रश्मि विभा त्रिपाठी
1
मरु में भी जो
मेरा यह जीवन
है खूब हरा- भरा!
पोषण देती
मनमीत तुम्हारे
प्रेम की ये उर्वरा!!
2
तुम्हारा यह
आशीष कवच- सा
'तू
सदा सुखी रह'
देखो तो अब!
मुझको छू लेने को
कलपता कलह!!
3
अगर कोई
कभी भी परखेगा
मेरा मधुर हास!
वह पढ़ेगा
मेरे इन होठों पे
तुम्हारा इतिहास!!
4
सिर्फ तुम्हीं से
दिनों- दिन चौगुनी
सुख की बढ़त है!
सबके आगे
तुमको श्रेय देना
बोलो क्या गलत है?
5
भूल गई हूँ
मेरे खिलाफ होती
अकाल की साज़िश
तुम्हारा प्यार
जीवन के मरु में
भीनी- भीनी बारिश।
6
मेरे लिए ये
दुनिया तो प्रतीप
अँधेरों में धकेले!
राह दिखाता
मुझको पल- पल
तेरे प्यार का दीप।
7
निराशा में भी
देके आशा के फूल
जीवन महकाए,
तुम केवल
प्रेम में देते रहे
इसी बात पे तूल!
8
बिखरे पड़े
दुखों के तिनकों की
कैसे लगाती तह?
तुम न होते
इस जीवन की जो
इकलौती वजह!
9
भूल बैठी थी
सारे गीत- ग़ज़ल
और तुम आ गए!
चुपचाप से
पाँवों में पहना दी
खुशियों की पायल।
10
जैसे धरा के
तपते अधरों को
चूमती है बारिश!
उमर भर
यों प्यार मुझे देना
यही है गुज़ारिश!!
11
जब- जब भी
मेरे प्राणों पे बनी
उस पल तुम ही
दौड़करके
आ गए मनमीत
देने को संजीवनी।
-0-
7 टिप्पणियां:
प्रीति पगे मधुर सेदोका।बधाई रश्मि जी।
प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति। बेहतरीन सेदोका। सुदर्शन रत्नाकर
बहुत सुंदर, हार्दिक बधाई।
प्रेम रस से सराबोर बहुत ख़ूबसूरत सेदोका!
~सस्नेह
अनिता ललित
प्रेम की खूबसूरत परिभाषा देती हुई अभिव्यक्ति।बहुत सुंदर सेदोका।
सेदोका प्रकाशन के लिए आदरणीय सम्पादक द्वय का हार्दिक आभार।
आप सभी आत्मीय जन की टिप्पणी की हृदय तल से आभारी हूँ।
सादर
अत्यंत मोहक और मनभावन अभिव्यक्ति।एक से बढ़कर एक सुदोका।हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई स्वीकार करें 🙏
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