ग्राम्य जीवन की संवेदनाओं का रंगमंच : ‘कुछ रंग’ चोका- संग्रह
डॉ.पूनम चौधरी
हिंदी कविता के इतिहास में जब भी किसी रचनाकार ने प्रचलित विधाओं की सीमाओं को पार करने का साहस किया है, तब तब साहित्य के नए द्वार खुले है। भीकम सिंह जी का कुछ रंग चोका संग्रह इसी साहसिक परंपरा का प्रतिफल है। यह संग्रह मात्र काव्य संकलन नहीं है, बल्कि हिंदी काव्य में एक नई विधा—‘चोका’—का प्रयोग और उसके माध्यम से जीवन-जगत के अनुभवों का संवेदनशील दस्तावेज़ है। ‘चोका’ वस्तुतः जापानी काव्य परंपरा की विधा से प्रेरित होकर विकसित हुआ, परंतु भीकम सिंहजी ने इसे हिंदी की कलेवर से जोड़कर कुछ रंग दे दिए और साथ ही लोक-संस्कृति और भारतीय जीवन-दर्शन से इसका रूपांतरण कर दिया। यह संग्रह इसलिए विशेष महत्त्वपूर्ण है कि यह न केवल विधा की दृष्टि से नवीन है, बल्कि भावनात्मक दृष्टि से अत्यंत परिपक्व और मार्मिक भी है।
कुछ रंग शीर्षक से
स्पष्ट हो जाता है के रचनाकार अपने जीवन के रंगों को साहित्य में बिखेर रहा है।
कवि की एक भावुक कोशिश आनंद पीड़ा संघर्ष स्मृति और आशा जैसे रंगों को शब्दबद्ध
करने की दृष्टिगत होती है। ये रंग केवल बाहरी जीवन के दृश्य नहीं हैं, बल्कि आत्मा की गहराइयों में अनुभव किए गए
सजीव बिंब हैं।
संग्रह का सबसे
बड़ा वैशिष्ट्य इसकी संवेदना है। भीकम सिंह जी की काव्य -दृष्टि का केंद्र ग्रामीण
जीवन है —वहाँ की प्रकृति, वहाँ के खेत-खलिहान, पशु-पक्षी, श्रम, संघर्ष और जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी संवेदनाएँ
। गाँव यहाँ केवल भौगोलिक इकाई नहीं है, बल्कि एक संपूर्ण सांस्कृतिक संरचना है
जिसमें श्रम की गरिमा, प्रकृति का आत्मीय सान्निध्य और सामूहिक जीवन की धड़कनें
सुनाई देती हैं। उदाहरण के लिए, जब कवि लिखते हैं—
अटका चाँद
गाँव के सिवानों पे
तारें छिटके
खेत- क्यारियों पर
झिलमिल से।
तो यह प्राकृतिक
छटा मात्र का चित्र नहीं है, बल्कि ग्रामीण जीवन की संतोष, आत्मीयता और उस आकाश से जुड़े रहने की
अनुभूति है जो दिनभर की कठिन मेहनत के बाद एकआवरण की तरह गाँव को ढक लेता है।
साँझ की
मेड़ों पर गाँव चल आए हैं। यहाँ रात के मौन में भी गाँव की थकान और जीवन
की लय उपस्थित है।
भीकम सिंह का
भाव-जगत् ग्राम्य जीवन के यथार्थ से
गहराई से जुड़ा है। जहां वे गाँव का सौंदर्य चित्रित करना
नहीं भूलते
खेत, मेंड, गलियारे,पगडंडिया, फसले इन सब का जीवंत और मनोहरी चित्रण एक सरल
और गाँव के प्रेम में डूबा मन ही कर सकता है इस कसौटी पर भीकम सिंह जी की कविता
खरी उतरती है।
खलिहान से
उठी ज्यों सौंधी
गंध
हवा ने खोले
पुरवाई के बंध
एक अन्य स्थान पर
बहुत ही सुंदर चित्र खींचते हुए कवि कभी कहता है -
पैरों में पैरी
धूसर सी पत्तियां
हरा फुँदना
सिर पर बाँधके
दूल्हे के जैसा
खड़ा खेत में गन्ना
सुंदर व्यंजनाओं और
विलक्षण उपमाओं के साथ कवि जिस तरह खेत की, खलियान की और फसलों का मानवीकरण करते हैं,वह अन्यत्र दुर्लभ है। इन कविताओं का दूसरा पक्ष भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कवि की
दृष्टि से गाँव का संघर्ष, उनकी समस्याएँ, उनकी जिजीविषा कहीं ओझल नहीं होती। वे अपने हर कविता में शृंगार के साथ संघर्ष को भी रचते हैं।
धीरे पसरी
सुबह दो तिहाई,
मौन सन्नाटा
जोड़ रहा दहाई,
छेड़ती हवा
खेतों का सूनापन
लेती जम्हाई,
मौन तोड़ता सूर्य
दिया दिखाई,
खेतों पर पहरा
जैसे हो विषपायी।
इसी तरह वे अपनी कविताओं में पूरी संवेदनशीलता के साथ
इन विषम स्थितियों को रचते हैं। गेहूँ के खेतों में खरपतवार का होना केवल कृषि का
