी वो पाती 
आज तक  सहेजी 
तुमने थी जो भेजी 
भरी आँखों से
अश्रु -धारा के साथ 
मलयानिल  हाथ !
-0-