हवा
गाती है (ताँका संकलन)
ज्योत्स्ना
प्रदीप
कृति:
हवा गाती है: सुदर्शन रत्नाकर (ताँका),पृष्ठ:
112,मूल्य: 220 रूपये,
।SBN:
978-93-88471-93-0,प्रथम संस्करण: 2020,प्रकाशक:
अयन प्रकाशन
1
/ 20, महरौली, नई दिल्ली-110 030
ताँका
एक जापानी विधा है । इसे 5-7-5-7-7अक्षरों के क्रम में लिखा जाता है । जापान में पहले ताँका ही लिखा
जाता था । परन्तु हाइकु की लघुता में छिपी गहनता ने लोगों को ताँका के मुकाबले ज़्यादा आकृष्ट किया, जबकि ताँका से ही हाइकु का जन्म हुआ है । कहना ग़लत न होगा कि हाइकु ने ताँका की कोख से जन्म लिया है । परन्तु कुछ समय से भारत में ताँका भी अपना वर्चस्व स्थापित करने में लगा है । अभी गत वर्षों में कई ताँका संकलन प्रकाशित हुए। सुदर्शन रत्नाकर जी का ताँका संग्रह 'हवा गाती है' मैंने पढ़ा । इसमे 379 ताँका हैं । इसे पढ़कर मैं प्रकृति के सौंदर्य में समाहित हुए बिना ना रह सकी! रत्नाकर जी प्रकृति सौंदर्य-रस प्रेमी हैं।आकाश, धरती, नदियाँ, सागर, पहाड़, झरने, पेड़-पौधे, फूल सभी से आकर्षित होती हैं ।
जाता था । परन्तु हाइकु की लघुता में छिपी गहनता ने लोगों को ताँका के मुकाबले ज़्यादा आकृष्ट किया, जबकि ताँका से ही हाइकु का जन्म हुआ है । कहना ग़लत न होगा कि हाइकु ने ताँका की कोख से जन्म लिया है । परन्तु कुछ समय से भारत में ताँका भी अपना वर्चस्व स्थापित करने में लगा है । अभी गत वर्षों में कई ताँका संकलन प्रकाशित हुए। सुदर्शन रत्नाकर जी का ताँका संग्रह 'हवा गाती है' मैंने पढ़ा । इसमे 379 ताँका हैं । इसे पढ़कर मैं प्रकृति के सौंदर्य में समाहित हुए बिना ना रह सकी! रत्नाकर जी प्रकृति सौंदर्य-रस प्रेमी हैं।आकाश, धरती, नदियाँ, सागर, पहाड़, झरने, पेड़-पौधे, फूल सभी से आकर्षित होती हैं ।
ताँका
संग्रह '
तीन खंडों में विभाजित है-1-आद्या प्रकृति,
2-जीवन पथ,3-विविधा
पहला
खंड आद्या प्रकृति-आद्या का अर्थ है-माँ आदि शक्ति । यह आदि शक्ति ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
में वास करती हैं । यह शक्ति ही प्रकृति के सौंदर्य में भी वास करती हैं ।यही
सौंदर्य हमें एक अनूठे जगत में ले जाकर परमानन्द की अनुभूति कराता है । ऐसी
अनुभूति उसे ही हो सकती है जो प्रकृति से जुड़ा हो इसके मोहक रूप से । सुदर्शन
रत्नाकर जी आह्लादित रहती हैं प्रकृति की मोहक सुंदरता देखकर । वह कहती हैं-
पत्तियों
पर / मोती-सी ओस-बूँदें / मोहती मन / सूरज सोख लेता / पर उसका तन।
इक
