सोमवार, 3 मई 2021

969-सात छेद वाली मैं

 'सात छेद वाली मैं' ताँका संग्रह- रश्मि विभा त्रिपाठी 'रिशू'

 भाव-मुरली / मन्त्रमुग्ध सा मन / आकंठ मग्न 

'सात छेद वाली मैं' पुस्तक की समीक्षा मैं नहीं लिख सकती, क्योंकि 'समीक्षा' विधा का मुझे तनिक भी ज्ञान नहीं। अपनी अज्ञानता सहज स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं। 

तीन बार यह पुस्तक पढ़ी। पढ़कर मन मंत्रमुग्ध हो गया।

तब इस पुस्तक को पढ़कर अपने विचारों को हाइकु और ताँका रूप में लिखने का एक प्रयास किया मैंने। निश्चय ही यह मेरे लिये अत्यधिक कठिनतम कार्य है, क्योंकि कवयित्री के बारे में लिखना जैसे सूर्य को दीप दिखाना है।

जापानी साहित्यिक विधा के ताँका गीत के बारे में मेरे मानस पिता एवं गुरु आदरणीय श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी ने मुझे प्रथम बार अवगत कराया था।

उनके द्वारा भेजी गई यह पुस्तक मुझे जब प्राप्त हुई, तो मेरी आतुरता ने प्रथम पृष्ठ खोल भावों के अद्वितीय लोक में विचरण आरम्भ किया। अब तक 4 बार पुस्तक को पढ़ने के बाद भी मुझे ऐसी प्रतीति होती है कि जैसे मैं अभी भी उसी भाव-लोक में हूँ। हर एक ताँका गीत ने मुझे अपनी ओर बरबस आकृष्ट किया। पन्नों पर बिखरे प्रेम-सुवास, ऋतुओं के विभिन्न रूप एवं प्राकृतिक सौंदर्यीकरण की अद्भुत आभा ने मुझे अपने मोहपाश में बाँध लिया-

झरा निर्झर

मधु-भाव झरना

बुझी है तृष्णा

पन्नों पे बही धारा

धन्य हे चित्रकारा।

आदरणीया डॉ सुधा गुप्ता जी द्वारा रचित निरुपमा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का प्रथम संस्करण वर्ष 2011 में आया।  सौ रुपये मूल्य की यह पुस्तक हिन्दी साहित्य की एक अमूल्य निधि है। 64 पृष्ठों के इस संग्रह में 151 स्वर्णिम ताँका संगृहीत हैं।

 

'सात छेद वाली मैं' जैसा कि नाम से ही विदित है सात छेद वाली यानी बाँसुरी।

बाँस की खोखल से कृष्ण के अधर-कमल तक पहुँचने की बाँसुरी की इस कहानी में उसका संघर्ष, भगवान श्री कृष्ण का उसके प्रति अनुराग और अपने आराध्य के प्रति उसका समर्पण ( जिन्होंने उसे एक अस्तित्व दिया, पूर्णता प्रदान की वरना कहाँ वह वन के झुरमुटों में पड़ी थी और कहाँ श्री कृष्ण के अधरों पर सज कर पावन हो गयी ) समाहित है।

 

बाँस की पोरी 

निकम्मी खोखल मैं 

बेसुरी कोरी 

तूने फूँक जो भरी 

बन गई 'बाँसुरी' ( पृष्ठ 10 )

 

यह ताँका संग्रह प्रेम के दोनों पक्ष संयोग तथा वियोग, वात्सल्य, ईश-भक्ति, प्राकृतिक सौंदर्य, ऋतुओं के इन्द्रधनुषी रंग, व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की विविध अवस्थाओं का अनुपम संगम है जिससे अनूठा सुधा रस प्रवाहित हुआ है जो चित्त को अनायास ही मुग्ध करने वाला है।

 

1 अनुपम है / शब्द-भाव निर्झर / मुग्धा बाँसुरी।

2 माधुर्य सुधा / तृप्त करती तृषा / भाव बाँसुरी।

3 अधर धरी / बाँसुरी भावों भरी / रस निर्झरा।

4 रस कोकिला / है मधु-भाव-सुधा / शब्द बाँसुरी।

 

प्रकृति के हर रूप का बड़ा ही सुन्दर और मनोहारी चित्रण इस ताँका संग्रह में निरूपित किया गया है।