दृश्य नहीं है, बल्कि यह जीवन की उन कठिनाइयों और अनपेक्षित दुखों का रूपक
है जो अनिवार्य रूप से सुखों के बीच उग आते हैं। और कभी स्वयं भी उनसे नहीं विलग
रह सकता, तभी वे
लिखते हैं-
यादें जगी हैं
मैं कैसे बच पाता
मेरा मन भी
विहग- सा बिखरा
आनंद फानन में।
इसी तरह सरसों की
पीली आभा और बसंती हवा आशा और पुनर्निर्माण का बिंब बन जाती है। यह आशा कृत्रिम
नहीं, बल्कि
यथार्थ से उपजी है।
दु:खों की तह,
सरसों सँभाले है।
कवि जानता है कि
दुख जीवन का हिस्सा है, परंतु उसके बीच भी सुख की सम्भावना नष्ट नहीं होती। यही
कारण है कि वे कहते हैं—
बसंती हवा उम्मीद
की तरह।
और घास भी
मस्तमौला बावली
है सुखों की वजह।
यहाँ हवा महज़ मौसम
का बोध नहीं कराती, बल्कि
मानवीय मनोविज्ञान की जिजीविषा का प्रतीक बन जाती है। उनकी कविता में आए वृक्ष और पौधे केवल
प्रकृति का हिस्सा नहीं है: बल्कि वे जीवंत प्रतीक है स्मृतियों के, संघर्षों के,जो धीरे-धीरे सामूहिक चेतना के प्रतीक बन
जाते हैं-
नीम के नीचे /
पुराने अचार की/ गंध जो आई…
या
मन तैरता रहा/ होकर रीता/सरसों के खेतों में,
देखता रहा/वक्रों से घिरा फीता।
कहीं वे लिखते है-
पानी की गंध/ ओढ़ के बरगद/
खड़ा उदास/ पास कही है प्यास।
और कहीं कांस का
चित्र खींचते है-
इधर-उधर जो /कांस खड़ा है
नदी के रेत पर /
यही हाथ पड़ा है।
यहाँ कांस एक
वनस्पति मात्र नहीं है, बल्कि जीवन की उस जिजीविषा का प्रतीक है, जो कठिन परिस्थितियों में भी अस्तित्व बनाए
रखता है। इसी
प्रकार खेत की जुताई, ठूँठों पर सुबह-सुबह का श्रम, और फसल की आशंका—ये सब मिलकर ग्राम्य जीवन की
आत्मकथा बुनते हैं और जब यह कवि के शब्दों में कविता का रूप ले लेती है तो इसकी
छटा अद्भुत हो जाती है-
गाँव का ठूँठ
सूखी-सूखी हँसी से
उल्लू के जैसा
फटी- फटी आँखों से
ताक रहा है
या वे चित्र खींचते
है-
हर गाँव में
पतझड़ का ठूँठ
निकलने को
पल्लव झिझकता
क्या करे खेत
गाँव ना समझता
पैरों के पास
पत्तियों की आवाज़
कहे पीड़ाएँ
मुँह को चिढ़ाती- सी
यह आत्मकथा किसी एक
व्यक्ति की नहीं, बल्कि
सामूहिक अनुभव की है, और यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। भीकम सिंहजी के काव्य का
भाव-पक्ष केवल सुख-दुख के वर्णन सीमित नहीं है, बल्कि उसमें एक गहरी संवेदनात्मक मार्मिकता
है। उनकी कविता में दुख पाठक के मर्म को छूता है करुणा की उत्पत्ति करता है किंतु
निराशा से उसका कोई संबंध नहीं है। उनका सौंदर्य चित्रण भी प्रकृति के प्रति
आत्मीयता पैदा करता है। सुख उल्लास पैदा करता है, परंतु आत्ममुग्धता को नहीं। यह संतुलन ही
उनकी संवेदनशीलता का प्रमाण है। जब वे लिखते हैं—
बीता बसंत
तो देह का मोह भी
कम हो गया
मन तैरता रहा
होकर रीता।
तो यहाँ देह और मन
दोनों की थकान का चित्र है। किंतु इसी थकान के भीतर भी सरसों के खेतों का दृश्य
आशा की झलक दिखा देता है। कवि का दृष्टिकोण यहाँ दार्शनिक हो जाता है—जीवन
क्षणभंगुर है, यौवन
बीत जाता है, किंतु
प्रकृति के चक्र में पुनः नयापन जन्म लेता है। यह चक्र ही जीवन का शाश्वत सत्य है।
तभी कवि लिख पाते हैं,
राह गाँव की
फिर भी है चलती
हरी घास में
उपेक्षाएँ पलती
जाने किस आस में
इस संग्रह में कई
स्थानों पर कवि का स्वर आत्ममंथन का भी है। खेतों की थकान, दुर्घटनाओं की आशंका, श्रम की कठिनाई—ये सब केवल बाहरी यथार्थ नहीं
हैं, बल्कि
कवि के भीतर भी एक बेचैनी उत्पन्न करते हैं। यह बेचैनी प्रश्न करती है कि क्या
श्रम का यह अंतहीन सिलसिला कभी थमेगा? क्या गाँव का जीवन कभी स्थायित्व और सुरक्षा
का अनुभव कर पाएगा?
