मंगलवार, 26 अगस्त 2025

1217

 

डॉसुरंगमा यादव


1

 बातों से बात बने

 बात नहीं होगी

 कैसे फिर बात बने?

2

शिकवा क्या करना है

नौका पास नहीं

 तिनका ले तरना है।

3

 बेटी ने जन्म लिया

 घोर उदासी ने

 स्वागत था खूब किया।

4

 सूरज भी निकलेगा

 अँधियारा कब तक

 यूँ उसको निगलेगा।

5

 दुनिया अनजानी है

 झरना पर्वत की

 आँखों का पानी है।

6

 जीवन की लीला है

 मंजिल दूर बड़ी

 रस्ता पथरीला है।

बुधवार, 23 जुलाई 2025

1216

माहिया/ हरकीरत ही

1

सावन की हैं रातें

रह रह याद करूँ

तेरी मीठी बातें।

2

पेड़ों पर झूले हैं

झूलें सब सखियाँ

और हम अकेले हैं।

3

भीगी-भीगी अँखियाँ

कह देंगी तुझको

दिल की सारी बतियाँ।

4

सावन की है हलचल

मन मेरा डोले

ढूँढे तुझको हर पल।

5

भीगी-भीगी आहें

तेरे क़दमों की

तकती निश-दिन राहें

6

उड़-उड़ आज चुनरिया

आजा अब साजन

तुझ बिन जाए न जिया।

7

अखियाँ कह देती हैं

चुप हैं लब फिर भी

बदली सुन लेती है।

8

तेरा जो ख़त आया

छूते ही उसको

चहरे पर गुल छाया।

9

दिल पे रहा काबू

पल में छाया है

नज़रों का इक जादू

10

तड़पाएँगी बातें

काटे न कटेंगी

तन्हा तन्हा रातें।

11.

तू तो है पास कहीं

दिल ये कहता है

क्यों आता नज़र नहीं।

12.

साँसें बहकी- बहकी

तेरी ख़ुशबू से

रहती महकी- महकी।

13.

वो ख़ास मुलाक़ातें

भूली ना अब तक

वो प्यार- भरी बातें।

14.

सूना-सूना तनमन

धड़कन पूछे, क्यों

यादें में क्यों उलझन।

15.

भीगी- भीगी अखियाँ

बोल रही हैं सब

छेड़ें सारी सखियाँ।

16.

जब से आया सावन

तेरी यादों से

भीगा मेरा तन-मन।

17.

जब से है प्रीत हुई

दूर हुए तुझसे

क्या है यह रीत नई

बुधवार, 21 मई 2025

1215

 माहिया— रश्मि विभा त्रिपाठी

1
कुछ अब न तमन्ना है
प्यार तुम्हारा तो
ये हीरा- पन्ना है।
2
रूठे हो, क्या तुक है
देखो चाहत का
रिश्ता ये नाज़ुक है।
3
हो जाती हूँ गुम मैं
तेरे होठों के
इस शोख तबस्सुम में।
4
देती हूँ रोज तुझे
एक सदा- आजा
साँसों का दीप बुझे।
5
दिल में बस प्यार रखो
सबकी ख़ातिर तुम
कोई न ग़ुबार रखो।
6
जाने ये कौन बला
आज किसी का भी
कोई चाहे न भला।
7
हर पीर छिपाऊँगी
तेरी ख़ातिर मैं
हर पल मुस्काऊँगी।
8
चन्दा- सा प्यारा वो
क्यूँ किस्मत का फिर
रोशन न सितारा हो।
9
चन्दा की चमक तुम्हीं
फूलों की ख़ुशबू
तितली की दमक तुम्हीं।
10
वो हो मुझसे न ज़ुदा
अब पल भर को भी
कर इतना करम ख़ुदा।
-0-

शुक्रवार, 16 मई 2025

1214

 

2-हाइबन

सुदर्शन रत्नाकर

1-सूर्यास्त

 

साँझ के छह बजकर पैंतीस मिनट हुए है। गोवा में अरब सागर के सामने बैठकर लहरों को उठते गिरते देख रही हूँ

