रिश्ते
वे सारे
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
रिश्ते वे सारे
आओ करें तर्पण
बीच धार में
जो चुभते ही रहे
उम्रभर यों,
जैसे जूते में गड़ी
कील चुभती
रह-रह करके
जीवन भर
टीस ही देते रहे
वे क्रूर रिश्ते,
जो लेना ही जानते
कुछ न देते
उलीच लेते साँसें
निष्ठुर लोग
सब कुछ ले लेते
जब देना हो,
चुभती कील जैसे
दर्द ही देते
कर्त्तव्य की वेदिका
शीश लेकर
कभी तृप्त न होती
रक्त-पिपासु
सिर्फ़ प्राण माँगते
क्रूर वचन
क्रूस पर टाँगते
विष उगाते
अमृत कैसे बाँटें
जिह्वा की नोक
विष-बुझी छुरी-सी
आत्मा को चीरे
दग्ध करे मन को
जो साँसें बचीं
उनको समेट लें
तय कर लें-
रिश्तों के मज़ार पे
फ़ातिहा पढ़ लेगें।
9 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर भावपूर्ण कविता है भाई काम्बोज जी हार्दिक बधाई| दिल से निकले एक एक शब्द में गहरी तीस है |
सच ही कहा आपने आ.भाई साहब, ऐसे रिश्तों की तिलांजलि देनी बहुत आवश्यक है, वरना जीवन दूभर हो जाता है। सुंदर अभिव्यक्ति के लिए आपको बधाई!
जीवन बस संधर्ष का नाम है।
गहरे अर्थ लिए भावपूर्ण सृजन
गहन अर्थ लिए भावपूर्ण सृजन हेतु आपको बहुत-बहुत बधाई ।
तय कर लें-
रिश्तों के मज़ार पे
फ़ातिहा पढ़ लेगें
शब्द -शब्द में रिश्तों के छलावे की पीड़ा का भाव छलक रहा हैlभावपूर्ण सृजन हेतु आपको बहुत-बहुत बधाई भैया जी !
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ऐसे रिश्तों को त्यागना ही बेहतर है। बहुत सुंदर गहन भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई भाईसाहब।
रिश्ते क्रूर
दिल को गहरे तक छू गई ये पंक्तियाँ | ऐसे रिश्तों को क्या सच में रिश्ते कहा जा सकता है ?
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