मंगलवार, 26 अक्तूबर 2021

997

 ताँका - सुशीला शील राणा

1.

उबार लेगा


डूबे-डूबे दिलों को

सँभाल लेगा

देव साथ तुम्हारा

हमें सँवार देगा

2.

मिलती रहीं

तारीख़ पे तारीख़

अदालतों में

होता रहा हलाल

गरीब का इंसाफ़

3.

न्याय की देवी

खोल दे काली पट्टी

अब तो रोक

न्याय के मंदिरों में

ये अन्याय का खेल

4.

धन-रसूख

खोलें रात-बेरात

कोर्ट के द्वार

कैसे देखे अँधेरा

अंधी न्याय की देवी

5.

कई वर्षों से

फाँक रही हैं धूल

दीन फाइलें

शायद खुले कभी

न्याय चक्षु से पट्टी

6.

नहीं दिखता

काले पे कोई दाग़

यही जानके

हो गए दाग़दार

कितने काले कोट 

7.

आज छज्जे पे

चहकी है ज़िंदगी

मुद्दतों बाद

खिल उठा एकांत

पाकर एक संगी।

8.

आशा की डोरी

तुम टूट न जाना

सोए ख़्वाबों ने

वक़्त के पालने में

ली हैं अँगड़ाइयाँ

9.

टूटी भी नहीं

बात बनी भी नहीं

भ्रम ने पाले

जलती सड़कों पे

कुछ भीगे सपने

 

10.

शीर्ष पे बैठी

नामचीन हस्तियाँ

खिसिया गईं

देख गर्व से तनी

अदना-सी सीढ़ियाँ

11.

दबती रही

चुप्पी के बोझ तले

कायर आत्मा

व्यवहारिक बुद्धि

जीत-जीत हारी है

12.

रोए ख़ामोश

सहके लाखों दर्द

बूढ़े माँ-बाप

ओढ़े रहे बरसों

कफ़न इज़्ज़त का

-0-

सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

996

  रश्मि विभा त्रिपाठी

1

खिली जुन्हाई


शरत्पूर्णिमा आई

विधु की अगुआई

करती विभा

सुधा- निधि जो पाई

झूमीनाचीहर्षाई ।

2

शरत् काल

सुधा- रस- वर्षा

चन्द्र- कृपा से हर्षा

मन- मराल

मिटाए अवसाद

अलौकिक 'प्रसाद

3

शरत्पूर्णिमा

जाह्नवी- सी जुन्हाई,

चन्दा ने आ बिछाई

प्रभा- आसनी

माँ शाम्भवी के अंक

खेलते लाला स्कंद ।

4

नभ से चन्द्र

अमृत बरसाएँ

निरखेंहरषाएँ

भव्य रास की

कान्हा लीला रचाएँ

मन्द- मन्द मुस्काएँ ।

5

मन- सिन्धु में

द्वेष का दलदल

धारा नहीं निर्मल

भाव विकल

कैसे हो परिमल

अलि! प्रेम- उत्पल ।

6

प्रेम निर्मल

होऊँ जो मैं विकल

सींचें वे आशा- जल

भाव- विह्वल

प्रिय से परिमल

मन- ब्रह्म- कमल ।

7

प्रफुल्ल प्रभा

तम ने मुँह फेरा

लाए शुभ सवेरा

प्रिय प्रणम्य

तप- त्याग तुम्हारा

मेरा भाग सँवारा ।

8

दूर देश से

सदा भेजें दुआएँ

मुकुलित आशाएँ

मन मुदित

श्वासें जब भी गाएँ

प्रिय झूमेंहर्षाएँ।

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2021

995

 1-ऋता शेखर 'मधु'

1
लगता सन्त


ये अतिथि
संत
सूनी वाटिका
हो गई सुरभित
हर्ष अपरिमित।
2
ओस की बूँदें
शतदल पर रुकीं
रुकी ही रहीं
सूरज सकुचाया
शुचिता मन भा

3
भोर सुहानी
खगवृंद चहके
पुष्प महके
जग गया संसार
हर्ष अपरम्पार।
4
कूकी कोयल
बच्चे भी दोहराएँ,
मधु मुस्कान
अधरों पर आई
कोयल दोहराई।