शाम की हल्की धूप ने उन पर सुनहरी लकीरें खींच दी हैं। दूर क्षितिज में थकामाँदा  सूरज  उसमें उतरने के लिए मचल रहा है। सागर के वक्ष पर आसमान में छाई नारंगी रंग की परछाई ऐसे लग रही है- मानो किसी कोमलांगी ने लहरों पर रंगोली  सजा दी हो। यह अद्भुत दृश्य मन को बाँधे जा रहा है। सूर्यास्त के एक-एक क्षण को कैमरे में उतार रही हूँ।

जैसे ही सागर ने सूरज को आग़ोश में लिया, निशा ने अपना साम्राज्य जमा लिया है। लहरों ने भी काली चादर ओढ़ ली है। सन्नाटा छाने लगा है।

थोड़ी देर में क्षितिज में सूरज के स्थान पर तारे सागर में उतरने के लिए उतावले हो रहे हैं तथा उनकी परछाई लहरों पर चमकते मोतियों का आभास दे रही है।

धीरे-धीरे टहलता हुआ चाँद भी लहरों के साथ अठखेलियाँ  करने आ पहुँचा है। सागर से आते शीतल हवा के झोंकों  का स्पर्श मन को भीतर तक आह्लादित कर रहा है। मैं तट पर आकर सागर में उतरने लगती हूँ

 फेनिल लहरें मुझे छूकर जब लौटती हैं, तो पाँवों के नीचे की रेत खिसकने लगती है। लग रहा है जैसे मैं भी लहरों के साथ सागर में  जा रही हूँ, सागर होने के लिए ।

अद्भुत दृश्य

होता जब सूर्यास्त

छूता है मन।

-0-

 

 

 

2-कोई नहीं समझता

 

मेरा नाम परसी है। पहले मैं अपनी माँ और बहन-भाइयों के साथ रहता था। हम सब बहुत छोटे थे फिर भी मिलकर खेलते थे। थक जाते, तो माँ की गोद में दुबक जाते और मज़े से दूध पीते थे। कुछ दिन के बाद मालिक माँ और हम सबको अपने शोरूम में ले गया। वहाँ जगह बहुत कम थी। हम खेल नहीं सकते थे। फिर भी माँ के साथ खुश थे।

लेकिन यह ख़ुशी अधिक समय तक नहीं रही। एक दिन एक व्यक्ति आया और पैसे देकर मेरे दो छोटे भाइयों  को ले गया। माँ उस दिन बड़ी उदास रही। हमें भी अच्छा नहीं लग रहा था। कुछ दिन बाद मेरी बहन को भी एक व्यक्ति ले गया। जब वह जा रही थी, तो मैंने माँ और उसकी आँखों में आँसू देखे थे। अब मैं अकेला रह गया था।माँ का दूध पीने का भी मन नहीं करता था। अकेला खेलने का  तो बिल्कुल ही  नहीं। माँ और मैं बस उदास से शोरूम में पड़े रहते। मैं कमज़ोर होता जा रहा था पर  खुश था कि कमज़ोर होने के कारण मुझे कोई भी नहीं ले जाएगा। मैं अपनी माँ के साथ रह सकूँगा। पर मेरी ख़ुशी पर तुषारापात हुआ जब मिकेयला नाम की एक लड़की शोरूम में आई। मेरी नीली आँखें उसे पसंद आ गईं। मालिक उस लड़की की मंशा को जान गया और उससे अधिक पैसे लेकर बेच दिया। जाते हुए मैंने माँ कीं आँखों में बहते आँसुओं को  देखा था।

