सुभाष नीरव
1
पी लिये आँसू
सह लीं तकलीफ़ें
उफ्फ नहीं की
बूढ़े माँ-बाप आज
कितने लाचार हैं!
2
बनी जब से
पीर परबत सी
सुप्त हो गई
अहसास की भूमि
दुख लगे न सुख।
3
दूर भागते
रहे सुख हमसे
दुख लेकिन
संग- संग चलते
अपने से लगते।
4
सोये न भूखे
इक दिन भी हम
अम्मा के होते
खुद न खाकर जो
रहीं हमें खिलातीं।
5
बूढ़े माँ-बाप
अपने ही घर में
भोगते शाप
बेबसी, लाचारी का
अकेले चुपचाप।
6
तितलियों-सी
मन की कामनाएँ
अपने पीछे
हरदम दौड़ाएँ
बाज कभी न आएँ।
7
राह को रोके
खड़े रहे पहाड़
जाऊँगा पार
नहीं तोड़ पाएँगे
ये मेरा मनोबल।
8
जड़ें जिनकी
धरती के भीतर
होतीं गहरी
आँधियों के सम्मुख
वही तानते सीना।
9
कह न पाये
कभी दिल की बात
जिसे अधर
नयन कह गए
एक ही इशारे में।
10
पंछी यादों के
मन-गगन पर
ऊँची उड़ानें
हरदम भरते
कभी न थकते।
11
ज़ोर आंधी ने
अन्तिम क्षण तक
खूब लगाया
पर बुझा न पाई
लौ मेरे भीतर की।
12
जब भी हुआ
जीवन में अकेला
याद तुम्हारी
मेरे संग आ बैठी
कविता बनकर।
13
बिखर जाता
तिनके तिनके सा
आंधियों में मैं
यदि तुमने मुझे
संभाला नहीं होता।
14
जीवन पथ
ठोकरों से भरा था
मेरा मगर
तुम साथ चले तो
ये सुहाना हो गया।
15
मोमबत्ती-सा
खुद को जलाकर
हम तो लड़े
अँधेरों के खिलाफ़
उजालों की खातिर।
16
दु:ख तो रहे
सच्चे साथी सरीखे
संग हमारे
सुख परायों जैसे
छूकर चले गए।
17
ख़बर न थी
लुटेगा यूँ काफ़िला
बीच राह में
अपनों के हाथों ही
साजिश के चलते।
-0-
2 टिप्पणियां:
सभी तांका बहुत खूब मन को भाए....बधाई।
सुभाष जी की कल्पना की उड़ान की प्रशंसा में कुछ कहना रोशनी को दिया दिखाने जैसा ही होगा... उनकी रचनाओं में सदैव ही गंभीर भाव, सार्थक सन्देश होते हैं. सभी तांका एक से बढ़ कर एक अद्भुत भाव संयोजन का अनुपम उदहारण हैं . ...
पर्वत सी पीर, संग-संग चलते अपने से हो गये दुःख, तितलियों सी कामनाएं और उनके पीछे हम , कविता सी याद, आंधियों में विजयी सा लहराती अंतर की लौ सब एक से बढ़ कर एक ...
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