बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

1111

 भीकम सिंह 

 गाँव- 57

 गाँव का रिश्ता 

उसकी संस्कृतियाँ 

अर्थव्यवस्था 

और उसकी सारी 

अन्त:क्रियाएँ

छितराई हुई - सी 

खूब महके 

खेत खलिहानों में 

पगडण्डी पे 

उतरते चैत की

कच्ची अमराई- सी 

 गाँव  - 58

 

आड़ी - तिरछी 

गाँवों की गलियों में 

सवेरे आती 

शहरी पदचाप 

क्रूर निगाहें ,

देर तक फिरती 

गाहे-बगाहे 

संध्या करके जाती,

तेल की गंध 

बचे हुए खेतों से 

भागती हुई आतीं 

 गाँव  - 59

 

गाँवों के फाक़े 

स्वेद से लथपथ 

खेतों को ताके

मंडियों में सजता

काला बाज़ार 

सुबके  खलिहान

आँखों से कहे

गालों पर ढुलके ,

मिट्टी का चूल्हा 

चीखता रहता है 

कैसे बना फुल्के 

 गाँव- 60

 गाँव कहाँ थे

और वे जहाँ भी हैं

वहाँ क्यों आए

कहाँ हो सकते थे,

आखिर ऐसे 

किस तरह बने ,

घृणा-औ-प्रेम 

जब बराबर थे

तो भूख पे ही 

क्यों जमा कर बैठे 

ये , मालिकाना हक़ ।

 

गाँव  - 61

 

बीड़ी का टोंटा 

जेब में पड़ा हुआ 

माचिस ढूँढे 

अँगुलियों के बीच 

गाँव का ढोटा 

खलिहान में खड़ा 

छिपाता टोटा 

चारों ओर से घेरे 

सामंती सोटा 

अनवरत चले 

स्वामी का सिक्का खोटा ।

 

गाँव  - 62

 

पाँवों में बसी 

जो - जो पगडंडियाँ 

वो सभी धँसी ,

गाँव टीसता हुआ 

ज्यों दर्द हुआ 

विलुप्त अफवाहें 

सभी दिशा में 

फिर उड़ने लगी 

दुःख में दिखा 

फिर से हरखुआ 

शर्म में पीला हुआ 

 गाँव- 63

 

ओस की बूँद

दूब में छिपी हुई 

प्यार ज्यों  कोई ,

सूर्य की ऐय्याशी से 

अल-सुबह 

फूट -फूट के रोई 

आँसू में भीगी 

दूब की हरी शिरा 

धूल में खोई

देखती रही सब 

याद करती रब़ । 

-0-

शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

1110

 

1-कृष्णा वर्मा



1    

मन भावों की 

कमज़ोर कहानी 

लिये खड़े हैं 

नयन कोरों पे दो 

बोझिल मोती 

सपनों की दुनिया 

एतबार के 

अंधे रास्ते, स्वार्थ की 

तिरछी राहें 

फ़ितरत की हुई 

नींव खोखली

इकतरफा रही 

दुनियादारी 

दफ़न हुए ख़्वाब 

ठंडी चिंगारी 

मातमी सुर उल्टे 

जीवन कहीं नहीं। 

2

बिटिया होना 

कोई पाप होता

कोई शा

जीवन बगिया के 

भिन्न होते हैं 

बेटा-बेटी दो फूल 

बेटी बहार 

है घर का शृंगार

दोनों कुलों को 

करती है रोशन 

घर -आँगन 

महकाए बिटिया 

बेटों से नहीं 

कम ग्राफ़ उसका 

पढ़ लिखके 

कमाए नाम ज़्यादा 

न तोड़ो इन्हें 

न मरोड़ो इनको 

बेटों समान 

दिल के तराजू में 

तोलो सदा बेटियाँ। 

3

चलती रही 

बहती नदिया- सी 

वक़्त की धारा 

बचा अब अपना 

न कोई प्यारा 

हो गए जुदा 

आँगनों के गुलाब 

बची खिज़ाएँ 

औ तपती हवाएँ 

मन निमाना 

ढूँढे अपनापन 

अंतहीन-सा 

कैसा ये सिलसिला 

मुश्किलों ने आ 

जिनको बढ़ा दिया 

सरक रही 

ज़िंदगी चुप्पियों में 

सुलगे मन 

यादों में प्रतिपल 

घुटती साँसें 

पल-पल धड़कन 

खाए थपेड़े 

विषाद के भँवर 

उलझी जाए 

वेदना के स्वाद को 

जीभ पे धर 

काँपती हैं स्मृतियाँ 

औ सिसकता मन। 

4

ऊपर वाले

तुझे जान न पाए 

क्या सोचकर 

गढ़ी ये ज़िंदगानी 

आँखों में रंग 

दिल स्वप्न सजाए 

नादान बंदा 

कुछ जान न पाए 

प्रतिदिन ही 

ख़ुद को आज़माए 

आए दिन ही 

खुलें नए वरके 

कहीं पे दर्द 

कहीं लिख दी पीर 

मुश्किलों का 

किया खड़ा पर्वत 

थोड़ा-सा चढ़ूँ 

फिर लुड़क जाऊँ 

देके ज़िंदगी 

क्यों की तूने ठिठोली 

जाने जब तू 

ज़िंदगानी की नाव 

न टिके तेज़ पानी। 

 

-0-

2-भीकम सिंह 

 


गाँव  - 52

 

गाँव-गाँव में 

एक सूखा-सा कुआँ 

हरे खेत में 

लबालब रेत में 

नीचे दबाके 

पनीली - सी परतें 

कई साल से 

प्यासा ही पड़ा हुआ 

औ - खलिहान 

नलकूप के लिए 

जिद्द पे अड़ा हुआ 

 

गाँव  - 53

 

खेतों में उगा 

जब पहली बार 

नीम का पेड़ 

बेदखल हुए थे

अंकुर कुछ 

खेतों में दूर तक 

फैला था दुःख 

अब शाखा उसकी 

देती है सुख 

खलिहान में जड़ें

ढूँढती कुछ-कुछ 

 

गाँव- 54

 

खेतों की हवा 

उसकी हरियाली 

उड़ते पक्षी 

और एक सूरज 

गाँव लेकर 

खलिहान में बैठा 

वही ज्यों पता 

उस अते-पते पे

चाँद-चाँदनी

जुगनु और तारे 

रात में फेरा मारे 

 

गाँव  - 55

 

पैरों में पैरी 

धूसर - सी पत्तियाँ

हरा फुँदना 

सिर पर बाँधके 

दूल्हे के जैसा 

खड़ा खेत में गन्ना 

नीचे बैठी हैं

किसान औरतें यूँ 

ज्यों गा रही हों

वो हरियाला बन्ना

धिनक- धिनक -धा ।

 

गाँव  - 56

 

खड़ी खेत में 

झुकी- सी शरमा

पीली सरसों 

जैसे गौने में आई

नई नस्ल का 

वही खड़ा पास में 

हिम जी आई   *

कुछ- कुछ साँवला 

देवर- जैसा 

लगता हरजाई 

दूर करे तन्हाई   

 

* गेहूँ की एक किस्म