भीकम सिंह
तुम शहर !
घात लगा-लगाके
जाँचते रहे
दबोचने के लिए
खेत के गेहूँ
चूस लेने को सारा
गाँव का लहू
झपटने को सारे
सुख - औ- चैन
वो मस्ती वाली सैन
वो लम्बी- लम्बी रैन ।
गाँव- 77
हर खेत से
आवाजें आ रही हैं
पेड़ों की जड़ें
सब सुना रहीं हैं
हवा को कुछ
धरा को सब कुछ
छुट्टी के दिन
शहरों से आते हैं
स्वेद में भीगे
पचासेक साल के
व्यवस्थित चाल के
।
गाँव
- 78
पीड़ा से भरा
खेत अधजगा है
औंधा पड़ा है
आँसुओं को छिपाए
खोज रहा है
शस्यों की परछाई
खुदी नींव के
गड्ढों में गिरा हुआ
सह रहा है
नगरों की क्रूरता
थोड़ा-सा बचा हुआ
।
गाँव
- 79
शाम झाड़के
खलिहान से उठा
कंधे पे रखा
संतोष का अँगोछा
आँखें मूँदके
मुखाकृति को पोंछा
स्याह हो गया
धूसर- सा अँगोछा
खेतों में लगे
जुगनू ठुमकने
याद आए अपने ।
गाँव
- 80
खेतों के बाद
शुरू होगा बाज़ार
कहाँ जाएँगे
विस्थापित सियार
बस्ती पार के
झींगुरों की आवाजें
बुलाती हुई
करेंगी इंतज़ार
कभी-कभार
पाने के लिए प्यार
शहर के बाहर
।
-0-
9 टिप्पणियां:
वाह! वाह! हमेशा की तरह बेजोड़! धन्यवाद आदरणीय!
ग्राम्य जीवन के चित्र अंकित करने में भाई भीकम सिंह जी सिद्धहस्त हैं।उन्हें ग्राम्य जीवन का अद्भुत चितेरा कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।सुंदर चोका।बधाई।
गाँव पर आपकी लेखनी सदैव कमाल करती है। सभी चोका बेहद भावपूर्ण। बधाई भीकम सिंह जी।
ओह!गाँव गली के सब दृश्य मिट गए,वहीं मिट गयी अनगिन आवाजें,अनगिन मनोरम अनुभूतियाँ!! वो गाँव अब कभी ना दिख पायेंगे।अब बची हैं कुछ खंडित स्मृतियाँ! इन्हें गाने वाले कवियों की भी आखिरी पीढी है शायद 🙏😔
देहात गाँव पर लिखे शानदार चोका । भीकम सिंह जी आपको लेखनी को सलाम । बधाई ।
विभा रश्मि
मेरे चोका प्रकाशित करने के लिए सम्पादक द्वय का हार्दिक धन्यवाद और टिप्पणी करने के लिए आप सभी का हार्दिक आभार ।
ग्राम्य जीवन की दुश्वारियों को जैसे सजीव कर दिया है आपकी क़लम ने, साधुवाद!
बहुत ही सुंदर सृजन।
ग्राम्य जीवन का यथार्थ चित्रण करते बहुत सुंदर चोका। आपको हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
एक टिप्पणी भेजें