रविवार, 26 अप्रैल 2020

911


रमेश कुमार सोनी , बसना
1
निजी स्कूलों में
शिक्षा– दीक्षा महँगे 
सब बेचते
क्रेता पंक्ति में खड़े
सपने खरीदने।
 2
सुख नेवला
दुःख सँपोला डरा
ड्योढ़ी से लौटा
वन , बागों में छिपा
डसने को ताकता।
3
आँसू सूखे हैं
ब्रिस्तान का पेड़
गिनती भूला
शवों को काँधा देते
कर्फ्यू क्यों लगता है ?
 4
ठूँठ खड़े हैं
इंसाके दर पे
कंक्रीट गाँव
तलाशते हैं छाँव
मौसम पिया रूठा।
 5
चाँद बेचारा
अमावस से डरे
सितारे भेजे
बच्चे सँभाले कौन ?
रात जल्दी बीतती।
6
सब खामोश
आँख, कान,  जुबान
गिला–शिकवा
उम्र की जेबें ख़ाली
पैसा बोलता रहा।
 7
किसान जाने
दाने का मोल सदा
लिखा किसने
खाने वालों के नाम ?
बोते ये , खाते कोई !!
8
शहर सारे
दौलतों के उजाले
गाँव सिसके
दुःख, क़र्ज़, अँधेरे
पुरखों-से तरसे।
 9
राजा की रानी
रोज वही कहानी
नानी सुनाती
थकके शाम लौटी
बच्चों संग सो जाती।
10
बेटियाँ भोली
कौन घर अपना
बूझ न पाती
एक घर से डोली चली
दूजे से अर्थी उठी।
 11
कुछ ना तय
जिंदगी की परीक्षा
पास या फेल ?
रटा–घोंटा बेकार
रोज ही आर–पार।
 12
संस्कृति रोती
सभ्यता-पाँव छाले
युगों को दोष ?
नव जागृति चाहे
हर भोर तुमसे।
13
प्यार जो रोया
उनींदा सिरहाना
मुश्किल जीना
दिल तुम्हारे पास
स्पंदन भेजा करो ...।
14
दोस्तों की दुआ
गुल्लकों में खनके
बड़ी पूँजी है
बुरे वक्त में दौड़े
दुनिया जब छोड़े।
 15
मील के पत्थर
मौसमों से न डरे
निडर योद्धा
राह बताते खड़े
यात्रियों से मित्रता।
 16
पुष्प-सुगन्ध
पतझड़ तरसे
बड़ा बेदर्दी
रुखा, सूखा-सा पिया
काँटों में दिल फँसा।
-0-
बसना [ छत्तीसगढ़ ] पिन – 493554  संपर्क - 7049355476

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

910


1-कृष्णा वर्मा
1
म्पट काल
झूठ का बोल-बाला
झूठ का सुर ताल
झूठ आयाम
झूठ का गुनगान
सत्य हुआ अनाम।
2
बेपरवाह
रहता अनगढ़
होता ख़ूबसूरत
सज्जित हुआ
घिरा दिखावे में औ
जीवन हुआ ध्वस्त।
3
ढलान पर
पग हों नियंत्रित
पथ चढ़ाइयों के
करें स्वागत
पार्थ बनना सीख
वक़्त के सारथी का।
3
कैसी भी पीर
अपनी या पराई
नहीं कोई अंतर
धूप-छाँव का
है जुदा विभाजन
सबकी ज़िंदगी का।
4
दुनिया है ये
साहिल न सहारा
ना ही कोई किनारा
हैं तन्हाइयाँ
मरी यहाँ रौनकें
केवल रुसवाइयाँ।
5
बाँटते रहे
समझ कर प्यार
ये खुशीयाँ उधार
लौटाया नहीं
जब तूने उधार
मरा दिल घाटे से।
6
बुनी चाहतें
पिरोते रहे ख़्वाब
तुम्हारी दुआओं में
होती शिद्दत
पाते प्रेम, रहती
ना ख़ाली फरियाद।
7
दोनों अदृश्य
प्रार्थना औ विश्वास
अजब अहसास
असंभव को
संभव करने की
क्षमता बेहिसाब।
8
पीड़ा क्या हास
कटा करवटों में
उम्र का बनवास
नित आँसुओं
ने लिखा चेहरे पे
नूतन इतिहास।
9
फुर्सत मिले
तो पढ़ लेना कभी
पानी की तहरीरें
हज़ारों साल
पुराने अफ़साने
हैं हर दरिया के।
-0-
नवलेखन
प्रकृति दोशी
1
जाने दो घर

