उसकी कहकशाँ की हमसफ़र बनी मैं उसके साथ चलने लगी। वह मुझे अपने भीतर फैले अंतरिक्ष में ले जाती हुई अपने उस सांसारिक आँगन में ले गई ,जहाँ देश प्रेम की वीर गाथाएँ तथा गीत सुनती हुई वह बड़ी हुई थी। बँटवारे के समय वह
महज़ 13 वर्ष की रही होगी। उसको खुद पता नहीं चला कि संवाद रचाने की आत्मीय संवेदना उस के भीतर कब पैदा हो गई। मस्तक में रौशनी का काफ़िला काव्य- धारा बनकर बहने लगा। आँखों की अनिंद्रा रातों के सावे सपने उसके भीतर खलबली मचाते रहे। वह अपनी जादूई छुअन से मौलिक अंदाज़ में रोज़ नया सिरजती रही और आज तक सिरज रही है। नई ऊँचाई को नतमस्तक होना उसकी पाक इबादत है।
मेरा
मन बारिश की रिम -झिम में सरशार सराबोर हुआ उसकी कभी न खत्म होने वाली बातों से लबरेज़
हुआ चला जा रहा था। कभी -कभी मुझे लगता कि मैं अपनी पड़नानी से बातें किए जा रही हूँ।
वह मेरे लिए आशीष का झरना है और मेरे सपनों
की नींव। अब वह अपनी किरमची (एक किस्म का लाल रंग) क्यारी से फूल बिखेर रही थी, "बंद कमरों में मेरा
दम घुटता है। रंग -बिरंगी कायनात की मैं दीवानी हूँ। कुदरत रहकर बहुत कुछ मिला। मगर
कोई ख़ुशी एकाएक नहीं मिली ,बरसों की मेहनत और प्रतीक्षा के बाद
मिली है। मगर अभी तो छोप में से पूनी भी नहीं काती। जब तक अँगुलियों में जान है ,लेखन जारी रहेगा।"
ये
हाइबन पढ़कर आप ने मुझे पत्र लिखा था उसे भी यहाँ पेश कर रही हूँ। जब जब भी मैं ये पत्र
पढ़ती हूँ सुधा जी को अपने पास पाती हूँ।
आ बसिया है मेरे अन्दर।
कभी
वह किणमिण उजाले में बैठकर ‘धूप से गपशप’ करती है और कभी उसके हिस्से में आई ‘चुलबुली रात’ ने ‘कोरी मिट्टी
के दिए’ जलाकर ‘ओक भर किरणें’ से ‘खुशबू का
सफ़र’ तय किया है। अपने कलात्मक करिश्मों से वह मुहांदरा चमकाती
गई जब कभी ‘अकेला था समय’। उसकी नई मंजिलों
के दस्तावेज़ महज लफ्ज़ नहीं बल्कि उसके ‘सफ़र छाले हैं’।
भगवान
से प्रार्थना करते हैं कि आपका आशीर्वाद यूँ ही बना रहे।
डॉ. हरदीप कौर सन्धु
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