सुदर्शन रत्नाकर
बिन बरसे
कहाँ जाते हो तुम
बरस भी लो
आए हो तो बादल,
राह निहारे
तपस्वी पपीहरा
प्यास बुझे न
व्याकुल पेड़ खड़े
जल -विहीन
सूख रहे हैं सब
ताल- तलैया
आसमान देखता
कृषकाय वो
बिलखती संतान
नहीं अनाज
मिलने को आतुर
तेरी बूँदों से
समन्दर का पानी,
तरस रहे
उपवन -बगिया
बरसो अब
रे निर्मोही बादल !
बिन नीर के
प्यासी -प्यासी है धरा
प्यासा जनमानस।
-0-
16 टिप्पणियां:
कहाँ जाते हो तुम
बरस भी लो
आए हो तो
वाह सुदर्शन जी ! बहुत ही सुन्दर ...
बरसो अब
रे निर्मोही बादल !
...... हृदय से निकली भावपूर्ण पुकार।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दीदी।
सादर,
भावना सक्सैना
आभार मंजू जी ,भावना जी
बहुत बढ़िया चोका सृजन है हार्दिक बधाई स्वीकारें |
आभार सविता जी
मेघों को सम्बोधित,उदात्त मानवीय भाव-बोध का सुंदर चोका।हार्दिक बधाई।
जन कल्याण के लिए मेघों की मनुहार करता सुन्दर चोका।बधाई आपको ।
कितना प्यारा चोका...बहुत बधाई आपको...|
शिवजी,सुरंगमा जी, प्रियंका जी सुंदर प्रतिक्रिया देने के लिए आप सब का हार्दिक आभार ।
भावपूर्ण सृजन
हार्दिक बधाइयाँ
आभार पूर्वा जी
बहुत सुन्दर चोका. बहुत बधाई.
बहुत सुंदर चोका... हार्दिक बधाई आपको।
मन को मोह लिया उलाहने भरे प्यारी पुकार ने ....
अनूठी शैली आदरणीय रत्नाकर दीदीजी
बिन बरसे
कहाँ जाते हो तुम
बरस भी लो
आए हो तो बादल,
बहुत ही सुन्दर सृजन .... हार्दिक बधाई आद. दीदी !!
सचमुच! बादलों ने तरसा दिया है इस बार ! बहुत अच्छा चोका आदरणीया दीदी जी!
~सादर
अनिता ललित
एक टिप्पणी भेजें