शनिवार, 12 नवंबर 2022

1088- यह अकेलापन

रश्मि विभा त्रिपाठी

 


 
कभी तो आओ

मनमीत यों तुम

मुझपे छाओ 

जैसे कि छा जाता है

धरती पर 

प्रेमासक्त गगन

बाहों में भर

उसका तपा तन 

हो बेसबर 

सीने में छिपाता है

सारा का सारा

ताप पिघलाता है

तब जाकर

शीतलता पाता है

धरा का मन

यह अकेलापन 

सच मानो तो

आग के जैसा ही है

तुम आकर

विरह को बुझाओ

बरस जाए

ज्यों सावन में घन

और मिटाए

हर एक जलन

है निवेदन

तुम भी यों ही करो

बरस जाओ

बुझ चले विषाद

बचे तो बस

प्रेम की ही अगन

जिसमें फिर

कुंदन का- सा बन 

निखर जाए 

मेरा रंग औ रूप

मुझको मिले 

केवल औ केवल

सिर्फ तुम्हारी 

गुनगुनी, गुलाबी

नेह की धूप

भोर से साँझ तक

जो मुझे सहलाए।

--0--

5 टिप्‍पणियां:

Anita Lalit (अनिता ललित ) ने कहा…

सुंदर प्रेममय चोका! बहुत बधाई प्रिय रश्मि!

सस्नेह
अनिता ललित

भीकम सिंह ने कहा…

बहुत खूबसूरत चोका, हार्दिक शुभकामनाएँ ।

Rashmi Vibha Tripathi ने कहा…

चोका प्रकाशन के लिए आदरणीय सम्पादक द्वय का हार्दिक आभार।

आदरणीया अनिता दीदी एवं आदरणीय भीकम सिंह जी की टिप्पणी की हृदय तल से आभारी हूँ।

सादर।

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

इस मनभावन प्रेमपूर्ण चोका के लिए बहुत बहुत बधाई

प्रीति अग्रवाल ने कहा…

अति सुंदर!!