1- मन-दर्पण
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
मन-दर्पण
धूल इतनी जमी
अपनी कमी
नज़र नहीं आई
उम्र गवाँई
जीभर औरों पर
धूल उड़ाई
रिश्तों की पावनता
की तार- तार
कभी लाज न आई।
‘प्यार है पाप
उदारता सन्ताप’
चिल्लाते रहे
मन की कालिमा को
तर्क -शर से
सही बताते रहे।
आदि से अन्त
यही था सिलसिला
मन आहत
तन हुआ खंडित
कुछ न मिला
रहे ख़ाली ही हाथ
घुटन घनी
किस लोक जाएँ कि
घाव दिखाएँ
सत्य हुआ था व्यर्थ
झूठ गर्व से भरा।
धूल इतनी जमी
अपनी कमी
नज़र नहीं आई
उम्र गवाँई
जीभर औरों पर
धूल उड़ाई
रिश्तों की पावनता
की तार- तार
कभी लाज न आई।
‘प्यार है पाप
उदारता सन्ताप’
चिल्लाते रहे
मन की कालिमा को
तर्क -शर से
सही बताते रहे।
आदि से अन्त
यही था सिलसिला
मन आहत
तन हुआ खंडित
कुछ न मिला
रहे ख़ाली ही हाथ
घुटन घनी
किस लोक जाएँ कि
घाव दिखाएँ
सत्य हुआ था व्यर्थ
झूठ गर्व से भरा।
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15 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर रचना है गुरु जी।🙏
सच में मन दर्पण ही है...
बहुत ही सुन्दर सृजन
बधाई स्वीकार करें |
आहत मन की व्यथा का सुंदर वर्णन।
Dard bhari gagar
ह्रदय का दर्द छलकाता चोका... मन को छू गया, आदरणीय भैया जी।
~सादर
अनिता ललित
चोका में रची इतनी सुन्दर रचना है भाई कम्बोज जी हार्दिक बधाई |
बहुत सुंदर यथार्थपरक अनुभूति !
हार्दिक बधाई !
बहुत मार्मिक दर्द भरा चोका।
सच में, बहुत आहत होता है मन...| इस ह्रदयस्पर्शी चोका के लिए और क्या कहूँ...बहुत बधाई...|
मन-दर्पण
धूल इतनी जमी
अपनी कमी
नज़र नहीं आई
उम्र गवाँई
lajavab aur sach
rachana
मन की पीड़ा को दर्द में भिगोकर d लिखा गया है ये चोका...पाठक के मन को भीतर तक छू गया भैया जी !!
हृदय की पीड़ा की बेहतरीन अभिव्यक्ति. बहुत भावपूर्ण चोका, बधाई भैया.
आप सभी का हृदय से आभार
भावपूर्ण सुंदर चोका
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