भीकम सिंह
उसकी संस्कृतियाँ
अर्थव्यवस्था
और उसकी सारी
अन्त:क्रियाएँ
छितराई हुई - सी
खूब महके
खेत खलिहानों में
पगडण्डी पे
उतरते चैत की
कच्ची अमराई- सी
।
आड़ी - तिरछी
गाँवों की गलियों में
सवेरे आती
शहरी पदचाप
क्रूर निगाहें ,
देर तक फिरती
गाहे-बगाहे
संध्या करके जाती,
तेल की गंध
बचे हुए खेतों से
भागती हुई आतीं
।
गाँवों के फाक़े
स्वेद से लथपथ
खेतों को ताके
मंडियों में सजता
काला बाज़ार
सुबके
खलिहान,
आँखों से कहे
गालों पर ढुलके ,
मिट्टी का चूल्हा
चीखता रहता है
कैसे बनाए फुल्के ।
और वे जहाँ भी हैं
वहाँ क्यों आए
कहाँ हो सकते थे,
आखिर ऐसे
किस तरह बने ,
घृणा-औ-प्रेम
जब बराबर थे
तो भूख पे ही
क्यों जमा कर बैठे
ये , मालिकाना हक़ ।
गाँव
- 61
बीड़ी का टोंटा
जेब में पड़ा हुआ
माचिस ढूँढे
अँगुलियों के बीच
गाँव का ढोटा
खलिहान में खड़ा
छिपाता टोटा
चारों ओर से घेरे
सामंती सोटा
अनवरत चले
स्वामी का सिक्का खोटा ।
गाँव
- 62
पाँवों में बसी
जो - जो पगडंडियाँ
वो सभी धँसी ,
गाँव टीसता हुआ
ज्यों दर्द हुआ
विलुप्त अफवाहें
सभी दिशा में
फिर उड़ने लगी
दुःख में दिखा
फिर से हरखुआ
शर्म में पीला हुआ
।
ओस की बूँद
दूब में छिपी हुई
प्यार ज्यों
कोई ,
सूर्य की ऐय्याशी से
अल-सुबह
फूट -फूट के रोई
आँसू में भीगी
दूब की हरी शिरा
धूल में खोई
देखती रही सब
याद करती रब़ ।
-0-
7 टिप्पणियां:
सूर्य की ऐय्याशी से फूट फूट रोई.. सर्वथा अभिनव कल्पना,सुंदर बिम्बो से सज्जित सभी चोका उत्कृष्ट।डॉ. भीकम सिंह जी को बधाई।
बहुत ही सुंदर
वाह। बहुत ही उत्कृष्ट चोका।
हार्दिक बधाई आदरणीय
सादर
लाजवाब चोका! बहुत सुंदर एवं भावपूर्ण!
~सादर
अनिता ललित
मेरे चोका प्रकाशित करने के लिए सम्पादक द्वय का हार्दिक धन्यवाद और मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए की टिप्पणियों के लिए आप सभी का हार्दिक आभार ।
आदरणीय आपकी लेखनी में जितनी सादगी उतनी गहनता, आनन्द आ जाता है पढ़कर! धन्यवाद।
बहुत सरल और सादगी भरा, लेकिन बहुत प्यारी...बहुत बधाई
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