हाइबन
1. हवा में घुली धुन/ अनिता मंडा
खुली खिड़कियों से वह बाँसुरी की धुन अबाध घर
में चली आती। अक्सर कोई पुराना फ़िल्मी गीत वह बाँसुरी पर बजा रहा होता। 'ओ फ़िरकी वाली, तू कल फिर आना....', ‘आ जा तुझको पुकारे मेरा प्यार...', 'सौ साल पहले हमें तुमसे...' उसके जाने के बाद भी धुन हवा में घुली रहती।
हर बृहस्पतिवार की सुबह वह इस ब्लॉक से
निकलता। शायद हर वार के लिए अलग-अलग मुहल्ले तय कर रखे थे। एक लंबा- सा बाँस का डंडा और उस पर बँधी हुई अलग-अलग आकार की बाँसुरिया। पर हमारे मुहल्ले में कोई बच्चा घर
से बाहर ही नहीं निकलता , जो
बाँसुरी खरीदने की जिद्द करे।
वह अक्सर जैसे सड़क पर घुसता वैसे ही निकल
जाता। कोई भी बाँसुरी खरीदने बाहर न निकलता।
मेरे आस-पास कोई भी नहीं जिसे बाँसुरी बजानी
आती हो। संगीत में कितना सुकून है , फिर भी हमारे जीवन में कितना कम संगीत बचा
है। आसपास कई संस्थान हैं , जो बच्चों को गिटार, ड्रम, की-बोर्ड
आदि सिखाते हैं ; लेकिन उस बाँसुरी-वादक जैसी बाँसुरी मैंने वहाँ भी नहीं सुनी।
क्या पता उसे भी कोई अच्छा प्लेटफॉर्म मिले , तो वह भी अपने हुनर को
संसार के सामने ला सके। उसे देख निदा फ़ाजली साहब की पंक्ति याद आ जाती है- 'कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं
मिलता'
दुनिया का कारोबार अपने हिसाब से चलता रहता
है। अनजाने ही कुछ धुनें मौसम बदल जाती हैं।
हवा में घुली
बाँसुरिया की धुनें
मन को धुनें।
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2-सेमल
सेमल को देकर 'सैन भगत' की एक पंक्ति हठा्त् होठों पर चली आती है- 'यो संसार फूल सेमर को, बूर-बूर उड़ जावे।'
मार्च महीने में दिल्ली के पार्क और सड़कों
पर सेमल ख़ूब जलवे बिखेरता है।
साल भर हरा-भरा रहने वाला सेमल मार्च का
महीना आते आते पर्ण-विहीन होने लगता है। सीधा तना और गर्व से आसमान को छूने की
कोशिश में सेमल जिस ठाठ बढ़ता है, अद्भुत है।
सर्दियों
में साथ रही, बुढ़ाई
पत्तियाँ एक-एक कर अनवरत झरती जाती हैं, मानों शीत के बीतने पर पुराने वस्त्र बदले
जा रहे हों। ज़र्द पत्तियों की जगह लेने को आतुर लाल-लाल हठीले फूल तुनक कर रिक्त
शाखों को भर देते हैं। पर्ण-विहीन सेमल मानों होली के स्वागत में लाल गुलाल अपनी
काया पर लपेट लेता है।
फिर
कुछ समय बाद चटकीला लाल भी बूँद-बूँद कर बिखरने लगता है। अप्रैल जाते- जाते फल भी
रेशा-रेशा हो कर हवाओं का दामन थाम यहाँ-वहाँ उड़ जाता है। फिर से शाखों पर
पत्तियाँ आ जाती हैं।
योगी सेमल
दुःख-सुख में थिर
प्रार्थनारत।
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3.बेचैनी
का सुकून/ अनिता मंडा
फरवरी में खिलते फूल जहाँ मन को लुभाते हैं, हवाओं में सौरभ घुली होती है, भँवरे तितलियाँ पराग पीकर अघाए नशे में झूमते से उड़ते हैं; वातावरण मन को लुभाता है; लेकिन मार्च की शुरुआत होते होते हवाएँ
थोड़ी रूखी होने लगती है। फागुन में एक नशा होता है। बीतता फागुन अपने पीछे अजीब सी
उदासियाँ बिखेर देता है।
हवाएँ बेबात पेड़ों से उलझती हैं। पीत- पर्ण
सहजता से उनके साथ चल पड़ते हैं। जैसे मोह के सारे बन्धन तोड़ दिए हों। आश्चर्यजनक
रूप से पत्तियाँ एक के पीछे एक बेआवाज़ गिरती जाती हैं। न पीछे मुड़कर देखना, न कुछ साथ लेना। एक अजीब फकीराना चाल कि अब न मुड़के देखने वाले हम।
ठीक ठीक नहीं पता कि सुकून है या बेचैनी। यह पतझड़ लुभाता है या एक
खालीपन मन पर तारी होता जाता है। झरती पत्तियों से खाली होती शाखाएँ। ऐसा भी क्या
निर्मोह। मन की दशा बार-बार बदलती है। स्थिर तो कुछ भी नहीं। हवा का जाने क्या खो
गया है कि पत्तियों को उलट-पलटकर ढूँढती है। जैसे कुछ रखकर भूल गई हो। वो जो भूल
गई है नए रंग; वो कुछ
दिनों में शाखाओं पर फूटेंगे।
बौराई हवा
क्या तो जाने ढूँढती
पात हिलाती।
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