किस तरह ग्रीष्म काल में धरा के तन पर सूर्य मुट्ठी भर-भर कर आग फेंकता है। कवयित्री के मन का यह डर कि सूर्य कहीं धरती का कोमल गात झुलसा न दे-

 

फेंकता आग

भर भर के मुट्ठी 

धरा झुलसी 

दिलजला सूरज 

जला के मानेगा ( पृष्ठ 31 )

 

जीवन के प्रति उदासीन मानव को पंछी के माध्यम से एक सुन्दर सकारात्मक सन्देश निम्न ताँका में कवयित्री देती हैं-

 

परिन्दे गाते 

कृतज्ञता के गीत 

प्रभु के प्रति 

उड़ने को पाँखें दीं 

और चंचु को दाना ( पृष्ठ 26 )

 

आज की भौतिक भोग विलास की प्रतिस्पर्धा में दिन-प्रतिदिन दौड़ता, हाँफता हुआ मानव प्रकृति से कोसों दूर होता जा रहा है। इस अंधी दौड़ में भोर का जगना, सूर्य का उगना, धरा का हँसना, फूलों का खिलना और पंछियों का गीत गुनगुनाना, इस नयनाभिराम दृश्य के अवलोकन हेतु अब उसकी आँखों की शक्ति क्षीण हो चली है। कोयल का मीठा सुर संगीत अब उसके कानों में मधुमय रस नहीं घोल पाता-

 

कोयलिया ने 

गाये गीत रसीले 

कोई न रीझा 

धन की अन्धी दौड़ 

कान चुरा ले भागी ( पृष्ठ 25 )

 

जीवन-मरण एक शाश्वत सत्य है, जिसे कोई भी झुठला नहीं सकता। कवयित्री ने इस सत्य को बखूबी उकेरा है कि जीवन यात्रा में भले सब साथ चलते हैं ; परन्तु मृत्यु के द्वार पर अकेले ही जाना होगा। कोई किसी के संग नहीं जा सकता।

 

शाश्वत सत्य 

है जीवन-मरण

श्वास छलिया

किसी की नहीं सगी

करे जग से ठगी

 

इन ताँका गीतों में कहीं प्रेम की सुखद यात्रा का वर्णन है जहाँ पंथ में हर ओर पुष्प पराग बिछा हुआ है और कहीं दो पथिकों के बिछुड़ने की पीड़ा का असहनीय दर्द, विरह की अग्नि में तपता हुआ मन मानो शोलों के सफर पर चला है एकाकी यादों का पड़ाव ढूँढता। प्रिय नहीं तो प्रिय की स्मृतियाँ ही सही।

 

प्रेम पथिक

प्रिय-पंथ खोये

स्मृति सँजोये

फूलों -सजी डगर

कहीं शोला-सफर।

 

सामाजिक विसंगतियों का चित्रण करते हुए कवयित्री ने समाज में व्याप्त भूख व गरीबी को उजागर कर न केवल सामाजिक विकास का दम्भ भरते व्यवस्था तन्त्र पर कटाक्ष किया है ,बल्कि सम्पूर्ण मानवता को एक आइना भी दिखाया है। 

बच्चे ईश्वर का सच्चा रूप होते हैं। दो निवालों के लिए दर-दर भटकते, भीख माँगते निर्धन बच्चे को रोटी भेंट करना ही सच्ची और सार्थक पूजा है कवयित्री का ऐसा विचार है जो कि निम्न ताँका में भली-भाँति दृष्टिगोचर होता है-

 

भूखे हैं बच्चे

रोटी को तड़पते

अंधी जो श्रद्धा 

पत्थर-प्रतिमा को

दूध से नहलाये । ( पृष्ठ 53 )

 

प्राय: लोग मन्दिर में पत्थर की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा करते हैं, नित्य दुग्धाभिषेक करते हैं ; मगर जीते जागते इंसान को भोजन नहीं दे सकते।

 

भूख रुलाये

श्रद्धा दूध बहाये

ईश हैरान

देख पूजा अर्चन 

रोते बच्चे निर्धन

 

