डॉoसुरंगमा यादव
1. मन करता
मन करता-
धरती बन जाऊँ
मेघों-सा तुम
उमड़ -घुमड़ के
पोर -पोर में
तरल नेह बन
समाते जाओ
करूँ अवशोषित
बूँद- बूँद मैं
पाऊँ तृप्ति सघन
धरा- समान
करुणा -उपहार
वारती रहूँ
आँचल भर कर
अखिल विश्व पर।
-0-
2 मन एकाकी
मन नाविक
ले चल तू मुझको
इतनी दूर
लक्षित न हों जहाँ
पद चिह्न भी
दूर निर्जन वन
एकाकी मन
शान्त करे बसेरा
अन्तर बाह्य
घेरे है कोलाहल
किसे सुनाऊँ
किसकी सुनूँ गाथा
हृदय अकुलाता।
4 टिप्पणियां:
दोनों चोका भावपूर्ण एवं नूतन संवेदना से युक्त
आदरणीय सुशील कुमार जी एवं रामेश्वर कम्बोज जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं आभार।
सुन्दर प्रस्तुति , बहुत बधाई !
वाह
एक टिप्पणी भेजें