मन्नत के जो धागे
रश्मि विभा त्रिपाठी
मेरी खातिर
नित नेम से बाँधे
हर पहर
मन्नत के जो धागे
दुख सारे ही
दुम दबा के भागे
उन धागों में
मेरा सुख अकूत
पिरोके तूने
आँँसू से मन्त्रपूत
कर दिया है
चली टटोलने को
चिंता की नब्ज
छूकर मेरा माथा
एक पल में
धगड़कर गाँठ
धीरे से कसी
आँचल के छोर में
खुद-ब-खुद
खुल गईं बेड़ियाँ
उन्मुक्त उड़ी
साँझ या कि भोर में
आस का नभ
चूमूँ हो विभोर मैं
न कभी बही
हार की हिलोर में
कब सहमी
सन्नाटे के शोर में
मेरे सर से
'सेरा'
उसारकर
आधि- व्याधि को
फेंका उतारकर
मेरी अक्सीर
तेरे पोर- पोर में
जगाते भाग
माँ तेरे ये दो हाथ
दुआ से दिन- रात।
('सेरा'
अर्थात अनाज का वह थोड़ा भाग, जो माँ अपनी संतान की सलामती के लिए उसके सर के ऊपर सात बार घुमाकर अलग रख देती
है दान के हित।
-0-
11 टिप्पणियां:
मन्नत के धागे और सेरा का अच्छा प्रयोग-बधाई।
बहुत भावपूर्ण चोका लिखा है तुमने रश्मि...ढेरों बधाई
बेहतरीन भावपूर्ण चोका...बहुत-बहुत बधाई रश्मि जी।
सुंदर भावपूर्ण चोका
बधाई
बहुत सुंदर
ताँका प्रकाशन हेतु आदरणीय सम्पादक जी का हार्दिक आभार।
आप सभी आत्मीय जन की टिप्पणी की हृदय तल से आभारी हूँ।
सादर
बहुत सुन्दर, हार्दिक शुभकामनाएँ ।
भावपूर्ण सृजन, हार्दिक बधाई।-परमजीत कौर'रीत'
भावपूर्ण चोका, बधाई रश्मि विभा जी.
बहुत सुंदर चोका रश्मि जी!
एक टिप्पणी भेजें