बुधवार, 8 दिसंबर 2021

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 1-सुदर्शन रत्नाकर

मन

       यह मन भी क्या है जिसने सम्पूर्ण प्राणी जगत को अपने नियन्त्रण में कर रखा है।मेरा मन नहीं है”, यह छोटा-सा वाक्य हमारे  जीवन में कितनी शिथिलता, कितनी निष्क्रियता कितनी नकारात्मकता भर देता है, यह तो हम सोचते ही नहीं और यह मन है कि इसे कितना भी समझाओ पर  सांसारिक आकर्षणों के प्रति इसका मोह छूटता ही नहीं।जितना प्रयत्न करो और और बँधता ही जाता है

         यह मन बड़ा चंचल है, हर समय छिछरता है, उलझता रहता है ।अच्छी बातों की ओर कम उच्शृंखलता की ओर अधिक जाता है और फिर अच्छी-बुरी बातों में पिसते मन का द्वन्द्व किसी निर्णय पर पहुँचने ही नहीं देता। विचारों, इच्छाओं ,आकांक्षाओं की लहरें इसमें उफनती रहती हैं जो सीमायें लाँघती रहती हैं, रुकती ही नहीं। संसार में दुखों का कारण दिग्भ्रमित होता हमारा मन ही है। पहले अच्छे -बुरे की सोच नहीं करता, अशांत रहता है फिर भटकता है अँधेरी कंदराओं में, निराशा के गर्त में डूबता है और अवसाद में भरकर जीवन के आनंद से भी वंचित हो जाता है।

       मन सुंदर तो तन सुंदर, जीवन सुंदर ।मन एक शक्तिशाली यंत्र है, आत्मशक्ति है जो सभी इन्द्रियों का राजा है। जिसका स्थान हृदय में है। शरीर के सारे कार्य मन की प्रेरणा से संचालित होते हैं। मन को देखा या छुआ तो नहीं जा सकता लेकिन सुख-दुख की अनुभूति हमारा मन ही करता है। संसार मन के अलावा कुछ नहीं ,ऐसे मन की भटकन, द्वन्द्व को तो दूर करना ही होगा, मज़बूत  बनाना होगा नहीं तो  जीना दूभर हो जाएगा।  मन इन्द्रियों रूपी घोड़ों की लगाम है उसे बुद्धि रूपी सारथी ही वश में कर सकता है।इसलिए विवेक से काम लेना आवश्यक है ,नहीं तो वह भटकता ही रहेगा।पर हमें उसे भटकने से रोकना है, उसे समझाना बुझाना है।अपने निर्मल मन को शांत रखना है, तभी मानसिक शांति बनी रह सकती है। धैर्य रखना सीखना है। उसे बुरे विचारों से मलिन नहीं करना। उस पर अंकुश लगाना ज़रूरी है। सदा उसकी नहीं सुननी मन को एकाग्र करने के लिए उसके भीतर गहरे  में झाँकना होता है तभी मन स्थिर होगा ।आशावादी दृष्टिकोण अपना कर मन वश में करेंगे तो वह हमारी भी सुनेगा।

 1

कैसा है मन

भटकता रहता

द्वन्द्व में जीता।

2

मन ही तो है

अपनी है करता

नहीं सुनता।

3

करो वंश में

भटकते मन को

शांत जीवन।

-0-सुदर्शन रत्नाकर, ई-29,नेहरू ग्राउंड, फ़रीदाबाद 121001

-0-

ताँका-  रश्मि विभा त्रिपाठी 

1

प्रेम- विधान 

सर्वसुख- संधान

प्रिय- रूप में 

ईश का वरदान 

पा प्रफुल्ल हैं प्रान।

2

प्रतिपल ही

धरें तुम्हारा ध्यान 

मन औ प्राण

गाएँ प्रेमिल गान 

नि:शेष जग- भान।

3

वन्दनीय है 

ये प्रेम- समर्पण 

तुम विरले

उठाया ये बीड़ा 

हर ली दुख- पीड़ा।

4

जीवन- रण 

यही तुम्हारा ध्येय 

रहूँ अजेय

मिला जो अप्रमेय 

सुख का तुम श्रेय।

5

प्रत्येक बार

जीवन- नैया पार 

लेता उबार

सुभाशीष विशिष्ट 

प्रिय ही मेरे इष्ट।

6

मन विकल 

अभिलाष प्रबल

करे प्रज्वल 

प्रतीक्षा के प्रदीप

प्रिय आओ समीप।

7

है अविरल

भाव- नदी निर्मल

संतृप्त हुआ

मन का मरुथल

'पावन प्रेम- जल'

-0-

8 टिप्‍पणियां:

dr.surangma yadav ने कहा…

आदरणीय सुदर्शन रत्नाकर जी ने मन की प्रवृत्ति पर बहुत सुंदर लिखा है,रश्मि विभा जी के ताँका सदा की तरह सुंदर। बहुत-बहुत बधाई।

बेनामी ने कहा…

बहुत ही सुन्दर हाइबन।
हार्दिक बधाई आदरणीया।

सादर

बेनामी ने कहा…

मेरे ताँका प्रकाशित करने हेतु आदरणीय सम्पादक द्वय का हार्दिक आभार।

आदरणीया सुरंगमा जी का हृदय तल से आभार कि मेरे ताँका आपको पसंद आए।

सादर

Anita Lalit (अनिता ललित ) ने कहा…

मन की लीला निराली, खेल निराले! सुंदर हाइबन आदरणीया दीदी जी!
सुंदर प्रेममय ताँका रश्मि जी!
हार्दिक बधाई आप दोनों को!

~सादर
अनिता ललित

सविता अग्रवाल 'सवि' ने कहा…

सुंदर हाइबन है और रश्मि जी के खूबसूरत तांका हैं | आप दोनों को हार्दिक बधाई |

Sudershan Ratnakar ने कहा…

प्रेम पगे बहुत सुंदर ताँका ।हार्दिक बधाई रश्मि विभा जी।
मेरा हाइबन पसंद करने के लिए आप सभी का हार्दिक आभार।

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

बहुत सुन्दर हाइबन और ताँका. रत्नाकर जी और रश्मि जी को बधाई.

Krishna ने कहा…

बहुत सुन्दर हाइबन और ताँका... आ.रत्नाकर दी और रश्मि जी को हार्दिक बधाई.