संगीत प्रेमी के समान रत्नाकर जी पक्षियों की सरसराहट में, हवाओं
में वाद्य यंत्रों की दिव्य-नाद सुनती हैं-
उड़ते
पक्षी / सरसर करती / चली हवाएँ / लयबद्ध
तानों ने / शहनाई बजाई ।
फूलों
का सौंदर्य कवयित्री के मन को सुवासित करता है । गुलमोहर, कनेर,
अमलतास, गुलाब, हरसिंगार,
मधुमालती, रजनीगंधा, चम्पा,
पलाश, सभी फ़ूलों की सुगंध निहित है इस खंड में
। फूलों के इस अनूठे जमघट में वह मानों अपने में ही कहीं खो गई हों । काव्यात्मक
शब्दों से गुंथें कुछ चमत्कृत ताँका-
झंकृत
हुए / मन वीणा के तार / सजी वीथिका / बही बरौली हवा / खिले फूल पलाश ।
खिल
रहे हैं / ग्रीष्म की आतप में / गुलमोहर / दहकते अंगार / धरा पर बिखरे ।
लता
झूमती / लद गई फूलों से / मधुमालती / दूध केसर रंग / दूध केसर रंग / लटकें ज्यों
झूमर ।
खिले गुलाब / आँखों का है उत्सव /
मनाओ तुम / अनुपम सौंदर्य / अँजुरी भर पीओ ।
प्रकृति
के इस मनमोहक पर्व को गर्व से मनाती हैं रत्नाकर जी, इस पर्व से आशा,
सुख उत्साह की वृद्धि होती है सौंदर्य में सन्देश निहित हो तो बात
ही क्या! रत्नाकर जी का ये प्यारा ताँका सुन्दर सन्देश देता है-
सूरज
से लो / ऊर्जा तप जाने की / खिले पलाश / प्रकृति का नियम / तपता, वह
खिलता ।
सत्य
और सुन्दर भाव में जो तपता है वही तो खिलता है ।विचारों को उत्पन्न करनेवाली
कल्पना-शक्ति मन की सृजनशक्ति ही है ।कल्पना-शक्ति में यथार्थ के ऋतुराज का छलकता
यह सौंदर्य बड़ा सुखकारी है-
किया
शृंगार / फूलों के आभूषण / पहनकर / सतरंगी लिबास / आ गया ऋतुराज ।
एक
ओर सौंदर्य को पाने का आनन्द है, तो दूसरी ओर उसे खो देने का दुख भी,
सुख जब आता है, तो हम उसकी क़द्र नहीं करते-
चाँद
आया था / उजियारा लेकर / मेरे आँगन / पर मैं सोती रही / बंद किए खिड़की ।
प्रकृति
सौंदर्य का अनन्त-कोष है । इस अनन्त-कोष से ही लिया इस ताँका का दैदीप्यमान रूप
देखिए-
बाँचते
रहे / रात भर चिट्ठियाँ / चाँद-सितारे / धरा ने भेजी थीं जो / आसमान के लिए ।
सौंदर्य
है तो सुख है,
जहाँ सुख है वहाँ आशाएँ भी तो सहज ही आ जाती हैं-आशा की नई किरनें
बिखेरते मनमोहक सजीव कुछ सजीव चित्र—
घबरा
मत / लहलहाते पत्ते / ठूँठ से बोले / हम तेरे साथ हैं / हाथ आगे तो बढ़ा ।
डूबता
सूर्य / दे गया है सन्देश / सोचना मत / अंत नहीं है जाना / लौट के आता दिन ।
छोड़
दिया है / पत्तों ने साथ तेरा / मत घबरा / सूखी टहनियों में / काँटें अभी शेष हैं ।
ताँका में लय का भी बड़ा महत्त्व है ।