घास के जैसी
खेतों की पीठ पर
उग रही है
मुद्रादायिनी जड़ें
हदें लाँघके
नागफनी- सी बढ़ी
रुकने को हैं
खेत की धड़कने
छल हो रहा
किससे क्या उम्मीद
गाँव-गाँव रो रहा।
इसी प्रश्नवाचकता
से उनकी कविता का स्वर और अधिक मार्मिक हो उठता है। इस मार्मिकता में पाठक केवल
दर्शक नहीं रहता, बल्कि
स्वयं उस अनुभव का सहभागी बन जाता है।
लाचारगी के
सुबह- शाम आँसू
गाँव में खूब
करवट लेते हैं
कभी दो-चार
कम तो कभी ज्यादा
सब दबा लेते हैं।
- जैसे-जैसे
संग्रह की कविताएँ आगे बढ़ती हैं पाठक का विश्वास कवि की संवेदना पर प्रबल होने
लगता है। कवि जीवन की छोटी-छोटी बातों को बड़े प्रतीकों में बदल देते हैं। घास, ओस, अँखुआना, बीज बोना—ये सब न केवल कृषि-प्रक्रियाएँ हैं, बल्कि मानवीय जीवन की गहरी संवेदनाओं का रूपक
हैं। उदाहरण के लिए, बीज
बोना केवल कृषि का कार्य नहीं, बल्कि भविष्य के निर्माण का प्रतीक है। खेतों
की ओट में बीज बोना और तूफानी पाँवों से उसका प्रसार करना इस बात का संकेत है कि
विपरीत परिस्थितियों में भी मनुष्य भविष्य की ओर आशा से देखता है।
भीकम सिंह जी का
काव्य-संसार केवल ग्रामीण जीवन के सौंदर्य और आत्मीयता तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें गाँव की समस्याओं का मार्मिक और
गहन उद्घाटन भी है। यदि एक ओर उनकी कविता खेतों की हरियाली, नदियों की कलकल ध्वनि और गाँव के सामूहिक
श्रम को जीवन का उत्सव बनाकर प्रस्तुत करती है, तो दूसरी ओर उसी जीवन के भीतर पनपती
विडंबनाओं, संघर्षों
और विसंगतियों का यथार्थ चित्रण करती है। कवि का यह दूसरा पक्ष विशेष रूप से
संवेदनात्मक, मार्मिक
और तार्किक है, जो
पाठक के अंतर्मन को गहराई से छू लेता है।
गाँव की सबसे बड़ी
समस्या है – शहरीकरण का बढ़ता हुआ प्रभाव। कवि ने जिस पीड़ा के साथ दिखाया है कि
गाँव अब अपने ही स्वाभाविक रूप से वंचित होता जा रहा है, वह अत्यंत हृदयग्राही है।
गाँव में थी
क्या कहीं कोई सड़क
पगडंडी थी,
सड़के जैसे आई
शहर आए
छठे और सातवें
पहर आए
रास्ते खुलते गए
दूध- घी गए
मैगी पिज्जा बर्गर
जैसे जहर आए।
गाँव की सहजता और
सरलता अब स्पर्धा की अंधी दौड़ में डगमगाने लगी है। वहाँ भी अब वही कृत्रिमता, वही बनावट और वही असंतोष पनप रहा है, जो शहर का स्थायी लक्षण है। कवि का आक्रोश और
दुःख यहाँ केवल गाँव के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए चेतावनी है – कि यदि
गाँव अपनी जड़ों से कटेगा तो संस्कृति और सभ्यता की जड़ें भी सूख जाएँगी।
खेतों के बाद
शुरू होगा बाजार
कहाँ जाएँगे
विस्थापित सियार
झींगुरों की आवाजें
बुलाती हुई
करेगी इंतजार
कभी कभार गाँव
कोर्ट में होंगे
तारीखों से बाहर
कविता का दूसरा
बड़ा प्रश्न है – खेती और मिट्टी का संकट। खेत अब पहले जैसे उर्वर नहीं रहे, क्योंकि रसायनों की मार से उनकी आत्मा निचुड़