   मैं  लड़की के साथ उसके घर में रहने लगा। वह मुझे गोद में लेकर  बहुत प्यार करती है। अपने कमरे में मेरे लिए बिस्तर लगा दिया है। पर वह मुझे अपने बिस्तर पर साथ सुलाती है, मुझे गोद में लेकर बहुत प्यार करती है। उसके प्यार के कारण मैं अपनी माँ को भी भूलने लगा हूँ।  धीरे-धीरे मुझे यहाँ रहना अच्छा लगने लगा है; पर  मालकिन सुबह खाना देकर घर से चली जाती हैं और शाम के लौटकर आती हैं। इतना समय मैं घर में अकेला इधर उधर घूमता रहता हूँ।अलमारी पर चढ़ता हूँ, खिड़की के परदे के पीछे बैठकर नीचे देखता हूँ, तो मेरा मन भी घूमने को करता है; पर जा नहीं सकता। पॉटी-सू सू भी मशीन में ही करता हूँ। लड़की जो अब मुझे माँ जैसी लगती है। अपनी सहेली के साथ  कभी -कभी बाहर ले जाती है, तो पिंजरे जैसे बैग में डालकर पीठ पर उठा लेती है। बस बाहर की हवा थोड़ी खा लेता हूँ। खुले में घूमने की इच्छा मन में ही रह जाती है। लड़की की सहेली मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। मुझे मेरे नाम से नहीं, बिल्ला कहकर बुलाती है; पर जब दादी आती हैं, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। वह सारा दिन घर में रहती हैं और गोद में उठाकर घूमती भी हैं। जब वह चली जाती हैं तो फिर से मेरी दिनचर्या वही हो जाती है। अकेलापन बड़ा अखरता है। तब सबकी बहुत याद आती है। मैं बोल नहीं सकता और मेरी भावनाओं को कोई समझता नहीं। किसे बताऊँ कि प्यार मिलने पर भी यह क़ैद, यह अकेलापन सहन नहीं होता।

 दुनिया स्वार्थी

 नहीं है समझती

बेज़ुबानों को॥

-0-

सुदर्शन रत्नाकर-ई29,नेहरू ग्राउंड, फ़रीदाबाद 121001

मोबाइल न. 9811251135

मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

1213-माहिया

 

रश्मि विभा त्रिपाठी

 


1
जिसको दिल सौंपा था
उसने सीने में
खंजर ही घोंपा था।
2
हर पल ही ख़्याल किया
बनके संग चले
तुम मेरी ढाल पिया।
3
बाहों का हार मुझे
तुम पहनाकरके
दे दो निस्तार मुझे।
4
नयनों में पीर दिखी
आकुल अधर हुए
कैसी तकदीर लिखी।
5
तुमको छूके आई
पुरवाई तेरी
ख़ुशबू लेके आई।
6
जब भी है मुरझाता
तेरी ख़ुशबू से
मन फिर से खिल जाता।
7
बेशक मज़बूर रही
मैं हूँ दूर भले
दिल से ना दूर रही।
8
हर आस अधूरी है
सात समंदर की
तुमसे जो दूरी है।
9
तुम सपनों में मिलते
मन के मरु में प्रिय
पाटल सौ सौ खिलते।
10
बस ये अहसान करो
अपनी पीर सभी
तुम मुझको दान करो।
—0—

मंगलवार, 4 मार्च 2025

1212

 

हाइबन

1. हवा में घुली धुन/ अनिता मंडा

 


खुली खिड़कियों से वह बाँसुरी की धुन अबाध घर में चली आती। अक्सर कोई पुराना फ़िल्मी गीत वह बाँसुरी पर बजा रहा होता। 'ओ फ़िरकी वाली, तू कल फिर आना....',  आ जा तुझको पुकारे मेरा प्यार...',  'सौ साल पहले हमें तुमसे...' उसके जाने के बाद भी धुन हवा में घुली रहती। 

 

हर बृहस्पतिवार की सुबह वह इस ब्लॉक से निकलता। शायद हर वार के लिए अलग-अलग मुहल्ले तय कर रखे थे। एक लंबा- सा बाँ का डंडा और उस पर बँधी हुई अलग-अलग आकार की बाँसुरिया। पर हमारे मुहल्ले में कोई बच्चा घर से बाहर ही नहीं निकलता , जो बाँसुरी खरीदने की जिद्द करे। 

 

वह अक्सर जैसे सड़क पर घुसता वैसे ही निकल जाता। कोई भी बाँसुरी खरीदने बाहर न निकलता। 