लयप्रधान काव्यगुण से सम्पन्न ताँका—
लो
आ गई / चूनर ओढ़े रात / सितारों वाली / चंदा रहेगा साथ / होने तक प्रभात ।
मन में सजीव भाव चित्र बनाती ये
पंक्तियाँ पाठकों के मन को अलौकिक सुख प्रदान करती हैं—
श्वेत
बादल / बहती ज्यों नदियाँ / आसमान में / कितनी हैं अद्भुत / प्रकृति की निधियाँ ।
रुई
के फाहे / गिरते धरा पर / फैली ज्यों चाँदी / श्वेतांबरा वसुधा / हँसी खिलखिलाई ।
प्रथम खंड में प्रकृति का सौंदर्य
लगभग हर ताँका में देखने को मिलता है। जो पाठक को प्रकृति से जोड़कर मन को असीम सुख
प्रदान करता है ।
दूसरा खंड जीवन पथ-जीवन
पथ में रत्नाकर जी ने मानव में उथल-पुथल मचाने वाले भावों को बड़ी सरलता से समेटा
है-प्रेम-घृणा, सुख-दुख, क़सक, ईर्ष्या, द्वेष, शान्ति,
संतोष-असंतोष । प्रेम जीवन का सबसे सुन्दर भाग है । मानव जीवन प्रेम
के बिना अपूर्ण है । मगर प्रेम में कभी मन खिलता है तो कहीं छिलता भी है । ऐसे ही
भाव लिए दो ताँका-
तुम
ने छुआ / तन तरंगित हुआ / मन है खिला / भूली हुईं यादों का / काफ़िला है निकला ।
काली
घटाएँ / छा जाती चारों ओर / बिखरे बाल / नागिन बन डसें / प्रिय नहीं जो पास ।
माँ-पिता के प्रेम की धार को पाना
अमिय-पान करने जैसा है। माँ-पिता के स्नेह-सुधा-रस से सराबोर ये भाव भावुक कर देते
हैं पढ़ने वाले को-
माँ
की ममता / पिता का दुलार / कहाँ खो गए / अपनों की भीड़ में / क्यों अकेले हो गए?
धुआँसी
आँखें / काँपते हुए हाथ / झुकी कमर / जिह्वा पर आशीष / ऐसी माँ की तस्वीर ।
लेकिन कुछ रिश्ते कभी-कभी हृदय को
बहुत आहत करते हैं । अपनों से मिली चोट खाकर भी जीवन तो जीना ही है-
चोट
खाई है / ज़ख्मों को सिल लिया / राह दुर्गम / फिर भी मुस्काती हूँ / बस यही जीवन ।
रिश्ते-नातों पर लिखे सभी ताँका
मर्मान्तक पीड़ा का आभास कराते हैं । रत्नाकर जी के अनुसार रिश्ते बहुत नाज़ुक होते
हैं । इन्हें हर हाल में सहेजना चाहिए—
रिश्ते
होते हैं / तितली से नाज़ुक / ख़ूबसूरत / सम्भल कर छूना / न बिगड़ें, न
उड़ें ।
रिश्ते सभी प्यारे होते हैं पर एक
रिश्ता बहुत अनोखा है-बेटी का रिश्ता । आज वह हर घर की शोभा है-
छोड़ो
भी अब / बेटी नहीं है बोझ / शोभा घर की / महकता वह फूल / नहीं पाँव की धूल ।
बाँटते
रहो / खुशियों की सौगातें / वापिस आती / ढेरों खुशियाँ बन / जीवन महकाती ।
तभी वह भ्रूण हत्या जैसे पाप पर, आज
के समाज को फटकार भी लगाती हैं-
हो
रही आज / नज़रों के सामने / हत्याएँ आम / अजन्मी बेटियों की / चुप क्यों बैठे आप?
