मंगलवार, 22 अक्टूबर 2024

1195

 भीकम सिंह 


1

ऑंखों में चले 

मेघ के सिलसिले 

सच्चे -औ-सही

मैं तो देखता रहा 

बहार आई कहीं ।

2

मेरी जमीन 

और घर ऑंगन 

गली भी मेरी 

फिर भी सुनें लोग 

क्यों अनकही मेरी ।

3

प्रेम में कभी 

टूट जाते हैं सभी 

ख़्वाब -औ-ख़्याल

बन जाते हैं रास्ते 

एक नया बवाल ।

4

उसकी जुल्फ़ें 

बसन्त -सा ओढ़े हैं

लोग क्या जाने 

पतझड़ से पूछो

मस्त झोंकों के माने ।

5

झूठ है नही 

प्रेम हो जाने को है 

आज भी वही 

उड़ रहे हैं मेघ 

वहीं पर वैसे ही ।

6

वो भी दिन थे
प्यार वाले दिनों में,
शाम के होते
आ जाती थी  चाँदनी
कुछ कुहासे होते।

 

-0-

8 टिप्‍पणियां:

surbhidagar001@gmail.com ने कहा…

बहुत ही शानदार लिखा है आपने।
हार्दिक बधाई आपको।

शिवजी श्रीवास्तव ने कहा…

रससिक्त मर्मस्पर्शी ताँका, भीकम सिंह जी सदैव प्रभावित करते हैं, बहुत बहुत बधाई 💐

Rashmi Vibha Tripathi ने कहा…

बहुत ही सुंदर, भावपूर्ण ताँका।
हार्दिक बधाई आदरणीय भीकम सिंह जी को। 💐

सादर

dr.surangma yadav ने कहा…

बहुत सुंदर। भावपूर्ण। हार्दिक बधाई सर।

बेनामी ने कहा…

प्रेम रस की भावपूर्ण अभिव्यक्ति।सुंदर सृजन के लिए हार्दिक बधाई भीकम सिंह जी।सुदर्शन रत्नाकर

Anita Lalit (अनिता ललित ) ने कहा…

सुंदर भाव लिए सभी ताँका!

~सादर
अनिता ललित

प्रीति अग्रवाल ने कहा…

हमेशा की तरह 'मैजिकल', हार्दिक बधाई आदरणीय।

Krishna ने कहा…

बहुत सुंदर ताँका...हार्दिक बधाई भीकम सिंह जी।