मेरे आस-पास कोई भी नहीं जिसे बाँसुरी बजानी आती हो। संगीत में कितना सुकून है , फिर भी हमारे जीवन में कितना कम संगीत बचा है। आसपास कई संस्थान हैं , जो बच्चों को गिटार, ड्रम, की-बोर्ड आदि सिखाते हैं ; लेकिन उस बाँसुरी-वादक जैसी बाँसुरी मैंने वहाँ भी नहीं सुनी। 

 

क्या पता उसे भी कोई अच्छा प्लेटफॉर्म मिले , तो वह भी अपने हुनर को संसार के सामने ला सके। उसे देख निदा फ़ाजली साहब की पंक्ति याद आ जाती है- 'कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता'  

दुनिया का कारोबार अपने हिसाब से चलता रहता है। अनजाने ही कुछ धुनें मौसम बदल जाती हैं। 

हवा में घुली

बाँसुरिया की धुनें

मन को धुनें।

-0-

2-सेमल

 


      सेमल को देकर 'सैन भगत' की एक पंक्ति हठा्त् होठों पर चली आती है- 'यो संसार फूल सेमर को, बूर-बूर उड़ जावे।'

मार्च महीने में दिल्ली के पार्क और सड़कों पर सेमल ख़ूब जलवे बिखेरता है।

साल भर हरा-भरा रहने वाला सेमल मार्च का महीना आते आते पर्ण-विहीन होने लगता है। सीधा तना और गर्व से आसमान को छूने की कोशिश में सेमल जिस ठाठ बढ़ता है, अद्भुत है।

   सर्दियों में साथ रही, बुढ़ाई पत्तियाँ एक-एक कर अनवरत झरती जाती हैं, मानों शीत के बीतने पर पुराने वस्त्र बदले जा रहे हों। ज़र्द पत्तियों की जगह लेने को आतुर लाल-लाल हठीले फूल तुनक कर रिक्त शाखों को भर देते हैं। पर्ण-विहीन सेमल मानों होली के स्वागत में लाल गुलाल अपनी काया पर लपेट लेता है। 

   फिर कुछ समय बाद चटकीला लाल भी बूँद-बूँद कर बिखरने लगता है। अप्रैल जाते- जाते फल भी रेशा-रेशा हो कर हवाओं का दामन थाम यहाँ-वहाँ उड़ जाता है। फिर से शाखों पर पत्तियाँ आ जाती हैं। 

योगी सेमल

दुःख-सुख में थिर

प्रार्थनारत।

-0-

 3.बेचैनी का सुकून/ अनिता मंडा

 फरवरी में खिलते फूल जहाँ मन को लुभाते हैं, हवाओं में सौरभ घुली होती है, भँवरे तितलियाँ पराग पीकर अघा नशे में झूमते से उड़ते हैं; वातावरण मन को लुभाता है; लेकिन मार्च की शुरुआत होते होते हवाएँ थोड़ी रूखी होने लगती है। फागुन में एक नशा होता है। बीतता फागुन अपने पीछे अजीब सी उदासियाँ बिखेर देता है। 

 हवाएँ बेबात पेड़ों से उलझती हैं। पीत- पर्ण सहजता से उनके साथ चल पड़ते हैं। जैसे मोह के सारे बन्धन तोड़ दिए हों। आश्चर्यजनक रूप से पत्तियाँ एक के पीछे एक बेआवाज़ गिरती जाती हैं। न पीछे मुड़क देखना, न कुछ साथ लेना। एक अजीब फकीराना चाल कि अब न मुड़के देखने वाले हम। 

 ठीक ठीक नहीं पता कि सुकून है या बेचैनी।  यह पतझड़ लुभाता है या एक खालीपन मन पर तारी होता जाता है। झरती पत्तियों से खाली होती शाखाएँ। ऐसा भी क्या निर्मोह। मन की दशा बार-बार बदलती है। स्थिर तो कुछ भी नहीं। हवा का जाने क्या खो गया है कि पत्तियों को उलट-पलटकर ढूँढती है। जैसे कुछ रखकर भूल गई हो। वो जो भूल गई है नए रंग; वो कुछ दिनों में शाखाओं पर फूटेंगे।

बौराई हवा

क्या तो जाने ढूँढती

पात हिलाती।

-0-