रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
घने अँधेरे
साथी न कोई
हैं पलकें भी गीली ।
चलते रहे
थके पाँव घायल
पाएँगे कैसे
लापता गाँव हम
की थी
दुआएँ-
पर न जाने कैसे
शूल वे
बनी ,
की केसर
की खेती
अभिशप्त
हो
वो बनी
नागफनी ।
कैसे अपने?
दुआओं
से आहत ,
शाप यदि
दो
करते हैं
स्वागत ।
आँसू जो पोंछे
वो लगता विषैला
भाया सदा ही
इन्हें मन का मैला ।
आओ समेटे
वो शुभकामनाएँ
नहीं लौटना-
कहने को घर हैं
ये हिंसक गुफाएँ ।
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16 टिप्पणियां:
JEEVAN KI KADVI SACHCHAI KO BADI SARASTA SE DHALA HAI IS CHOKE MEIN AAPNE कैसे अपने?
दुआओं से आहत ,
शाप यदि दो
करते हैं स्वागत ।
ATI SUNDER!HIMANSHU JI AAPKO BAHUT -BAHUT BADHAI. .
दिल को छू गयी रचना... अतिसुन्दर भावाव्यक्ति।
~सादर
अनिता ललित
bahut maarmik , aaj ke katu yatharth ko kahata sundar chokaa !
bahut shubh kaamnayen ...saadar naman !
jyotsna sharma
bahut sundar ...hardik badhai bhaiya bahut samy baad aapki kalam ko padha ..naman
जीवन के कटु सत्य को कहती मर्मस्पर्शी बेहतरीन रचना!
सादर
कृष्णा वर्मा
एक-एक शब्द सच से लिपटा है, खत्म हो गईं लोगों की भावनाएँ,खत्म हो गया स्नेह,संबंध,अपनापन तभी तो घर अब घर नहीं लगता, आपने बहुत नया और सटीक उपमा दी है,"हिंसक गुफाएँ" जहाँ आत्मा नहीं बसती, बसते हैं-स्वार्थ,दर्द,पीड़ा और घुटन -इतना ही कहूँगी-
और मजबूत हो गए
पीड़ा के ये पुल
जिनपर रात-दिन
अपनों ने वार किए।
हार्दिक बधाई सच को प्रस्तुत करने के लिये सच जब वक्त खराब हो तो दुआ भी बददुआ बन जाती हैं।
दिल में घर जाती है रचना ... बहुत सुन्दर ...
ज़िन्दगी का सबक पढ़ना हो तो रामेश्वर जी का ये चोका पढ़िएगा। ज़िंदगी की कँटीली राहों पे चलते ही खिले हुए फूलों का अहसास होता है। अगर फूल ही फूल हों तो हम इसे टेक इट ग्रांटिड लेंगे.... कि ये फूल खिलना तो मामूली बात है। ये कँटीली राहें ही ज़िंदगी में खिलते फूलों का महत्त्व और बढ़ा देते हैं।
आँसू जो पोंछे
वो लगता विषैला
भाया सदा ही
इन्हें मन का मैला ।
आओ समेटे
सभी शुभकामनाएँ
नहीं लौटना-
कहने को घर हैं
ये हिंसक गुफाएँ ।
यह पंक्तियाँ बहुत कुछ बोल रही हैं......... एक दूसरे की बात काटना तथा अपनेआप को उत्तम मानते हुए दूसरों को नीचा दिखाना ये दुनिया का दस्तूर बना गया। .......... अगर आप और आपका साथी भी ऐसा ही है तो आप इसे ही ज़िन्दगी मानने लगते हैं और आपको कुछ भी अटपटा नहीं लगता। मगर अगर आप का मन निर्मल-पावन है दूसरों के दुःख को अपना दुःख मानता है तो आपका ऐसे माहौल में साँस लेना मुश्किल है। प्यार, मोह तथा अपनेपन से मकान घर बनता है। आओ रब से दुआ करें कि हर मकान एक हिंसक गुफा न हो कर एक घर बन जाए जहाँ ज़िंदगी का हर लम्हा बिताने को मन करे।
रामेश्वर जी की कलम को नमन।
हरदीप
की थी दुआएँ-
पर न जाने कैसे
शूल वे बनी ,
की केसर की खेती
अभिशप्त हो
वो बनी नागफनी ।
कैसे अपने?
दुआओं से आहत ,
शाप यदि दो
करते हैं स्वागत ।
bhaiya kya kahun aaj ka yahi smy hai sab kuchh aesa hi hai katu hai pr sach hai
bahut sunder likha hai bhaiya
badhai
rachana
मेरी इस रचना को आप सबका जितना प्यार और सम्मान मिला उसके लिए मैं बहुत अनुगृहीत हूँ । आपके शब्द मेरे लिए शक्ति हैं।
सत्य को उद्भाषित करता बहुत सुन्दर चोका...
हर पंक्ति मन को छूती हुई...सादर बधाई...नमन !!
choka ke madhyam se jeevan - jagat ki sachaibatati hui panktiyanhain. bhai ji apaka bhav nirupan bahut hi prashansneey hai.shabd - shabd bol rahe hain.apako badhai .
pushpa mehra.
choka ke madhyam se jeevan - jagat ki sachai batati hui panktiyan hain.
bhai ji apaka bhav niroopan bahut hi prashansneey hai . shabd- shabd bol rahe hain. apako badhai.
pushpa mehra.
दुनिया का एक रूप यह भी है जब घर हिंसक गुफा सा बन जाता है और मन उस गुफा में छटपटाता रहता है क्योंकि इस गुफा के भीतर अपने बसते हैं और पीर भी वही देते हैं. बेहद मार्मिक रचना, बधाई काम्बोज भाई.
ज़िंदगी की इससे बड़ी त्रासदी और क्या होगी जब अपना घर ही किसी हिंसक गुफा जैसा लगने लगे...| जिनके मन मैले होते हैं, उनको अच्छी बात समझ ही नहीं आती...| पर फिर भी ऐसे लोगों को पार करते हुए जीवन की राह में आगे बढ़ते ही चलना होता है...|
जीवन के कडवे सत्य को उद्घाटित करती बहुत हृदयस्पर्शी रचना...हार्दिक बधाई...|
आदरणीय भाई कम्बोज जी सुन्दर भाव लिए रचना है तीन पंक्तियाँ -- घायल पाँव पाएंगे कैसे लापता गाँव मर्मस्पर्शी लगी |बधाई |
धन्यवाद
सविता अग्रवाल "सवि"
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