चुकी है। कवि ने इस स्थिति को प्रतीकात्मक बिंबों में व्यक्त किया है – ‘मिट्टी में घुला रसायन’, उड़ती हुई रेत, थके खेत – ये केवल शब्द नहीं, बल्कि उस जीवन का सजीव दृश्य हैं, जो हज़ारों किसानों की हताशा और निराशा से
भरा हुआ है। यह पीड़ा अत्यंत संवेदनशील ढंग से व्यक्त होती है और पाठक के मन को
झकझोर देती है-
मिट्टी में घुला
रसायन देखके
सहमें खेत
जाने किस सोच में
पड़े हैं खेत
फसल- चक्र से भी
बचने लगे
थोड़ा- सा चलने पे
थकने लगे
कुछ दिनों से खेत
उड़ने लगी रेत
गाँव और शहर के
संबंध पर कवि की दृष्टि और भी मार्मिक है। वह कहता है कि शहर गाँव का रक्त चूसता
है, उसकी
ऊर्जा और श्रम को निचोड़ लेता है, किंतु बदले में उसे केवल उपेक्षा और अपमान
देता है। इस विडंबना का चित्रण करते हुए कवि केवल ग्रामीण जीवन का शोकगीत नहीं
गाता, बल्कि
वह यह भी संकेत करता है कि यह संबंध यदि इसी तरह चलता रहा, तो गाँव का ही नहीं, पूरे राष्ट्र का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा-
बात बे बात
ढूँढ रहा है गाँव
रास्ता देखकर
पूछ रहा है गाँव
अनगनित
साल बीत गए हैं
दगड़ों में ही
घूम रहा है गाँव
सीने में कोई
जंग छिड़ी हो जैसे
जूझ रहा है गाँव
भीकम सिंह जी ने
गाँव की सामाजिक समस्याओं का भी अत्यंत भावपूर्ण रूपांकन किया है। नशे की लत, युवाओं का दिशाहीन भटकाव, और सामूहिकता का क्षरण – ये सब विषय उनकी
कविताओं में गहरे भाव-स्पर्श के साथ आए हैं-
उगने लगे
खर पात खेतों में
बिला वजह
गाँव में ढूँढते हैं
अपने आसमाँ
सरकारी वजह
नशे में खड़ी
लहलहाती नस्ल
विशेषकर नशे की
समस्या को कवि केवल देह की दुर्बलता नहीं मानता, बल्कि इसे आत्मा की गिरावट के रूप में देखता
है। यह नशा केवल शराब या अन्य पदार्थों का ही नहीं, बल्कि भौतिक आकांक्षाओं और शहरी चकाचौंध का
भी है। इस दृष्टि से कवि की संवेदना केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि व्यापक सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई
है।
इस पूरे भाव-संसार
में करुणा का स्वर गहरा है, किंतु यह करुणा निष्क्रिय नहीं है। इसमें
आक्रोश भी है, प्रश्न
भी हैं और एक चेतावनी भी है। कवि के शब्दों में एक ऐसा तार्किक बल है जो पाठक को
यह सोचने के लिए विवश करता है कि ग्रामीण जीवन की समस्याओं की अनदेखी करना केवल
गाँव के साथ अन्याय नहीं है, बल्कि यह भविष्य के साथ भी विश्वासघात है।
कुछ रंग काव्य
संग्रह का संवेदना पक्ष जितना प्रबल है, कलात्मक दृष्टि से भी यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण
है। भीकम सिंहजी का चोका विधा को स्थापित करने का यह प्रयास उल्लेखनीय है। ‘चोका’
मूलतः जापानी काव्य-परंपरा की लंबी कविताओं की एक विधा है, जिसमें गेयता और संक्षिप्तता का अद्भुत
संतुलन होता है। कवि ने इस विधा को अपनी लोक-संस्कृति की भूमि पर उतारते हुए इसे
भारतीय जीवन की संवेदनाओं के अनुकूल रूप दिया है।
उनके चोका में
