डॉ0 भावना कुँअर
1.
गुमसुम है
गा न पाए कोयल
मीठी -सी तान
सदमें में शायद
है भूली पहचान
2.
देख रही थी
सहमी हुई मृगी
मूक -सी बनी
जाल के चारों ओर
बेरहम शिकारी
3.
दो कबूतर
आकर बैठ जाते
रोज सवेरे
बीती रात की फिर
हैं कहानी सुनाते
4.
फिर आँख चुराते
कभी कान में
कुछ बुदबुदाते
कभी सकपकाते
5.
बनाए गर
मक्खन के पुतले
पिंघलेंगे ही
जब भी वो पायेंगे
सूरज की तपन
6.
ढूँढते हैं नयन
तुझे सजन
क्योंकर लगी मुझे
ये प्रीत की लगन
7.
मेरा ये मन
हो बन में हिरण
बिन तुम्हारे
या फिर जैसे कोई
पगली -सी पवन
8.
अलकों से टूटके
दो सच्चे मोती
मन की माला में,मैं
हूँ भावों से पिरोती
8 टिप्पणियां:
चित्रों से ताँका की खूबसूरती उभर आई है... स्थान देने के लिये आभार काम्बोज जी...
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
मेरा ये मन
हो बन में हिरण
बिन तुम्हारे
या फिर जैसे कोई
पगली -सी पवन
बहुत खूब
इन सुन्दर और मर्मस्पर्शी भाषा से विभूषित ताँका के लिए भावना जी को बधाई! ऐसी रचनाओं से ही साहित्य की श्रीवृद्धि होती है । प्रस्तुति के लिए डॉ हरदीप जी और भाई काम्बोज जी का श्रम भी सराहनीय है।
आकर गिरे
अलकों से टूटके
दो सच्चे मोती
मन की माला में,मैं
हूँ भावों से पिरोती
बहुत सुन्दर ...
वाह कोमल भावो को बहुत सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है।
ढूँढे दिल भी
ढूँढते हैं नयन
तुझे सजन
क्योंकर लगी मुझे
ये प्रीत की लगन
sabhi tanka bahut sunder hain par yeh man ko choo gaya.
badhai.
amita kaundal
बनाए गर
मक्खन के पुतले
पिंघलेंगे ही
जब भी वो पायेंगे
सूरज की तपन
सभी तांका अच्छे हैं.पर यह मन को छू गया ..बहुत-बहुत बधाई ...
डा. रमा द्विवेदी
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