ऋतुराज की महिमा, धरती आकाश की गरिमा, शाखों पर पल्लवित फूल, जीवन की राहों पर पाँव में चुभते शूल, कभी सुख की खिलती कली, कभी दुख की घनी बदली, बचपन का निराला संसा, भाई बहन का निश्चल प्यार, माँ का निस्वार्थ दुलार, वृद्धावस्था में माता पिता पर कलयुगी संतान का अत्याचार, क्रूर मानव का स्वार्थी व्यवहार, बढ़ती महँगाई की मार, बाढ़ का तेज प्रहार, उजाड़ घर-बार, श्रम से बहता मजदूर का पसीना, प्रदूषण से छलनी नदियों का सीना आदि अनेक विषयों पर कवयित्री ने अपनी कलम बड़ी ही सुन्दरता और सटीकता से चलाई है।

आदरणीया डॉ सुधा गुप्ता जी की लेखनी को कोटिशः नमन। उनकी कलम से सदैव भावों की अविरल धार यूँ ही बहती रहे।

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16 टिप्‍पणियां:

Anita Manda ने कहा…

रश्मि विभा जी, अच्छा पाठ है आपका, इसी बहाने हम लोग भी सुंदर ताँका कविताओं से फिर से गुजर लिए। आभार। बधाई।

नीलाम्बरा.com ने कहा…

बहुत सुंदर काव्य की बहुत सुन्दर समीक्षा, हार्दिक बधाई काव्यकार और समीक्षिका को।

Pushpa mehra ने कहा…




सुन्दर संग्रह की सुन्दर समीक्षा के लिए रश्मि जी को हार्दिक बधाई स्वीकार हो |

पुष्पा मेहरा

dr.surangma yadav ने कहा…

सुंदर संग्रह पर सुंदर भावाभिव्यक्ति ।बधाई रश्मि जी।

sushila ने कहा…

डॉ सुधा की कृतियाँ साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। आपने सही कहा रश्मि जी।
मैंने भी तीन बार इस सारस्वत प्रसाद का आचमन किया है और तीनों ही बावर मन ऐसा रमा की कई दिनों तक काव्य के भाव, शिल्प मन को मोहटे रहे, मथते रहे।

आपने भी पूरे मन, लगन और श्रद्धा के साथ बहुत सुंदर समीक्षा की है। बधाई 💐

Sudershan Ratnakar ने कहा…

उत्कृष्ट कृति की बड़े मनोयोग से की गई बहुत सुंदर समीक्षा। डॉ सुधा गुप्ता जी एवं रश्मि विभा जी को हार्दिक बधाई।

सविता अग्रवाल 'सवि' ने कहा…

सुधा जी की अनुपम कृतियाँ हैं जो मन के तारों में झंकार भरती हैं उसी झंकार के स्पंदन को समझ कर रश्मि विभा जी ने सुंदर समीक्षा की है हार्दिक बधाई।

मेरा साहित्य ने कहा…

बहुत भावपूर्ण समीक्षा
रचना

Dr. Purva Sharma ने कहा…

सुधा जी की सुंदर कृति का भावपूर्ण विश्लेषण

हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें

Ramesh Kumar Soni ने कहा…

सारगर्भित विचार के लिए बधाई। डॉ. सुधा गुप्ता जी की लेखनी को नमन ।

Jyotsana pradeep ने कहा…

आद.सुधा जी की बहुत सुंदर कृति की भावपूर्ण समीक्षा।
हार्दिक बधाई।

बेनामी ने कहा…

साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर की कृति पर किये गये समीक्षा विधा के प्रथम प्रयास पर आप सभी की टिप्पणी का हार्दिक आभार आदरणीय।


सादर-
रश्मि विभा त्रिपाठी 'रिशू'

Vibha Rashmi ने कहा…

आदरणीय सुधा दीदी के अनुपम ताँका पढकर दिल बाग-बाग हो गया । सभी ताँका बेजोड़ । रश्मि विभा जी की समीक्षा बहुत मन से की गयी है ।दोनों को हार्दिक बधाई  ।

Anita Lalit (अनिता ललित ) ने कहा…

बहुत सुंदर समीक्षा! रश्मि जी को बहुत-बहुत बधाई!
आदरणीया सुधा दीदी जी को एवं उनकी लेखनी को सादर नमन!

~सादर
अनिता ललित

Krishna ने कहा…

बहुत सुंदर समीक्षा... रश्मि जी को हार्दिक बधाई।

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

एक बात से सहमत हूँ. सच में, आदरणीया सुधा जी की रचनाएँ जितनी बार भी पढो, एक नै ही अनुभूति होती है | बहुत प्यारी समीक्षा है, मेरी बधाई |