कोरोना से नहीं तो
मर जाएँगे
भूख से ही वरना
होगा दोष किस का?
2
पैसा नहीं है
खाना कैसे खिलाऊँ
अब बच्चों को
छीन लिया मुझसे
कोरोना ने वेतन।
3
घर में ही हैं
घर में रहेंगें हम
लॉक डाउन
का पालन करेंगे
बचे रहेंगे हम।
-0-

रविवार, 5 अप्रैल 2020

909-दीपक



अनिता ललित
1.
दीप जलाएँ
एकजुट होकर
तम भगाएँ
हम भारतवासी
एकमत हो जाएँ!
2.
दीप जलेंगे
जब हर घर में
गूँजेंगे मंत्र
शुभ होगी प्रार्थना
शुद्ध वातावरण!
-0-

मंगलवार, 10 मार्च 2020

908


रमेश कुमार सोनी , बसना 
कोई ना बचे 
फागुन रंगरेज़ 
रंग बरसे 
पिया गली में भीगा 
मन नशीला हुआ । 
रंगों में हँसी 
इन्द्रधनुष दिखा
चौंधया गया 
रंग डालना भूला 
त् बोलकर भागी ।
होली का हल्ला 
ढूँढे सखी की टोली 
लिये नगाड़े 
श्याम कौन रंगेगा
चढ़ा ना रंग दूजा ।
पहचाना क्या
रंगी-पुती है काया 
पिया जी चीन्हे 
प्रीत का रंग पक्का 
बची ना  फगुनवा ।
-0-

शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

907



हवा गाती है (ताँका संकलन)
ज्योत्स्ना प्रदीप
कृति: हवा गाती है: सुदर्शन रत्नाकर (ताँका),पृष्ठ: 112,मूल्य: 220 रूपये,
SBN: 978-93-88471-93-0,प्रथम संस्करण: 2020,प्रकाशक: अयन प्रकाशन
1 / 20, महरौली, नई दिल्ली-110 030
ताँका एक जापानी विधा है । इसे 5-7-5-7-7अक्षरों के क्रम में लिखा जाता है । जापान में पहले ताँका ही लिखा
जाता था । परन्तु हाइकु की लघुता में छिपी गहनता ने लोगों को ताँका के मुकाबले ज़्यादा आकृष्ट किया, जबकि ताँका से ही हाइकु का जन्म हुआ है । कहना ग़लत न होगा कि हाइकु ने ताँका की कोख से जन्म लिया है । परन्तु कुछ समय से भारत में ताँका भी अपना वर्चस्व स्थापित करने में लगा है । अभी गत वर्षों में कई ताँका संकलन प्रकाशित हुए। सुदर्शन रत्नाकर जी का ताँका संग्रह 'हवा गाती है' मैंने पढ़ा । इसमे 379 ताँका हैं । इसे पढ़कर मैं प्रकृति के सौंदर्य में समाहित हुए बिना ना रह सकी! रत्नाकर जी प्रकृति सौंदर्य-रस प्रेमी हैं।आकाश, धरती, नदियाँ, सागर, पहाड़, झरने, पेड़-पौधे, फूल सभी से आकर्षित होती हैं ।
ताँका संग्रह ' तीन खंडों में विभाजित है-1-आद्या प्रकृति, 2-जीवन पथ,3-विविधा
पहला खंड आद्या प्रकृति-आद्या का अर्थ है-माँ आदि शक्ति । यह आदि शक्ति ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में वास करती हैं । यह शक्ति ही प्रकृति के सौंदर्य में भी वास करती हैं ।यही सौंदर्य हमें एक अनूठे जगत में ले जाकर परमानन्द की अनुभूति कराता है । ऐसी अनुभूति उसे ही हो सकती है जो प्रकृति से जुड़ा हो इसके मोहक रूप से । सुदर्शन रत्नाकर जी आह्लादित रहती हैं प्रकृति की मोहक सुंदरता देखकर । वह कहती हैं-
पत्तियों पर / मोती-सी ओस-बूँदें / मोहती मन / सूरज सोख लेता / पर उसका तन।
इक संगीत प्रेमी के समान रत्नाकर जी पक्षियों की सरसराहट में, हवाओं में वाद्य यंत्रों की दिव्य-नाद सुनती हैं-
उड़ते पक्षी / सरसर करती /  चली हवाएँ / लयबद्ध तानों ने  / शहनाई बजाई ।
फूलों का सौंदर्य कवयित्री के मन को सुवासित करता है । गुलमोहर, कनेर, अमलतास, गुलाब, हरसिंगार, मधुमालती, रजनीगंधा, चम्पा, पलाश, सभी फ़ूलों की सुगंध निहित है इस खंड में । फूलों के इस अनूठे जमघट में वह मानों अपने में ही कहीं खो गई हों । काव्यात्मक शब्दों से गुंथें कुछ चमत्कृत ताँका-
झंकृत हुए / मन वीणा के तार / सजी वीथिका / बही बरौली हवा / खिले फूल पलाश ।
खिल रहे हैं / ग्रीष्म की आतप में / गुलमोहर / दहकते अंगार / धरा पर बिखरे ।
लता झूमती / लद गई फूलों से / मधुमालती / दूध केसर रंग / दूध केसर रंग / लटकें ज्यों झूमर ।
खिले गुलाब / आँखों का है उत्सव / मनाओ तुम / अनुपम सौंदर्य / अँजुरी भर पीओ ।
प्रकृति के इस मनमोहक पर्व को गर्व से मनाती हैं रत्नाकर जी, इस पर्व से आशा, सुख उत्साह की वृद्धि होती है सौंदर्य में सन्देश निहित हो तो बात ही क्या! रत्नाकर जी का ये प्यारा ताँका सुन्दर सन्देश देता है-
सूरज से लो / ऊर्जा तप जाने की / खिले पलाश / प्रकृति का नियम / तपता, वह खिलता ।
सत्य और सुन्दर भाव में जो तपता है वही तो खिलता है ।विचारों को उत्पन्न करनेवाली कल्पना-शक्ति मन की सृजनशक्ति ही है ।कल्पना-शक्ति में यथार्थ के ऋतुराज का छलकता यह सौंदर्य बड़ा सुखकारी है-
किया शृंगार / फूलों के आभूषण / पहनकर / सतरंगी लिबास / आ गया ऋतुराज ।
एक ओर सौंदर्य को पाने का आनन्द है, तो दूसरी ओर उसे खो देने का दुख भी, सुख जब आता है, तो हम उसकी क़द्र नहीं करते-
चाँद आया था / उजियारा लेकर / मेरे आँगन / पर मैं सोती रही / बंद किए खिड़की ।
प्रकृति सौंदर्य का अनन्त-कोष है । इस अनन्त-कोष से ही लिया इस ताँका का दैदीप्यमान रूप देखिए-
बाँचते रहे / रात भर चिट्ठियाँ / चाँद-सितारे / धरा ने भेजी थीं जो / आसमान के लिए ।
सौंदर्य है तो सुख है, जहाँ सुख है वहाँ आशाएँ भी तो सहज ही आ जाती हैं-आशा की नई किरनें बिखेरते मनमोहक सजीव कुछ सजीव चित्र—
