रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1
मन उन्मन
तरसे आलिंगन
कहाँ खो गए
अब चले भी आओ
परदेसी हो गए !!
2
आकर लौटे
बन्द द्वार था मिला
भाग्य की बात,
दर्द मिले मुफ़्त में
प्यार माँगे न मिले।
3
टूटते कहाँ
लौहपाश जकड़े
मन व प्राण
मिलता कहाँ मन
जग निर्जन वन।
मन उन्मन
तरसे आलिंगन
कहाँ खो गए
अब चले भी आओ
परदेसी हो गए !!
2
आकर लौटे
बन्द द्वार था मिला
भाग्य की बात,
दर्द मिले मुफ़्त में
प्यार माँगे न मिले।
3
टूटते कहाँ
लौहपाश जकड़े
मन व प्राण
मिलता कहाँ मन
जग निर्जन वन।
-0-
14 टिप्पणियां:
सुंदर सृजन... परदेसी हो गए, दर्द मिले मुफ़्त में,जग निर्जन वन ... बहुत मनभावन
हार्दिक शुभकामनाएँ सर
वेदना की अभिव्यक्ति के सशक्त ताँका,हार्दिक बधाई।प्रणाम।
शानदार सृजन।
"मिलता कहाँ मन"
काश की मन का भी जोड़ा बनाया होता।
पधारें अंदाजे-बयाँ कोई और
जो चले गये
कहां लौटते हैं वो
एक उम्मीद
जीने को ही है काफी
प्रेमपाश के लिए!! (डॉ पूर्णिमा राय)
आदरणीय सर नमन
हृदय स्पर्शी अभिव्यक्ति!!
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।अत्युत्तम
सबका हार्दिक आभार ।
जीवन के अनेक रंग, बहुत भावपूर्ण और मार्मिक चित्रण भाई साहब!
बेहद भावपूर्ण ।
हृदयस्पर्शी तांका... हार्दिक बधाई भाईसाहब।
सुंदर अभिव्यक्ति
बहुत सुन्दर सृजन काम्बोज जी हार्दिक बधाई |
बहुत सुंदर ताँका आदरणीय रामेश्वर सर... प्रेम और पीड़ा का संगम अद्भुत है
बहुत सुंदर एवं भावपूर्ण सृजन ....बहुत बधाई भैया जी!!
एक टिप्पणी भेजें