5

दूर क्षितिज

अवनि  व अम्बर

कभी न मिले

मिली एक भूमिका

मोह की यवनिका

6

निश्चित क्रम

भोर से साँझ तक

जग में मेला

सूर्य चले अकेला

चाँद संग सितारे

7

मन हो दीप्त

दिखा देता है राह

नन्हा- सा दीप

मन जो बुझा रहे

सूर्य काम न आए

8

साथी निष्ठुर

राह है अवरुद्ध

छाँट दो काँटे

जग से लड़ लेना

अहल्या न बनना

9

भोर-लालिमा

चहकी बुलबुल

जगा है जग

चल पड़े कदम

कार्य है हमदम

10

गुटरगूँ-गूँ

जुटी हैं सहेलियाँ

पुष्पित क्यारी

खुश रहें बेटियाँ

चहके जग सारा

11

खाई ठोकर

हटाया न पाथर

बेबुनियाद

शिक्षा से लाभ नहीं

दूजों से गिला कैसा

12

क्षमा का पाठ

पढ़ाने लगे सभी

खुद न पढ़ा

अनजानी ल्तियाँ

बन जाती है सज़ा।|

-0-

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

994

  1-सुदर्शन रत्नाकर

 भय

     भय, यानी डर।इसे तो देखा जा सकता है, ही छुआ जा सकता है। यह एक भावना है  और इसे बस प्रेम की तरह अनुभव किया जा सकता है।प्रेम किसी अच्छी वस्तु, व्यक्ति अथवा विचार के प्रति होता है लेकिन भय हमेशा बुरी वस्तु, व्यक्ति, भावना के कारण जन्म लेता है।भय वास्तव है कुछ नहीं है मन का वहम है यह, क्योंकि एक व्यक्ति को अंधेरे से भय लगता है लेकिन दूसरे को नहीं। शायद उसे अंधेरे में आनन्द आता होगा तभी वह ड़रता नहीं। किसी को ऊँचाई से डर लगता है, किसी को पानी से ,किसी को हवाईजहाज़ की यात्रा में भय लगता है। अकेले रहने में, भीड़ के साथ चलने में। जीवन में कुछ खो देने का डर, परीक्षा में असफलता का डर, प्रेम में बिछुड़ने का डर, मृत्यु का डर । बस डर - डर ,भय।हमारे अंतर्मन में पनपती एक भावना जो सदैव हमें क्षीण बनाती है, कुछ नया करने  का मार्ग अवरुद्ध करती है और हम इच्छा रहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते और फिर यही भय हमें अवसाद के गर्त में धकेल देता है। जहाँ से तनाव उत्पन्न होता है, जो हमारे तन-मन का विनाश करता है। यह एक ऐसी परिधि है, जिसके भीतर हम घूमते तो रहते हैं ; लेकिन बाहर निकलने की बात नहीं सोचते। बात मन की और सोच की है । इस मन को अपनी इच्छाशक्ति से पकड़ना है, सुदृढ़ बनाना है, सोच को बदलना है अर्थात् भावनाओं को नियन्त्रित करना है, जो हमें भय की ओर धकेलती हैं और हमारे सर्वनाश का कारण बनती हैं। कबूतर की तरह बिल्ली से बचने के लिए नादानी में आँखें बंद कर लेने से भय तो नहीं रहेगा परन्तु प्राण अवश्य चले जाएँगे।

 मन का भय

बाधक है बनता

रास्ता रोकता।

-0-

2-रश्मि विभा त्रिपाठी 

1

व्यथित मन 

व्यर्थ सारे जतन 

दुख- पीड़ा सघन 

प्रिय तुम्हारा 

आशा- गीत- गुंजन 

अहो ! अभिनन्दन ।

2

बसे हुए वे

भले दूर नगर 

रखते हैं खबर

मेरी आँखों में 

पीड़ा जो अँखुआई 

उन्हें नींद न आई ।

3

सर्वविदित

शौर्य अपरिमित

भीतर ही निहित

अवलंबन 

फिर किसके हित

'मन' तू अविजित ।

4

मुक्तामणि- सा

उज्ज्वल आशा- रत्न

प्रिय का एक यत्न

दुख- द्रावण 

जीतूँ जीवन- रण 

ले विजय का प्रण ।

5

उर उचाट

उनको ही पुकारूँ

जब- जब भी हारूँ 

प्राणप्रिय को

किस विधि बिसारूँ 

श्वास- संग उच्चारूँ । 

6

अन्तर्मन में

शौर्य अपरिमेय

मैं जो अपराजेय

एकल श्रेय

तुम्हारी मधु- वाणी

सदा शुभ कल्याणी ।

7

नहीं अपेक्षा

कोई बने सम्बल 

एकाकी हूँ सबल 

संग प्रिये का

आशीष अविरल

'हो जय अविचल'

8

नेह निर्मल

दे आशाएँ नवल 

जीवन कल- बल

दिव्य दीपिका

करे सदा प्रज्वल

मन- गेह उज्ज्वल।

9

प्रेम- रंजित

भाव- गुंजा पुष्पित

खुश्बू अपरिमित

प्रिय माली- से

करें सदा सिंचित

मन- प्राण हर्षित।

10

प्राण मुदित

प्रेम अपरिमित

मन में मुकुलित 

भाव ब्रह्म- सा

प्रिय को हो विदित

हूँ सुखी या व्यथित।

-0-