घबरा मत / लहलहाते पत्ते / ठूँठ से बोले / हम तेरे साथ हैं / हाथ आगे तो बढ़ा ।
डूबता सूर्य / दे गया है सन्देश / सोचना मत / अंत नहीं है जाना / लौट के आता दिन ।
छोड़ दिया है / पत्तों ने साथ तेरा / मत घबरा / सूखी टहनियों में / काँटें अभी शेष हैं ।
ताँका में लय का भी बड़ा महत्त्व है । लयप्रधान काव्यगुण से सम्पन्न ताँका—
लो आ गई / चूनर ओढ़े रात / सितारों वाली / चंदा रहेगा साथ / होने तक प्रभात ।
मन में सजीव भाव चित्र बनाती ये पंक्तियाँ पाठकों के मन को अलौकिक सुख प्रदान करती हैं—
श्वेत बादल / बहती ज्यों नदियाँ / आसमान में / कितनी हैं अद्भुत / प्रकृति की निधियाँ ।
रुई के फाहे / गिरते धरा पर / फैली ज्यों चाँदी / श्वेतांबरा वसुधा / हँसी खिलखिलाई ।
प्रथम खंड में प्रकृति का सौंदर्य लगभग हर ताँका में देखने को मिलता है। जो पाठक को प्रकृति से जोड़कर मन को असीम सुख प्रदान करता है ।
दूसरा खंड जीवन पथ-जीवन पथ में रत्नाकर जी ने मानव में उथल-पुथल मचाने वाले भावों को बड़ी सरलता से समेटा है-प्रेम-घृणा, सुख-दुख, क़सक, ईर्ष्या, द्वेष, शान्ति, संतोष-असंतोष । प्रेम जीवन का सबसे सुन्दर भाग है । मानव जीवन प्रेम के बिना अपूर्ण है । मगर प्रेम में कभी मन खिलता है तो कहीं छिलता भी है । ऐसे ही भाव लिए दो ताँका-
तुम ने छुआ / तन तरंगित हुआ / मन है खिला / भूली हुईं यादों का / काफ़िला है निकला ।
काली घटाएँ / छा जाती चारों ओर / बिखरे बाल / नागिन बन डसें / प्रिय नहीं जो पास ।
माँ-पिता के प्रेम की धार को पाना अमिय-पान करने जैसा है। माँ-पिता के स्नेह-सुधा-रस से सराबोर ये भाव भावुक कर देते हैं पढ़ने वाले को-
माँ की ममता / पिता का दुलार / कहाँ खो गए / अपनों की भीड़ में / क्यों अकेले हो गए?
धुआँसी आँखें / काँपते हुए हाथ / झुकी कमर / जिह्वा पर आशीष / ऐसी माँ की तस्वीर ।
लेकिन कुछ रिश्ते कभी-कभी हृदय को बहुत आहत करते हैं । अपनों से मिली चोट खाकर भी जीवन तो जीना ही है-
चोट खाई है / ज़ख्मों को सिल लिया / राह दुर्गम / फिर भी मुस्काती हूँ / बस यही जीवन ।
रिश्ते-नातों पर लिखे सभी ताँका मर्मान्तक पीड़ा का आभास कराते हैं । रत्नाकर जी के अनुसार रिश्ते बहुत नाज़ुक होते हैं । इन्हें हर हाल में सहेजना चाहिए—
रिश्ते होते हैं / तितली से नाज़ुक / ख़ूबसूरत / सम्भल कर छूना / न बिगड़ें, न उड़ें ।
रिश्ते सभी प्यारे होते हैं पर एक रिश्ता बहुत अनोखा है-बेटी का रिश्ता । आज वह हर घर की शोभा है-
छोड़ो भी अब / बेटी नहीं है बोझ / शोभा घर की / महकता वह फूल / नहीं पाँव की धूल ।
बाँटते रहो / खुशियों की सौगातें / वापिस आती / ढेरों खुशियाँ बन / जीवन महकाती ।
तभी वह भ्रूण हत्या जैसे पाप पर, आज के समाज को फटकार भी लगाती हैं-
हो रही आज / नज़रों के सामने / हत्याएँ आम / अजन्मी बेटियों की / चुप क्यों बैठे आप?
रत्नाकर जी प्रकृति को प्रेम करती हैं । इसी प्रकृति में आनन्द है पर कभी-कभी एक पीड़ा उन्हें सताती है। आदि शक्ति-इस जग के कण-कण में निहित है । ये ही शक्ति हमारे अतल-मन में भी निवास कर हैं । मगर इस महामाया को पाना आसान नहीं । उसे खोज न पाने की पीड़ा का अहसास देखिए—
स्वयं की खोज / ईश को पाने जैसा / भटक मत / सिर झुका के देख / भीतर वह बैठा ।
तुम ही तो हो / मेरे हर श्वास में / धड़कन में / दोष मेरा ही तो है / खोज न पाऊँ तुम्हें ।
हाथ में आई / बस सीपियाँ मेरे / गई नहीं मैं / सागर में गहरे / बैठी रही किनारे ।
मगर विश्वास तो कभी नहीं खोती रत्नाकर जी-
नहीं दिखती / गर मंज़िल तुम्हें / मत घबरा / उठ, दीपक जला / मन में विश्वास का ।
गिर रहे हैं / सूखे पत्ते पेड़ से / मत घबरा / सृष्टि का नियम है / उगेंगे फिर पत्ते ।
नदी की धारा / बहती है रहती, / नहीं रूकती / शिला से टकराती / फिर भी मुस्कुराती ।
तीसरा खंड विविधा
जहाँ एक ओर कवयित्री को पर्यावरण, भ्रष्टाचार और बढ़ते प्रदूषण की चिन्ता है वहीं मजदूर, गरीब बच्चों और दीन-हीन लोगों की दुर्दशा पर उनका कलेजा फटता है इस खण्ड में । कुछ कोमल मन की गहन वेदना के नायाब ताँका—

