शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

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 चोका- रश्मि विभा त्रिपाठी


चली गई थीं
मुझसे बिना मिले
सालों पहले
तबसे आज तक
हर राह पे
तुम्हारी तलाश में
भटककर
मेरे ये पाँव छिले
ये भी सच है
तुमने पुकारा था
आख़िरी वक़्त
बेचैन होकरके
मेरा ही नाम
वो आख़िरी सलाम
करना चाहा
तो भी न कराहा
किसी का दिल
सुना था सबने ही
मगर मुझे
ख़बर तक न दी
दूर देश में
मेरी दुनिया लुटी
रूह तड़पी
साँस सीने में घुटी
करूँगी गिला
मरते दम तक
उन बेदर्द
पत्थर दिलों से मैं
पर क्या कहूँ
उन कातिलों से मैं
तुम आस्माँ से
देख तो रही हो ना?
आज देख लो
वे ही कहते मुझे
धमकाकर
कि मेरा हक दिला
छोड़ गई हो
तुम अपने हिस्से
मायके में जो
मकान दोमंजिला
ओ मेरी जान!
तुम चुप रही हो
उमर भर
पीकरके जहर
उनका दिया
सारा जीवन जिया
बनके मीरा
शक्ल तुम्हारी काली
देखी सबने
तुम्हारा मन- हीरा
किसने देखा?
मुझे बताओ तुम
ससुराल में
किसी के प्यार ने क्या
सींचा पल को
तुम्हारा मन खिला?
चुभाते रहे
पल- पल काँटे ही
कभी तुम्हारे
उन जख़्मों को सिला?
कैसे तुम्हारी
आँतें बाहर आईं?
अल्सर था वो?
जिस- जिस सीने में
दिल था, वह
तुम्हें देखके हिला
बोलो सौंप दूँ
तुम्हारी ये दौलत
उन्हें, जिन्होंने
मार दिया तुमको
बेवक्त में ही
तुम्हें  दी थोड़ी भी
जीने की मोहलत!

 

7 टिप्‍पणियां:

भीकम सिंह ने कहा…

खूबसूरत चोका, हार्दिक शुभकामनाएँ ।

बेनामी ने कहा…

वाह बहुत सुंदर भाव पूर्ण चोका है हार्दिक बधाई। सविता अग्रवाल” सवि”

बेनामी ने कहा…

त्रिवेणी पर मेरे चोका को प्रकाशित करने के लिए आदरणीय सम्पादक द्वय का हृदय तल से आभार। 🙏

आदरणीय डॉ भीकम सिंह जी और आदरणीया सविता जी का हार्दिक आभारी हूँ

सादर

बेनामी ने कहा…

आप आत्मीयजन की टिप्पणी हमेशा मनोबल बढ़ाती है और मैं सृजन की एक नई ऊर्जा पाती हूँ।

आदरणीय भीकम सिंह जी के गाँव, खेत, खलिहान, पेड़ पौधे आदि प्रकृति व पर्यावरण सम्बन्धी सृजन हमेशा ही प्रभावित करता है।
ऐसा लगता है कि मानो मेरे बचपन का गाँव त्रिवेणी पर एक बार फिर से मेरी स्मृतियों की परिधि से बाहर निकलकर बस गया है,
जो अब भी बिल्कुल वैसा है, जैसा मेरे सपनों में आता है! बहुत सुन्दर, जिसे देखकर शहरों के अपार्टमेंट्स भी नहीं भाते।
हाँ! परिवर्तन की मार गाँव ने जरूर झेली है,
शहरी सभ्यता भी उससे थोड़ा- बहुत खेली है,
पर ये उतना भी बुरा नहीं लगता, जब सपनों में आता है
क्या करें?
शहर के थ्री बी एच के फ्लैट के जब दो हिस्से होते हैं
और अपने- अपने आँगन में खिंची एक दीवार के पीछे जब भाई- भाई अकेलेपन में सुबक- सुबककर रोते हैं
भले आपस में बोलचाल बंद है,
तो किसी का हक मारना किसे पसंद है?
पिता जी छोटे के नाम एक फुट जगह जो ज्यादा कर रहे हैं
तो बड़े ऐसे कौन- से पाप कर रहे हैं
वैसे
मेरे साथ ऐसा तो कोई मसला नहीं है
मगर भरोसा भी नहीं आजकल किसी की बहन या- भाई, कोई इतना भी भला नहीं,
तब गाँव की वही टूटी छत, वही छप्पर याद आता है
जहाँ पता था कि बारिश का पानी सावन में हर साल टपकता था
मगर तब बहुत खटकता था
तिरपाल के नीचे माँ रोटी बनाती थी
तीनों बच्चे एक साथ खाना खाते तो जरा थाली में पानी गिरता तो कोई इंद्र को कोसता,
कोई पीपल के पेड़ से हींग लगाता या थाली पटकता
पर कुछ फायदा था?
अब समझे!
जिन्दगी जीने का दरअसल वही सही कायदा था
जहाँ पता कि बाबू जी छड़ी बरोठे में खूँटी पर टँगी है
तो लालटेन की रौशनी के बिना अँधरे में भी ढूँढ लेते थे
कि कहाँ पर छड़ी है
अब तो दिन के उजाले में भी साफ नहीं दिखता कि माँ कौन से वृद्धाश्रम में कहाँ किस हाल में पड़ी है
बस ये सब और कुछ नहीं
नया खान- पान है
अब आँखों में इतनी कहाँ जान है?
आखिर नजर पैसे पे गढ़ी है
तो एक समय में एक ही तो वस्तु दिखाई देती है!
या शंकर जी से तीसरी आँख माँगें कि बाबा कम दिखाई देता है
तो शंकर जी कम हैं
नाम के भोले हैं
वैसे आग के गोले हैं
ताण्डव कर देंगे
कि तू कितना माँगता है?
आज आँख की जरूरत पड़ी! वैसे तो हर वक्त पैसा- पैसा- पैसा?
तू आदमी है कैसा?
इसीलिए
अब लगता है थोड़ी देर के लिए यादों में ही खो जाएँ
और उसी झोंपड़ी में जाकर कुल पल के लिए तो चैन से सो जाएँ,
जिस गाँव में तब घर कच्चे थे
और लोग सच्चे थे
क्या पता था
कि फिर कभी ये मंजर जवानी या बुढ़ापे में नहीं मिलेगा
क्योंकि तब हम नादान थे, बच्चे थे।

आशा है जल्द आपका संग्रह हम सबको पढ़ने को मिलेगा।

आदरणीया सविता जी का काव्य बहुत सुन्दर भाव- शिल्प की कसौटी पर कसा सदैव हृदयस्पर्शी होता है।
मेरे सृजन को बल देने के लिए आपका पुन: आभार

सादर

सादर

Sonneteer Anima Das ने कहा…

वाह्ह्ह!!! अत्यंत सुंदर भावपूर्ण चोका... रश्मि जी 🌹🙏😊

Krishna ने कहा…

बहुत सुंदर भावपूर्ण चोका... हार्दिक बधाई रश्मि जी।

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

रश्मि, तुम्हारा चोका मन झकझोर गया, क्या कहूँ