रत्नाकर जी प्रकृति को प्रेम करती
हैं । इसी प्रकृति में आनन्द है पर कभी-कभी एक पीड़ा उन्हें सताती है। आदि शक्ति-इस
जग के कण-कण में निहित है । ये ही शक्ति हमारे अतल-मन में भी निवास कर हैं । मगर
इस महामाया को पाना आसान नहीं । उसे खोज न पाने की पीड़ा का अहसास देखिए—
स्वयं
की खोज / ईश को पाने जैसा / भटक मत / सिर झुका के देख / भीतर वह बैठा ।
तुम
ही तो हो / मेरे हर श्वास में / धड़कन में / दोष मेरा ही तो है / खोज न पाऊँ
तुम्हें ।
हाथ
में आई / बस सीपियाँ मेरे / गई नहीं मैं / सागर में गहरे / बैठी रही किनारे ।
मगर विश्वास तो कभी नहीं खोती
रत्नाकर जी-
नहीं
दिखती / गर मंज़िल तुम्हें / मत घबरा / उठ, दीपक जला / मन में विश्वास
का ।
गिर
रहे हैं / सूखे पत्ते पेड़ से / मत घबरा / सृष्टि का नियम है / उगेंगे फिर पत्ते ।
नदी
की धारा / बहती है रहती,
/ नहीं रूकती / शिला से टकराती / फिर भी मुस्कुराती ।
तीसरा
खंड विविधा
जहाँ एक ओर कवयित्री को पर्यावरण, भ्रष्टाचार
और बढ़ते प्रदूषण की चिन्ता है वहीं मजदूर, गरीब बच्चों और
दीन-हीन लोगों की दुर्दशा पर उनका कलेजा फटता है इस खण्ड में । कुछ कोमल मन की गहन
वेदना के नायाब ताँका—
चारों
तरफ / बह रही हवाएँ / भ्रष्टाचार की / आओ मिल थाम लें / बह न जाएँ कहीं ।
सूखी
नदियाँ / रोएँ दोनों किनारे / पेड़ न कोई / गौरैया उदास है / नहीं गीत सुनाए ।
ज़रा
सुन रे / पहचान उनकी / नंगे बदन / फुटपाथ बिस्तर / ओढ़नी है अम्बर ।
तपती
धरा / गर्म हवा के झोंके / बहता स्वेद / झुलसते बदन / विवश मजदूर ।
ढूँढ
रहा / कचरे में सपने / भोर बेला में / वह नन्हा बालक / पढ़ने की वय में ।
अंत में इतना कहना चाहूँगी कि अपने
नाम के अनुरूप ही रत्नाकर जी ने प्रकृति में छिपे रत्नों को समेटा है
इस
ताँका संकलन में ।'हवा गाती है' एक ख़ूबसूरत संकलन है । प्रकृति-प्रेम
के साथ-साथ संवेदनात्मक, प्रतीकात्मक और मानव के जीवन की
पीड़ा के लयात्मक सुगंध लिए यह पुस्तक आपको भावों में समाहित किए बिना न रह पाएगी ।
यह मेरा विश्वास है! साहित्य के विशाल उपवन में ये 'हवा'
गाती रहेगी । चहुँओर सुंदर स्वर बिखेरती रहेगी । खिलाती रहेगी अनेक
हृदय-पुष्पों को । मंगल-शुभकामनों के साथ-
-0-ज्योत्स्ना प्रदीप,मकान नंबर 32 गली नंबर-9 गुलाब देवी रोड, न्यू
गुरुनानक नगर, जालंधर
पंजाब
14403
(फ़ोन-6284048117 ,jyotsanapardeep@gmai. Com)
5 टिप्पणियां:
सुंदर समीक्षा
संग्रह जितनी ही सुंदर समीक्षा भी। आप दोनों को बहुत बहुत बधाई।
सुन्दर समीक्षा...
सूखी नदियाँ / रोएँ दोनों किनारे / पेड़ न कोई / गौरैया उदास है / नहीं गीत सुनाए ।...प्रकृति की चिंता
गिर रहे हैं / सूखे पत्ते पेड़ से / मत घबरा / सृष्टि का नियम है / उगेंगे फिर पत्ते ।....सकारात्मक तांका
पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा हो गयी।
आदरणीया रचनाकार एवम समीक्षाकार को हार्दिक बधाइयां। पुस्तक से परिचय करवाने के लिए त्रिवेणी का आभार
सुंदर संग्रह लिये लेखिका श्रीमती रत्नाकर जी और समीक्षा के लिये ज्योत्स्ना जी को हार्दिक बधाई |
पुष्पा मेहरा
बहुत सुन्दर और सार्थक समीक्षा लिखी है | एक बेहतरीन संग्रह और उसकी प्यारी सी समीक्षा के लिए आप दोनों को ही बधाई ज्योत्स्ना जी और सुदर्शन जी...|
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