चारों तरफ / बह रही हवाएँ / भ्रष्टाचार की / आओ मिल थाम लें / बह न जाएँ कहीं ।
सूखी नदियाँ / रोएँ दोनों किनारे / पेड़ न कोई / गौरैया उदास है / नहीं गीत सुनाए ।
ज़रा सुन रे / पहचान उनकी / नंगे बदन / फुटपाथ बिस्तर / ओढ़नी है अम्बर ।
तपती धरा / गर्म हवा के झोंके / बहता स्वेद / झुलसते बदन / विवश मजदूर ।
ढूँढ रहा / कचरे में सपने / भोर बेला में / वह नन्हा बालक / पढ़ने की वय में ।
अंत में इतना कहना चाहूँगी कि अपने नाम के अनुरूप ही रत्नाकर जी ने प्रकृति में छिपे रत्नों को समेटा है
इस ताँका संकलन में ।'हवा गाती है' एक ख़ूबसूरत संकलन है । प्रकृति-प्रेम के साथ-साथ संवेदनात्मक, प्रतीकात्मक और मानव के जीवन की पीड़ा के लयात्मक सुगंध लिए यह पुस्तक आपको भावों में समाहित किए बिना न रह पाएगी । यह मेरा विश्वास है! साहित्य के विशाल उपवन में ये 'हवा' गाती रहेगी । चहुँओर सुंदर स्वर बिखेरती रहेगी । खिलाती रहेगी अनेक हृदय-पुष्पों को । मंगल-शुभकामनों के साथ-
-0-ज्योत्स्ना प्रदीप,मकान नंबर 32 गली नंबर-9 गुलाब देवी रोड, न्यू गुरुनानक नगर, जालंधर
पंजाब 14403 (फ़ोन-6284048117 ,jyotsanapardeep@gmai. Com)

सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

906-रिश्ते वे सारे


रिश्ते वे सारे
रामेश्वर काम्बोजहिमांशु

रिश्ते वे सारे
आओ करें तर्पण
बीच धार में
जो चुभते ही रहे
उम्रभर यों,
जैसे जूते में गड़ी
कील चुभती
रह-रह करके
जीवन भर
टीस ही देते रहे
वे क्रूर रिश्ते,
जो लेना ही जानते
कुछ न देते
उलीच लेते साँसें
निष्ठुर लोग
सब कुछ ले लेते
जब देना हो,
चुभती कील जैसे
दर्द ही देते
कर्त्तव्य की वेदिका
शीश लेकर
कभी तृप्त न होती
रक्त-पिपासु 
सिर्फ़ प्राण माँगते
क्रूर वचन
क्रूस पर टाँगते
विष उगाते
अमृत कैसे बाँटें
जिह्वा की नोक
विष-बुझी छुरी-सी
आत्मा को चीरे
दग्ध करे मन को
जो साँसें बचीं
उनको समेट लें
तय कर लें-
रिश्तों के मज़ार पे
फ़ातिहा पढ़ लेगें।