पंक्तियों की लय और प्रवाह विशेष महत्त्व रखते हैं। प्रत्येक पंक्ति में विचार और
भाव का घनत्व है, परंतु
भाषा सहज और लोक-जीवन से निकली हुई है। उदाहरण के लिए-
शाम झाड़के
खलिहान से उठा
कंधे पे रखा
संतोष का अँगोछा
यहाँ भाषा एकदम
बोलचाल की है, परंतु
उसमें जीवन की सच्चाई, श्रम की ऊर्जा और ग्रामीण जीवन की आत्मीयता समाहित है। यही
चोका की विशेषता है—सरल शब्दों में गहरी संवेदना।
शैल्पिक स्तर पर
प्रयुक्त बिम्ब योजना अत्यंत प्रभावशाली है। कवि ने गाँव के दृश्यों का इतना संजीव और
जीवंत चित्रण किया है की पाठक उन्हें पढता ही नहीं, बल्कि दृश्य की तरह घटित होते देखता है ।
खेत, ओस, खरपतवार, कांस, नीम, बसंती हवा—ये सभी बिंब ग्रामीण जीवन के
सूक्ष्मतम अनुभवों को मूर्त कर देते हैं। यही कारण है कि उनका चोका दृश्यात्मकता
के कारण एक अनोखा प्रभाव छोड़ता है। प्रभाव की दृष्टि से भी यह काव्य संग्रह
अत्यंत सफल है।
लंबी पंक्तियों के
बाद भी गेयता का गुण चोका को अत्यंत प्रभावकारी बनता है, यह गेयता पारंपरिक छंदों की कृत्रिमता से
नहीं, बल्कि
स्वाभाविक लय से आती है। यह लय श्रम की ताल से, जीवन की गति से और प्रकृति की धड़कन से उपजती
है। इसीलिए इन चोका को पढ़ना एक प्रकार का अनुभव बन जाता है।
भाषा की दृष्टि से
भी यह संग्रह विशेष महत्त्व रखता है, सहज़ सरल लोक जीवन की भाषा में जिस तरह कवि ने यह संसार रचा
है वह सीधा पाठक के हृदय को छूता है । भाषा न तो अत्यधिक अलंकारिक है, न ही कृत्रिम। वह ग्राम्य जीवन की सहजता से
निकली हुई है, किंतु
साथ ही उसमें साहित्यिक परिष्कार भी है। भीकम सिंह ने अपनी भाषा को अत्यंत सटीक
रखा है। वे क्लिष्ट और गूढ शब्दावली प्रयुक्त नहीं करते बल्कि साधारण शब्दों में
असाधारण अनुभव व्यक्त करते हैं। यही कारण है कि उनकी भाषा में एक ओर लोक की सजीवता
है, तो
दूसरी ओर काव्य की परिष्कृति।
निष्कर्ष रूप से कह
सकते हैं कुछ रंग हिंदी साहित्य में एक नई विधा का आरंभ है और एक संवेदनशील कवि की
परिपक्व अभिव्यक्ति का उदाहरण भी। भीकम सिंह ने इस संग्रह में न केवल चोका विधा को
प्रस्तुत किया है, बल्कि
उसे हिंदी के सांस्कृतिक संदर्भों में इस प्रकार ढाल दिया है कि वह आत्मसात् प्रतीत होती है। यह संग्रह भाव-पक्ष में
जितना मार्मिक है, शिल्प-पक्ष में उतना ही सुदृढ़ और परिपक्व है।
इस संग्रह की सबसे
बड़ी विशेषता यही है कि यह पाठक को केवल कविता पढ़ने का अवसर नहीं देता, बल्कि उसे जीवन की गहरी संवेदनाओं में सहभागी
बना देता है। गाँव के सुख-दुख, खेतों की थकान, श्रम की ऊर्जा, और भविष्य की आशा—ये सब मिलकर पाठक को ऐसा
अनुभव कराते हैं मानो वह स्वयं उस जीवन का हिस्सा हो। यही किसी भी महान साहित्य की
कसौटी है—पाठक को जीवन के अनुभव से जोड़ देना।
-0-कुछ
रंग (चोका -संग्रह ): भीकम
सिंह, प्रथम
संस्करण: 2025,
पृष्ठ:136,मूल्य:380रुपये, अयन प्रकाशन, जे-19/39,
उत्तम नगर, नई दिल्ली110059